अप्रत्याशित
अप्रत्याशित
डॉक्टर दयाल के घर के बाहर पचास से ज्यादा मरीज अपनी बारी की प्रतीक्षा में लेटे - बैठे हैं, और नए भी आते जा रहे हैं। एक लम्बी बैंच पर बैठे लगभग अस्सी वर्षीय बुजुर्ग अपने साथ आये बेटे से अपनी बारी के बारे में पूछते और "ना" सुनकर मौन हो आने-जाने वाले लोगों को देखने लग जाते। पिछले दो घण्टे से उनका यही सिलसिला चल रहा था। उम्र के इस पड़ाव में समय पहाड़ से कम नहीं लगता और शुगर , बी पी , न जाने कितनी बीमारियाँ इस अवस्था में आ घेरती सो अलग। दोनों हाथों से अपनी छड़ी को पकड़े मदन लाल जी रह-रहकर उकता जाते और बेटे को अपनी बारी की पूछकर मौन जाते।
सहसा उनकी धुंधलाती नज़र सामने से आते समवयस्क बुजुर्ग पर पड़ी जिसे परिवार के दो सदस्य दोनों बाहें पकड़ ला रहे थे। ज्यों-ज्यों वे पास आते जाते त्यों-त्यों मदनलाल जी के चेहरे पर लकीरें पड़ने लगी जैसे वे कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हो। बुजुर्ग को उनके सामने वाली बैंच पर बैठाकर साथ वाले नंबर लगवाने चले गए। दुबली पतली काया, लम्बी दाढ़ी, सामान्य कद - काठी वाले बुजुर्ग चलकर यहाँ तक आने पर हांफ रहे थे। चेहरे पर उम्र की थकान साफ झलक रही थी। कुछ नज़र भी कमज़ोर हो गई । अपने साथ आये सदस्यों को पास न देखकर इधर - उधर देखने लगे।
मदनलाल जी को सहसा याद आया कि ये तो समसुद्दीन जी हैं तो उन्होंने अपने बेटे से पूछा, लेकिन बेटे ने कहा कि नहीं कोई ओर है। मदन जी की जिज्ञासा शांत न हुई, वे कुछ और याद करते हुए उन बुज़ुर्ग की तरफ हाथ हिलाकर बोले "कय्यूम जी हो" दो-तीन बार हाथ हिलाकर इशारा किया पर सामने बैठे बुजुर्ग का ध्यान नहीं खींच पाए। उन बुजुर्ग के साथ वाले भी उनके पास आ गए और मदनलाल जी के इशारे की तरफ उनका ध्यान दिलाया। बुजुर्ग ने निर्विकार भाव मदन जी की तरफ देखा और कुछ याद करने की कोशिश की, लेकिन कुछ भी नहीं समझ सके और सहज भाव से अपने साथ वालों की तरफ देखने लगे। साथ वालों ने बताया कि याददाश्त कमज़ोर हो गई है, कभी-कभी तो हम घर वालों भी भूल जाते हैं। मदनलाल जी अपने विश्वास पर अडिग थे। अपनी छड़ी टिकाते हुए उन बुज़ुर्ग के पास जा कर बोले "कय्यूम कैसे हो, मैं मदनलाल।" इनके पास जाकर बोलने पर पहले तो बुजुर्ग के चेहरे पर तनाव आया और फिर अचानक एक खुशी की लहर फूट पड़ी।" अरे !ओ हो! हो! हो...मदनलाल।" दोनों की बाछे खिल उठी। एक लंबी मुस्कान के साथ बुजुर्ग उठ खड़ा हुआ। दोनों ने जोश से हाथ मिलाया और एक दूसरे को बैठने को कहा। दोनों बुजुर्गों के मिलन ने वहाँ खड़े सभी लोगों के मन में करुणा मिश्रित खुशी भर दी।सब लोग भाव विभोर होकर उनकी तरफ देख रहे थे।
दोनों ने काफ़ी देर तक एक दूसरे से बात की और हालचाल जाना। आज से पचास साल पहले दोनों ने साथ-साथ मास्टर की ट्रेनिंग की थी और अलग-अलग जगहों पर नौकरी लगे। संचार के साधनों के अभाव में वापस कभी मिलान ही नहीं हुआ।आज दोनों मिलकर गद-गद थे। तभी अंदर से "मदनलाल जी" की आवाज आई और बेटे ने कहा "बाबूजी अपनी बारी आ गई, चलो।" मदनलाल जी फिर से हाथ मिलाकर डॉक्टर के पास चले गए। कय्यूम जी मंद मुस्कान के साथ जाते हुए मदनजी को देख रहे थे, जैसे बरसों की मुराद पूरी हो गई हो।