इंतज़ार एक औरत का

इंतज़ार एक औरत का

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पक्की उम्र में मेरी शादी एक कमसिन लड़की से हुई। वह खूबसूरत गुड़िया सी, गृहस्थी के क्रिया कलापों से अपरिचित थी। मेरे अन्दर औरत की भूख चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी। वन क्षेत्र की पुलिस चैकी में मेरी पोस्टिंग थी, वहाँ की स्त्रियों का खुलापन, उनकी गरीबी, खाकी वर्दी का भय और सबसे अधिक मेरा आर्यन पुरूष सौन्दर्य स्थानीय लोगों में आकर्षण का केन्द्र था। उपरोक्त कारणों से मेरा जीवन रसमय था।

सच कहता है डार्विन कि मनुष्य क्रमिक विकास का परिणाम है, या फिर चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य योनि प्राप्त होती है, तभी तो इतर योनियों की प्रवृत्तियाँ समय-समय पर प्रबल होती रहतीं हैं। मुझमें भी स़्त्री की निकटता बाज जैसी स्फूर्ति का संचार भर देती है। यह मेरी सहज प्रवृत्ति है, मैंने स्त्री को हमेशा तैयार पकवान समझा, यद्यपि वह इस व्यवहार के योग्य न थी तथापि मैं अपनी प्रकृति के विपरीत कैसे जाता ? वह सीता-सावित्री के संस्कारों को लेकर मेरे जीवन में आयी थी। उसने मेरी क्रूरताओं को दुर्घर्ष वीरता से बर्दास्त किया। बाकी समय वह घर के बच्चों के साथ बच्ची बनी रहती, घर के सारे काम गुनगुनाती हुई पूरा करती। घर की बड़ी औरतों के पैरों में तेल मालिश करके जब वह अपने बिस्तर पर आती तब तक इधर एक भूखा शेर क्रोध से उबलता करवटें बदलता होता।

दो माह की छुट्टियों के दिन जैसे पलक झपकते बीत गए। मेरे ड्यूटी पर वापस जाने का समय आ गया, वह मेरे वियोग की कल्पना में मुर्झाई सी खाना-पीना छोड़कर चुपचाप दैनिक कार्यक्रम पूर्ण कर रही थी, माना की वह एक सेहतमंद खुशमिजाज लड़की थी, परन्तु भूख का असर तो दिखना ही था, उसके ताजे खिले गुलाब के फूल जैसे गालों को मेरी मुहब्बत ने काले-काले दागों से भर दिया था। वह तो घूंघट के कारण बात संभल रही थी, वरना घर की स्त्रियों को वह क्या उत्तर देती ?

मेरा मन जैसे घर रूपी खूंटे से बंधा-बंधा अनुभव कर रहा था। पत्नी और अन्य स्त्रियों का फर्क मुझे ज्ञात हो चुका था। लगता था मेरे व्यवहार में पहले वाली बात अब न रह जायेगी, भूख की मजबूरी वाली कसम नही खा सकता।

उस बार वह हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था। घर से निकलते निकलते विलंब हो गया और मेरी गाड़ी छूट गई, मुझे घर वापस आना पड़ा, यह मुझे शर्मनाक तो लगा ही साथ ही एक जिज्ञासा लेकर घर आया था देखूं वह कैसी है ? मेरे जाने के बाद उसने कुछ खाया-पिया या यूं ही पड़ी है, क्योंकि वह मुझसे लगातार साथ चलने का आग्रह कर रही थी रामायण की वह चैपाई भी सुना दी थी जिसमें सीताजी राम से कहती हैं -

‘‘प्राणनाथ करूणायतन सुन्दर सुखद सुजान।

तुम बिन रघुकुल कमल विधु सूर पूर नरक समान।।’’

मैंने उसे समझाया था, जंगल में तुम सुरक्षित नहीं रह पाओगी मैं ड्युटी से कई-कई दिनों तक घर से दूर रहूँगा, तुम अकेली कैसे रहेगी ? यहाँ भाभी हैं बच्चे हैं, तुम्हारा मन लगा रहेगा, मैं हर हप्ते पत्र लिखूँगा तुम्हें।’’

उसने अपने छोटे मुँह से फिर एक भारी भरकम चैपाई कह सुनाई -

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी, तैसिय नाथ पुरूष बिनु नारी।’’

उसकी श्रद्धा के योग्य मैं कदापि न था। उसे देर तक सीने से लगाये, समझाता रहा था, उस रात हम दो घंटे से अधिक नहीं सो पाये थे।

सामान रखने के बहाने मैं धड़धड़ाता हुआ कमरे में घुस गया। मुझे देखकर वह चैंक गई। उसने धर्म शास्त्रों में वर्णित विरहिणी स्त्री का जीवन अपना लिया था। एक पतली चादर डाल कर जमीन पर लेटी थी, इतनी गर्मी में कमरा बंद करके बांहों का तकिया लगाये वह उसे आँसुओं से भिंगा रही थी। इस तरह ग़मज़दा थी कि उसके चेहरे पर एकाएक मुस्कुराहट भी न आ सकी।

उसे उठाकर मैंनें सीने से लगाकर भींच लिया। ’’ये क्या तमाशा बना रखा है ? इस प्रकार मैं कैसे जा सकूँगा ? इतना समझा कर गया था, अन्य सिपाहियों की औरतें अकेली नहीं रहतीं क्या ? जाओ मुँह धोकर आओ !’’ मैंने अपनी व्यथा पर कठोरता का खोल चढ़ाया। वह खुश हो गई, मुँह धोकर मेरे लिए चाय, पानी की व्यवस्था में लग गई।

कुछ मजदूर सामने वाले कमरों के खपरैल सुधार रहे थे, क्योंकि बरसात सामने थी, उनमें मेरा मुँह लगा नान्हीं भी था, ऊपर धूप में बैठा तम्बाखू चबाता, बड़े गहरे से मुस्कराया ‘‘गाड़ी छूटि गई का चचा ?’’ उसके स्वर में व्यंग्य था, जैसे मेरी मनोदशा से पूरी तरह वाकिफ़ हो।

‘‘अबे तू तो भगाना चाहता है मुझे घर से।’’ मैंने उसका वार झेलते हुए उत्तर दिया था।

दूसरे दिन फिर सुबह से वही हाल, ‘‘मैं साथ चलूँगी, जब आप बाहर रहेंगे, इंतजार करूँगी, जब आयेंगे तब सेवा करूँगी।’’

‘‘ठीक है अभी तुम यहाँ रहो, मैं बहुत जल्दी तुम्हें ले चलूँंगा, जरा रहने की व्यवस्था कर लूँ, अभी तो बैरक में पड़ा रहता हूँ, .फिर हम हमेशा साथ रहेंगे,लेकिन एक वादा करो! अच्छे से रहोगी! धर्मशास्त्र के नियम तुम्हारे लिये नहीं हैं, जमीन पर कभी मत सोना! कुछ काट लेगा तो ? दोनों वक्त भोजन करना, जब भी आऊँ पहले से अच्छी देखूँ, वर्ना तुम जानो, मेरे साथ न जाना हो तो जो चाहे सो करना।’’

वह बँध सी गई, ‘‘यह कैसी विवशता में डाल दिया आपने ? ये नियम हर उस स्त्री के लिए हैं, जिसका पति बाहर गया हो उसे छोड़कर।’’ वह धीमे से बोली थी।

’’पति कोई सजा भुगतने नहीं जा रहा है, रोजी-रोटी के लिए जा रहा हंे’’ मैंने जरा कड़ाई से कहा।

‘‘तो क्या देखने के लिए वापस आ गये थे ?’’

‘‘और क्या ?" मुझे कहना पड़ा, जो सत्य के करीब था।

इतने दिनों में उसने कुछ नहीं माँगा था, दिन रात कुछ न कुछ करते रहने का शौक था उसे। जहाँ समय मिला कुछ लिखने-पढ़ने लगती, उसकी पेटी में उसके द्वारा लिखे सात उपन्यास मोटी-मोटी कापियों की शक्ल में रखे थे, चूँकि मैं ठहरा, गोली बन्दूक से खेलने वाला सिपाही, इसलिए उस ओर मेरा ध्यान गया ही नहीं।

छः माह बड़ी मुश्किल से गुजरे, उसने मुझे हर हफ्ते लंबे-लंबे खत लिखे, जिनके शब्दों को पढ़ना भी मेरे लिए मुश्किल हुआ करता था। उत्तर में मैंने भी कुछ पत्र लिखे। वेे और चाहे जो हांे प्रेम पत्र के दायरे में नहीं आ सकते थे। उसकी दुआओं का असर था या संयोग, मेरा तबादला मलखानपुर कस्बे के थाने में हो गया। यहाँ क्वार्टर खाली नहीं था, अतः अकेले रहने वाले सिपाहियों के कमरे में मैंने अपना डेरा जमाया। स्थानीय बोली में उसे डिंड़वा खोली कहा जाता है। एक छोटा सा कमरा, खुली परछी और टट्टे की दीवारें, जिन्हें, लकड़ी के बत्ते से जोड़कर परदा बना दिया गया था, मैंने इसे ही आशियाना बनाने का विचार किया। कुछ और टट्टे लाकर कमरे के सामने आँगन जैसा घेरा बना दिया। बगल में कच्चा शौचालय था। उस समय बिजली मात्र थाने में जला करती थी, बाकी लोग लालटेन के उजाले में रहते थे। पानी नदी से लाना पड़ता था, कुछ औरतें थाने के क्वार्टर्स में पानी भरतीं थीं, मैंने एक को लगा लिया।

दीपावली का समय आ चुका था, वह अपने मायके चली गई थी। घर से भाई का पत्र आया था कि शुभ मुहुर्त देखकर अब अपने पास ले जाऊँ विदा कराकर। उसके अकेलेपन का ख्याल करके मैंने अपने भतीजे को बुला लिया था, तीन चार लोग जाकर उसे विदा करा लाये।

पहले दिन की रसोई का क्या कहना ? मुझे इतनी भी समझ न थी कि गीली लकड़ियाँ़ कैसे जलंेगी ? वे लगातार चार घंटे धुँआती रहीं, न दाल पक सकी, न चावल, मैंने भी फूँक मारी किन्तु वे न जलीं, मिट्टी तेल की बोतल खाली हो गई, माचिस की डिब्बी खाली हो गई। अधपका खाकर ही संतोष करना पड़ा।

किसी व्यवस्था से उसे कोई शिकायत नहीं थी, हमारे पास संसाधनों की कमी थी। दो खाट और सोने वाले तीन, छोटे छोटे बर्तन, भयानक ठण्ड और ओढ़ने बिछाने के कपड़े थोड़े से। उस पर मेरी आदत अकेले सोने की, 80 रू. महिने की पगार और नई बसती गृहस्थी, वह खुश थी मेरे साथ, हालाकि हम उम्र भतीजे नंदू के साथ सोने में संकोच करती थी, परन्तु चारा भी क्या था, बच्चे को हम इतनी ठण्ड में बाहर कैसे सुला सकते थे ?

कुछ दिनों बाद हमें फेमिली क्वार्टर मिल गया, जिसमें एक बड़ा कमरा, परछी, जिसके एक हिस्से में छोटी सी रसोई थी। सामने छोटा सा आँगन और कच्चा शौचालय जिसे सफाई कर्मी रोज साफ करतीं थी। पानी माँगकर धोती थी। उस कमरे में हमारी गृहस्थी अधिक आसानी से जम गई। उसे घर की वस्तुएँ ठीक से जमाना नहीं आता था, शायद अकेली जिम्मेदारी उठाने का प्रथम अवसर था। वह मेरे कपड़े धोती, कलफ़ लगाती, कच्चे फर्श को गोबर से लीपती, जब तक घर न आ जाता, भूखी प्यासी मेरा इंतजार करती, बर्तन छोटे थे, इसलिए उसके लिए खाना कम पड़ जाता, न उसे समझ न मुझे कि अकेले वाले बर्तन तीन के लिए छोटे होंगे। पड़ोस की प्रौढ़ा महिला से उसने बहनापा गाँठ लिया था, उससे घर गृहस्थी चलाना सीख रही थी।

वह मुझसे सदा भयभीत रहती थी, भले ही उसका प्रतिरोध हर बार समर्पण में बदल जाता था। उसकी आँखों में तैरता अपने प्रति डर देखकर मेरा पौरूष और प्रबल हो जाता, मैं खुश था। हम एक-एक तिनका जोड़ कर अपना घोसला बना रहे थे, वह घर सजाने के लिए रातों को जाग-जागकर कपड़े में कसीदाकारी करती, कपड़े की गुड़िया और मिट्टी के खिलौने बनाती, धीरे धीरे आसपास के घरों की युवतियाँ, बच्चे, हमारे घर डेरा जमाने लगे। उसके आग्रह पर मैं उसके पढ़ने के लिए पत्र-पत्रिकाएँ, तरह-तरह की साहित्यिक पुस्तकें लाने लगा था। कई बार तो वह दो रोटियों के सिकने के मध्य जो समय मिलता उसमें भी कुछ अक्षर पढ़ लेती। उसे बातें करने का बहुत शौक था, जहाँ किसी को पाती, प्रश्न पूछ-पूछकर उसकी पूरी कहानी जान लेती, इसमें वह राजा-रंक, जवान-बूढ़ा, स्त्री-पुरूष का कोई भेद न करती। उसकी बातें चर्चा का विषय बनतीं, मैं ठहरा लट्ठ भारती, उसे समझाने योग्य भाषा कहाँ से लाता, डाँटता, वह रोती, नाराज होती किन्तु दो-चार दिन बाद फिर वही हरकत, मैं उसे सीधे-सीधे कैसे कह देता कि तुम एक खूबसूरत युवती हो, तुम्हें युवकों से इस प्रकार खुलकर बातें करना शोभा नहीं देता। तुम भोली हो, मर्दों की नज़र का अर्थ नहीं समझती, चले आ रहे हैं, कोई दीदी, कोई चाची तो कोई भाभी कहते, मन में क्या है, मुझसे पूछो, मैं जो हर रास्ते से गुजर कर तुम्हारे पास आया हूँ।

हमारी पहली होली थी, उसने घर को लीप बुहार कर स्वच्छ किया था। सारे कपड़े धो डाले थे। पड़ोसन से पूछ-पूछकर गुझिए बनाये थे। मैंने खुशी से फूले-फूले सबके यहाँ गुझिए पहुँचाये थे, अब तक तो डिंड़वाराम बना मुँह ताका करता था त्यौहारों पर। मुझे उसकी बड़ाई करना और सुनना दोनों बहुत भाता था।

थाने में होली के दूसरे दिन होली का जश्न मना रहे थे हम लोग। स्टील के ड्रम में भाँग घोली गई थी। दूध, बादाम, पिस्ता, चीनी आदि पहुंँचाने वाले पहुँचा गये थे। दारू की बोतलें यदि उड़ेली जातीं, तो उनसे भी ड्रम भर जाता। अपने राम ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। हाँ भांग हमारी संस्कृति में मान्यता प्राप्त नशा है, मुझे भी शौक था भाँग पीने का। सब नशे में चूर अजीब-अजीब हरकतंे कर रहे थे। गाना बजाना, नाचना कपड़े फाड़ना, फूहड़-फूहड़ होली गाना, सब चल रहा था। मुझे उसकी याद आई, एक लोटे में भाँग वाला शरबत लेकर घर पहुँचा, उस समय शाम गहरा गई थी। लालटेन के उजाले में मंैने देखा कि खाट पर एक युवक बैठा है आँगन में, वह पीढ़े पर बैठी उससे बातें कर रही थी, युवक बगल वाली उसकी जीजी का भाई था, आ गया दीदी-दीदी करके। मैं तिलमिलाया, किन्तु स्वयं को सम्हालते हुए शरबत का लोटा उसके हाथ में थमा दिया।

‘‘यह क्या है ?’’ उसने नजरे उठाकर मुझे देखा।

‘‘भाँग है पी लो’’ सब पी रहे थे मैं ले आया तुम्हारे लिए।’’ मैंने अपना स्वर साध कर कर कहा।

‘‘मेरे लिए...ऽ....ऽ.....?’’

‘‘हाँ’’....।

‘‘मैं और भाँग ? यह तो आपको भी नहीं पीनी चाहिए।’’ वह तड़प गई बिजली सी।

‘‘पी..लो ! पी..लो ! कुछ नहीं होता, त्यौहार में चलता है!’’ मैंने एक प्रकार से मनुहार की।

‘‘आपको शर्म नहीं आती मुझसे भाँग पीने के लिए कहते हुए ?’’

उसने मेरे हाथ से लोटा छीन कर जमीन पर पटक दिया। उसमें रखा शरबत तो गिरा ही, मेरे अन्दर जैसे कुछ दरक सा गया। मेरा हाथ उठा और झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर बैठ गया। मैंने उसकी माँ-बहन को भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं। वह अन्दर भागी, कमरे के एक कोने में बैठ कर रोने लगी। मुझे दोहरी चोट लगी, पराये मर्द के सामने उसने मेरा अपमान करने के साथ ही मेरी आज्ञा का उल्लंघन बड़े गलत तरीके से किया था। मन तो हो रहा था कि इतनी अच्छी जूतम पैज़ार करूँ कि उसके आदर्श की तो ऐसी की तैसी हो जाय।

‘‘ये तो बहुत गलत कर दिया जीजा दीदी ने।’’ मुँह पर हवाइयाँ उड़ाता उसका कथित भाई उठकर चला गया।

उसे छोड़कर मैं होली खेलने चला गया। गुस्से में दो चार गिलास और भाँग चढ़ाई, परन्तु अक्सर पीने के कारण ज्यादा नशा नहीं हुआ। नंदू भाँग के गिलास चढ़ाता होली खेल रहा था।

घर आकर देखा तो वह उसी जगह बैठी रो रही था जहाँ मैं छोड़ कर गया था। मुझे उस पर जरा भी दया नहीं आई। चुपचाप खाट बिछाई और सो गया। नंदू ने स्वयं लेकर खाया-पीया जो उसका मन हुआ।

दूसरे दिन भी वह मुझसे रूठी रही। काम तो सारे किये, लेकिन बात नहीं की, मैंने नज़र बचाकर देखा उसके गाल पर मेरी अंगुलियों के निशान थे। रोते-रोते उसकी आँखें सूज गईं थीं। मुझे उस पर प्यार आ गया।

‘‘ना समझ है, धीरे-धीरे सब समझ जायेगी।’’ मैंने खुद को समझाया।

‘‘तुमने शरबत क्यों फेंका ?" - मैंने उसे बाँहों से खींचकर अपने सामने किया।

‘‘शरबत था या भाँग थी ?’’ उसने आँखें चढ़ाई

‘‘जहर तो नहीं था न ? कहती हो पति की आज्ञा सबसे बड़ी है फिर क्यों नहीं मानी, वह जो बैठा था, तुम्हारा ...? उसे दिखा रही थी अपनी शान !’’ मैं फिर तल्ख हो गया।

‘‘नशा करने की आज्ञा मानना चाहिए, यह किस शास्त्र में लिखा है ? जानते नहीं भाँग, शराब के समान ही नशा है, इससे गठिया, वात आदि बीमारियाँ होती हैं, बेहोशी आती है सो अलग।’’ उसने पढ़ा-पढ़ाया उगल दिया।

‘‘यहाँ बात आज्ञा मानने की है, यदि पति को परमेश्वर मानती हो तो ?’’

‘‘पहले पति को परमेश्वर बनाना भी धर्मपत्नी का कत्र्तव्य है। क्या भगवान् राम ने अपनी पत्नी सीता को भाँग खाने की आज्ञा दी ? गलत आज्ञा देना आपकी गलती है।’’ वह बहुत गुस्से में थी।

‘‘ठीक है मेरी गलती थी, बाद में कह सकती थी, दूसरे आदमी के सामने...?’’

‘‘दूसरे आदमी के सामने क्यों दिया मुझे भाँग ? क्या मैं कोई नाचने वाली हूँ, जिसे नाचने के लिए नशे की जरूरत है ?’’ वह चिल्ला रही थी, उसका चेहरा लाल भभुका हो रहा था।

‘‘आप पीते हैं इसीलिए आपका भतीजा भी पीता है, जो देखेगा वही तो सीखेगा।’’

‘‘अच्छा बस करो ! अब जाओ मेरे लिए चाय ले आओ !" - मेरी आवाज कमजोर पड़ गई थी।

मुझे उससे इस तल्खी की उम्मीद नहीं थी, अभी व्यवहारिक ज्ञान की कमी थी उसके अन्दर। सिद्धान्त सिर पर चढ़े रहते थे इसीलिए नंदू से भी उसकी नहीं पटी। वह पहली बार गाँव से बाहर आया था, हाट-बाजार, सिनेमा, खेल, चुहल में मन लगाता, पढ़ाई से दूर भागता, जब मैं बाहर गया होता वह भी देर रात तक घूम कर आता। वह इंतजार करती। दोनों में कहा सुनी होती, पता चलने पर मैं हमेशा नंदू की पिटाई करता। वह रो-रोकर अपनी आँखें लाल कर लेता, लेकिन अवसर मिलते ही पुनः वही करता।

उसने मुझसे आठवीं कक्षा की परीक्षा स्वाध्यायी के रूप में देने की अनुमति माँगी, मैं इसकी कोई आवश्यकता नहीं समझता था, परन्तु उसकी पुरजोर माँग के आगे मैं झुक गया। मुझे विश्वास था वह पास नहीं हो सकेगी, उपन्यास, कहानियाँ पढ़ना और बात है बोर्ड परीक्षा देना और, इसीलिए फार्म भरवा दिया, पुस्तकंे लाकर दे दी। पूरे थाने में बात फैल गई ‘‘बूढ़ी छेरी बगइचा चरने चली है।’’

‘‘बड़ी बदमाश औरत है ! मेरे पाले होती तब बताता उसे। अमरवा सीधा पड़ता है न इसीलिए नचाती रहती है।’’ थाना प्रभारी के इस जुमले से अन्दर तक आहत होकर एक बार पुनः वह अपनी पुस्तकों की दुनियाँ में डूब चुकी थी। उसे क्या पता था उसकी बचकानी हरकतें मेरी नजर किस कदर झुकातीं हैं ?

उसकी तबीयत कुछ भारी रहने लगी थी। सुबह- सुबह उल्टियाँ आतीं, जी मिचलाता, सिर चकराता, उसने मुझे बताया था, उसके दिन चढ़ गये थे। बाप बनने की खुशी के साथ-साथ एक उलझन सी थी दिल में, कैसा होगा आगे का जीवन ? मैंने घर में कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था, माँ तो मुझे छोटा छोड़कर ही भगवान् को प्यारी हो गई थी, भाभियाँ थीं, मैं ज्यादातर बाहर रहता था। छट्ठी बरही में जाता या फिर चाचा कहलाने जाता।

उसका ज्ञान भी किताबी ही था। अपनी बेचैनी वह अकेली सहती, घर के काम उसे करने ही थे, मैं अपनी खास जरूरतों के लिए अब पहले की तरह इधर-उधर मुँह मारने का खतरा उठाने क्यों कर जाता ? वह सन् 1971 का वर्ष था, भारत के सहयोग से बंगला देश का अभ्युदय हुआ था। शेख मुरजीबुरर्हमान की तपस्या सफल हुई थी, पाकिस्तानी अत्याचारों से त्रस्त पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों ने जब अलग देश बनाने की माँग की तब वहाँ की जियाउरर्हमान की सरकार सख्त हो गई। पूरी तरह मार-काट मच गई। जान बचाकर निन्यानबे लाख शरणार्थी भारतीय सीमा में घुस आये। मानवीय आधार पर उन्हें निकाला नहीं जा सकता था। उनके खाने-पीने, रहने का भार देश को अनायास ही उठाना पड़ा। तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने जिस समय दहाड़ कर युद्ध की घोषणा की, लगा ट्राँजिस्टर फटकर उड़ जायेगा। सुनकर वह रोमांचित हो गई थी। उसकी मानसिक हलचलों से न मुझे कोई मतलब था न ही फुरसत थी।

वह अपनी गृहस्थी में नये-नये आये सेकेन्ड हेण्ड ट्रान्जिस्टर पर प्रायः समाचार सुना करती, मुझे लगता यह कुछ करने के लिए बेकरार है। जब उसने भिखारिन के सेना के जवानों हेतु दान करने का समाचार सुना तब अचानक उदास हो उठी ‘‘मैं तो इससे भी गई गुजरी हूँ, इस आपत्काल में भी घर के अन्दर खा कर सो रही हूँ।’’ उसके स्वर में पछतावा था।

नंदू की शरारतें घटने के बजाए बढ़ती गईं, मेरी अनुपस्थिति में वह उसे तिगनी का नाच नचाता, यहाँ तक कि वह थाने के कर्मचारियों से उसके नाम पर उधार माँग कर खर्च करने लगा। मुझे पता चला तो अच्छी खबर ली मैंने। अंत में हार कर उसे गाँव भेजने का निर्णय ले लिया।

उसने बेटे को जन्म दिया था। मोटे ताजे सुन्दर से बेटे का मुख देखकर मानों मैं अपने आप को भूल गया। मुझ अभागे के घर खुशी इस प्रकार आयेगी मैंने कभी सोचा भी न था। चूँकि शिशु पालन में दोनों अनाड़ी थे, मैंने काम करने वाली कुन्ता को बच्चे की मालिश आदि के लिए कह दिया।

वह समय निकाल कर परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मुझे एक रत्ती भी उम्मीद नहीं थी कि वह पास हो जायेगी। प्रसन्नता कम और सदमा अधिक लगा मुझे, जब मैं उसका रिजल्ट लेने गया। जिला शिक्षाधिकारी ने मुझे अजीब सी नजरों से देखा था -

‘‘कौन है आपकी ?’’ उसका प्रश्न मेरी समझ में नहीं आया।

‘‘पत्नी है सर’’ मेरे मुँह से निकला।

‘‘आश्चर्य ! सभी विषय में विशेष योग्यता मिली है इसे तो, बहुत होनहार है यह।’’ उन्होंने मार्क शीट मुझे दे दी। उसे देखकर वह एक बार दृढ़ता से खड़ी हुई, चिड़िया सी चहकी फिर रोज के कामों में लग गई।

लगा जैसे वह झीना सा परदा जो होली की रात हमारे बीच आ गया था, जरा और घना हो गया।

मेरा ट्रान्सफर हुआ। हम शहर आ गये, वहाँ जीवनयापन देहात से कठिन था, क्योंकि, सभी चीजें खरीदनी पड़तीं, आमदनी बढ़ने के बजाय घटती गई।

आगे की पढ़ाई का निर्णय उसने स्वयं लिया, बच्चे को गोद में उठाये, वह यहाँ-वहाँ जाती, पता लगाती, कहाँ से किस तरह स्वाध्यायी के रूप में फार्म भर सकती है। उस समय आठवीं के बाद ग्यारहवीं बोर्ड था। इस बीच हमारे जीवन में एक बच्चा और आ गया। काम, खर्चे और जिम्मेदारियाँ सब बढ़ गईं। कम किराये के कारण हमने एक पुराना सा घर किराये से लिया था, जहाँ घर के पीछे से कच्चे पाखाने की नाली जाती थी, जो हमारी रसेाई से एक फुट की दूरी पर थी, घर बारह मास सीलन, अंधकार और दुर्गन्ध से भरा हुआ रहता, प्रकाश के लिए एक लालटेन थी, जो भभकती हुई बार-बार बुझ जाया करती थी।

लगभग 200 गज पर स्ट्रीट लाइट रात भर जला करती, वह वहाँ जाकर पढ़ने का प्रयास करती, किन्तु अधिक ऊँचाई के कारण ठीक से पढ़ नहीं पाती, इससे निराश हो जाती, उसने कभी एक नई लालटेन लाने के बारे में नहीं कहा। हमने पड़ोस से तार खींचकर एक बल्ब ले लिया, परन्तु उनका नियम इतना कड़ा था कि इस सुविधा ने हमेशा उसे तनाव ग्रस्त रखा। अंधेरा होने के एक घंटे बाद बल्ब जलता और दस बजे बुझा देना पड़ता, उसे रात में पढ़ना रहता था। नींद से बचने के लिए वह ठण्डे फर्श पर सोती, कई बार दोनों बच्चे भी उसकी बगल में जाकर सो जाते।

उसे हजारों काम थे। बाहर एक कुँआ था, वहाँ से जरूरत भर पानी लाना, कपड़े सीना, बच्चों की देखभाल, मेरी सेवा, सब कुछ हँसी-खुशी किया करती, किसी भी व्यक्ति से देर तक बातें करने का शग़ल अभी तक ं छूटा नहीं था। मेरे सहकर्मी कई बार रात के समय मेरे घर पहुँचने का इंतजार करते, उससे बातें करते रहते, वह उन्मुक्त भाव से हँसती मुस्कुराती, मैं बाहर से ही सम्मिलित हास सुनता, कुछ चुभता दिल में, कुछ समय बाद भद्दी गालियाँ सुनाकर आराम पहुंचाता खुद को, किन्तु मैं स्पष्ट उससे कभी न कह सका कि इस प्रकार मर्दों के साथ रात-बिरात बातें करना मुझे नागवार गुजरता है, वह तो फिर समझने से रही। मैं कभी कभी अपनी किस्मत पर तरस खाता, कैसी पत्नी दी भगवान् ने जिसे लोक व्यवहार की जरा भी समझ नहीं।

वह स्वयं यह पसन्द नहीं करती थी कि मैं किसी अन्य औरत में रुचि लूँ। एक बार का वाकया याद है, घर में एक युवती दूध बेचने आया करती थी, तीखे नाक नक्श छरहरा बदन, बड़ी-बड़ी आँखें, फिर आँखे नचा नचा कर बिन्दास बात-चीत ! वह फूल तो मैं भ्रमर बन गया। उसके इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगा। खुल कर बातें करते हुए मुझे याद ही नहीं रहा कि वह सब कुछ देख रही है। इस मामले में मेरे जैसा धैर्य उसमें नहीं था, वह फट पड़ी थी,

‘‘ये क्या ? आँखें नचा-नचाकर फालतू बातें कर रही है ? दूध बेच रही है या आदमी फँसा रही है ?’’ उसकी तड़क सुनकर मैं सनाका खा गया, दूध वाली जरा गंभीर हुई।

‘‘हमरो घर म आदमी हे बाई’’। वह धीरे से बोली और टुकनी उठाकर चली गई। मेरी आँखों ने उसका पीछा किया कुछ दूर तक। बाद में भी उसने मुझे खरी खोटी सुनाई थी। परदा जरा और घना हो गया।

उसने मैट्रिक पास किया, अच्छे नंबरों से। पेपर में उसका रोल नं. न देख मैं आश्वस्त हुआ, ‘‘मैट्रिक पास करना कोई खेल नहीं है जो पास हो जायेगी ! टूटने दो घमंड पढ़ाई का।’’

परन्तु मेहनत की है उसने, कितनी गालियाँ र्खाइं, कई बार तो वह, कंघी भी नहीं कर पाती थी पढ़ाई के चक्कर में, उसे पास होना था, मन में उसके लिये जो प्यार था, वह आहत हुआ था।

‘‘हूँ...ऽ...ऽ...ऽ.. ! सचमुच मैट्रिक पास होना हँसी खेल नहीं, मुझे और मेहनत करनी होगी।’’ वह बार-बार उस अख़बार के पन्ने में अपना रोल नंबर खोज रही थी। परन्तु जब मैं मार्क शीट लेने स्कूल पहुँचा, तब मेरे हाथ में प्रथम श्रेणी मैट्रिक पास की अंकसूची थी, बताया गया कि किसी कारण से कुछ रोल नं. प्रकाशित नहीं हुए थे।

‘‘खुशी के आवेश में मैं सारा विरोधाभास भूल गया और मिठाई का डिब्बा लेकर हनुमान् जी के मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के बाद ही घर पहुँचा। माता के आकस्मिक निधन के कारण वह रो-रोकर अधमरी हो रही थी। थोड़ा सा बल मिला उसे जीने का।

एक दिन ऐसा भी आया जब वह समाज शास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री लेकर घर आई और कुछ ही दिन बाद स्कूल शिक्षा विभाग में नौकरी का अवसर हथिया लिया उसने। तब तक हमारे तीन बच्चे हो चुके थे, छोटा बेटा अभी डेढ़ वर्ष का था, मैंने मना किया था ‘‘ नौकरी के फेर में मत पड़ो, बच्चों को देखो ? हम दोनों नहीं रहेंगे तो इन्हें कौन देखेगा ?’’ मुझे फिर संशय ने घेर लिया।

उसने स्कूल ज्वाइन किया, हम अपने छोटे बच्चे को लिए स्कूल पहुँचे थे। उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। पहले वह सरकारी अस्पताल में कमर में इन्जेक्शन लेती, फिर बच्चे को गोद में लिए, एक हाथ में डोचली जिसमें चादर, जांघिया आदि होते लेकर सीटी बस में चढ़ती, भीड़ के कारण अक्सर खड़े-खड़े जाना पड़ता, बच्चा रोने लगता, उसके लिए यह एक नया अनुभव था, कभी कोई महिला दया करके अपनी सीट दे देती, कभी यूँ ही जाना पड़ता। घर से स्कूल की दूरी लगभग 13 किलोमीटर थी, आते समय के लिए रिक्शे की व्यवस्था थी, वह हमारे जीवन का सबसे कठिन दौर था, बड़े दोनों बच्चे जल्दी समझदार होते गये, वे आपस में एक दूसरे को संभालना सीख गये। मैंने उस समय जितना हो सका उसका सहयोग किया।

परदा और घना होता गया।

मैं सेवानिवृत्ति के बाद गाँव वापस लौट जाना चाहता था, वह अपने बच्चों को शहर में रहकर पढ़ाना चाहती थी। अब तो हमारे झगड़े की वजह बच्चे ही थे। वह अपने वेतन से बच्चों के लिए खिलौने ले आती, दूध के लिए उसने मेरे घनघोर विरोध के बाद भी गाय पाल ली। इसमें हमारे एक मित्र ने भरपूर साथ दिया। उनसे उसने गाय दूहना सीखा।

मेरी अनुपस्थिति में उसने नई बसने वाली काॅलोनी में जमीन के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया। झगड़े हुए। यह तो अवश्य कहूँगा कि गाली से आगे बढ़ने की हिमाकत मैंने दुबारा नहीं की।

एक दिन ऐसा भी आया, जब खचाखच भरे हाॅल में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उसकी पुस्तक का विमोचन हुआ, मुझे इस संबंध में उसी समय पता चला, खुशी, आश्चर्य,और उपेक्षा से मैं तिलमिला रहा था, मुझे उस समय यह याद नहीं रहा कि वह प्रारंभ में ही अपनी पांडुलिपियाँ ले कर ससुराल आई थी। मैंने हर हाल में उसे इस रोग से दूर रखने की कोशिश की, यह फालतू लोगों का काम है, दिन भर कागज कलम लेकर आँखें फोड़ों ! वही बचा रहेगा तो किसी बच्चे के पढ़ने के काम आयेगा।

घर आकर मैंने सारी प्रशंसा, विद्वता, लेखकीय विशेषता का मुल्लमा झाड़ दिया, जैसे फूलों की माला के एक-एक फूल नोंचकर फेंक दिये जायें। सारी प्रसन्नता का नशा हिरन कर दिया।

मैंने बहुत झाड़ा लेकिन वह चादर और घनी हो गई। उसकी छबि अब कुछ धंुधली दिखाई देने लगी। मैंने छीनने-झपटने की जो परंपरा विकसित की वही अब मेरी तकदीर बन गई। प्रातः तीन बजे से रात्रि ग्यारह बजे तक उसके कार्यक्रम में मैं कहीं नहीं रह गया। भीड़ भरे घर में अकेलापन, बड़ी अजीब बात है न ? परन्तु यह जितनी अजीब है उतनी ही घातक भी है। बच्चे बड़े हो गये,। वह देश की जानी-मानी साहित्यकार बन गई। लोग कहते हैं, वह हर दिल में प्रवेश की कला जानती है। मैं तो देखता ही आ रहा हूँ, देखता क्या भोगता रहा हूँ, मेरे दिल के सिवा वह सबके दिल की बात समझती है या फिर मुझसे आगे बहुत आगे निकलने का रास्ता बहुत पहले ही चुन लिया था उसने, गुपचुप। पहले तो मुझे खिलाये बिना, गुस्से में रहा तो मनाये बिना, एक दाना भी मुँह में नहीं डालती थी, मुझे याद है कभी-कभी तो दस से पन्द्रह दिन गुजर जाते वह पानी के सहारे सारे कार्य करती रहती, वह तो जब आर्थराईटिस ने दबाया, तब डाॅक्टर ने कह दिया ‘‘अक्सर भूखे रहने से भी यह बीमारी होती है।’’

और कहाँ से उसे गुरू मंत्र मिला मैं जान न सका, मुझसे पहले खाने लगी। जब यह हाल देखा तो मुझे अपने इस ब्रह्मास्त्र को सदा के लिए त्यागना पड़ा।

मेरा ट्रान्सफर दूसरे जिले में हो गया, हमने बड़ी कोशिश की कि ट्रान्सफर रद्द हो जाये, परन्तु यह न हो सका। मुझे एक बार पुनः ंि़डंड़वाराम बनना पड़ा। मेरे अन्दर पुराने ’मैं’ ने अंगड़ाई ली, जिन्दगी के बचे -खुचे दिन मैंने जिन्दादिली से जीना चाहा। जैसा चाहो पकाओ, खाओ ! जब तक चाहो ताश खेलो ! जब नींद आये सोओ जागो ! मेरी जिन्दगी में जो भीड़ भरा सूनापन था, उसे पाटने के लिए मेरी चेतना चलायमान थी। मैंने कुछ ए-सर्टिफिकेट्स पिक्चर देखी, संयमित इच्छाएँ, असंयमित होने लगीं। मुझे एक ऐसी औरत का इंतजार था जो मुझे मर्द समझे, मर्द अर्थात् भर्ता रक्षक और सब कुछ।

वह एक मोटी तगड़ी काली कलूटी, चपटी नाक वाली स्त्री थी, पाँच छः बच्चों की माँ और एक पुतले जैसे पति की पत्नी, थाने के सामने चाय की दुकान थी उसकी। उसके नाक बहाते, कीचड़ भरी आँखों वाले, घुटनों तक नाड़ा लटकाये बच्चे, दौड़-दौड़ कर चाय की केटली लिए थाने आते। मैंने बैरक में अपना बिस्तर लगाया था, अक्सर वह भी चाय लेकर आने लगी थी। वह सीधे पल्ले में मोटी वाली साड़ी पहनती, माँग में ढेर सारा सिन्दूर और मुँह में पान, साहब साहब कहते उसका मुँह नहीं थकता।

‘‘साहब ! कहीं किसी ने मेरी दुकान उठवा दी तो ?’’ उसकी आँखों में भूख उतर आती।

‘‘हमारे रहते किसी की हिम्मत नहीं है जो तुम्हारी दुकान हटा दे।’’ मुझमें प्रभुत्व का संचार हो जाता। वह अपनी एक-एक समस्या की चर्चा करती कैसे उसका पति शराब में सारी कमाई उड़ाता है, किन-किन को उसे मुफ्त चाय पिलानी पड़ती है, कौन कौन उस पर बुरी नजर रखते हैं। रूपये पैसे की तंगी होने पर वह माँग लेती ‘‘माँग के खाने में कौन सी लाज है ? आप मेरे मालिक हैं, भाग्य विधाता है, आपसे नहीं माँगूंगी तो किससे माँगूंगी ?’’ मैं उसे देता रहता जो कुछ वह चाहती।

जैसे ही मैं उसकी तिरपाल वाली दुकान में जाता, पूरा परिवार सक्रिय हो जाता, जैसे मुख्यमंत्री के आने पर पुलिस विभाग हो जाता है। मुझे संतुष्टि मिलती ‘‘मेरा भी कुछ मान-सम्मान है, बेकार ही वहाँ पड़ा रहा, उसके खूँटे से बंधकर। मेरा ड्यूटी के बाद का समय उसकी दुकान पर ही व्यतीत होने लगा। अजीब से सपने सोते -जागते आँखों में तैर जाते, छहों कलूटे बच्चे दौड़-दौड़कर हुक्म बजा रहे हैं, तापी मेरी बगल में बैठी पान लगा रही है, भट्टी पर चाय उबल रही है, ग्राहकों की भीड़ लगी है, ’’हाँ यही ठीक है, नौकरी में क्या रखा है ? रोज यहाँ से वहाँ दौड़ो पेटी उठाये।’’

किसी ने ठीक ही कहा है इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते, मेरे कुछ ख़ैरख्वाह उसे आगाह करने लगे। ‘‘आण्टी ध्यान दीजिए नहीं तो आपकी सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी।’’ पहले उसने विश्वास नहीं किया, फिर आगाह किया, मैंने बात टाल दी। उसने बार-बार कुरेदा मुझे, उसने निष्कर्षतः कहा ‘‘आप उसके यहाँ चाय पीने नहीं जायेंगे !’’ मैं तो खार खाये बैठा ही था झल्ला गया।

‘‘मुझे रोकने वाली तुम कौन होती हो ? जरूर जाऊँगा !’’ मैने उत्तर दिया।

उसने अपना ज्ञान बघारा ! शास्त्र की बातें कही। लोक परलोक का भय दिखलाया, परन्तु मैं माना नहीं, बस किसी तरह उसके पति बिहारी को भगाने की जुगत में लग गया। इस बार तो घर से जोरदार झगड़ा करके आया था, साफ कह दिया था, ‘‘अब कभी वापस नहीं आऊँगा ! तुम रखो, अपना घर-द्वार, बाल-बच्चे।’’ खाना खाये बिना वापस मानपुर आ गया। यहाँ तापी पूरी तरह समर्पिता, मेरी राह में आँखें बिछाये बैठी थी। ‘‘आप नहीं रहते तो मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता साहेब, आप कहीं मत जाया करिये !’’ उसने झुकी निगाहों से मुझे देखा था। मैं निहाल, वह मुझे दुनियाँ की सबसे खूबसूरत औरत लगी थी, उसके हाथ का मोटे चाँवल का भात और टमाटर की चटनी खाई, घर की सजी थाली आडंबर प्रतीत हुई, क्या आवश्यकता है, दाल-चावल, रोटी, सब्जी, रायता, पापड़, अचार की ? उसने कभी मन से खाया कुछ ? भोजन तो बस चटनी भात। चल जायेगा जीवन अच्छी तरह।’’

‘‘बिहारी है रास्ते का काँटा !’’

‘‘तुम्हारा पति कुछ करता नहीं, तुमसे लड़ता है, मुझे अच्छा नहीं लगता ! तुम्हारा लिहाज न होता तो धर के बन्द कर देता जेल में।’’ मैंने सहानुभूति जताई थी। शायद उसका मन ले रहा था। इस बात का उसने कोई उत्तर नहीं दिया, बस नजरे झुकाये मेरी बात सुनती रही।

‘‘मेरे बच्चे हैं साहेब।’’ वह होठों में बोली थी।

‘‘अगर बच्चों की जिम्मेदारी ले ली जाय तब ?’’ मेरी जबान पर दिल की बात आ गई।

उसने आश्चर्य से मुझे देखा, उसकी आँखों में आशा की परछाइयाँ डोल उठीं।’’

‘‘ऐसा कौन होगा भगवान् स्वरूप।’’

‘‘हाँ कहो न कोई होगा तभी तो कह रहा हूँ !’’

वह कोई उत्तर देती इसके पहले ही बिहारी आ गया,वह नशे में धुत्त था, कदम लड़खड़ा रहे थे, मुँह से लार निकल रहा था। वह बीड़ी जलाने की असफल चेष्टा कर रहा था। मैंने घर आकर देखा तो वह आकर बैठी थी, उसकी आँखंे लाल थीं, मेरा दोस्त भी बैठा था, उनमें कुछ बातंे हो रही थीं।

‘‘बताइये ठाकुर साहब ! क्या इन्हें, ऐसा कहकर घर से निकलना चाहिए ? पूरे दिन इनकी खातिरदारी में लगी रही, महिने भर के कपड़े, धोये, राशन साफ किया, खाने को कुछ अच्छा बनाया, कब इनके पास बैठती जो लड़ाई की ?’’ उसकी आवाज भर्रा रही थी।

‘‘हमने शादी करा दी तो आदमी बन गया ! बेवकूफ ! आइंदा ऐसी हरकत की तो पकड़कर पीटेंगे तुझे ! उस बिहारिन के चक्कर में ?’’ उसने गुस्से में मेरी पूरी कलई खोल दी।

मन तो हुआ कह दूँ...

’’रखो वापस अपनी शादी। इनसे अच्छी मुझे मिल रही है।’’ किन्तु न जाने क्या सोचकर मैं चुप रह गया।

मुझे शर्मिन्दा देखकर दोस्त चला गया था ! वह मुझसे लिपट कर फूट-फूटकर रो पड़ी थी। कुछ कहने सुनने को नहीं था, उसके आँसू मेरे जलते दिल पर छरछराहट उत्पन्न कर रहे थे।

‘‘पति-पत्नी का रिश्ता शारीरिक संबंधों का मोहताज नहीं होता, हमारे धर्म में इसे अटूट माना जाता है। आप सीधे मेरे साथ चलिए ! हमारा छोटा बेटा बीमार है, उसे दूसरों के भरोसे छोड़ कर आई हूँ। उसने तापी का घनघोर विरोध किया, उसे अपशब्द कहे, उदाहरण दिये, जिनमें बात हत्या तक पहुँची थी, मैं मुँह फुलाए रहा।’’

‘‘यदि तुम सोच रही हो कि मैं तापी के यहाँ चाय पीना छोड़ दूँगा, तो यह नहीं हो सकता और चाहे जो कहो !’’ मैंने टका सा जवाब दे दिया।

मैंने उसे खाने को कुछ बिस्कुट दिये, जिसे उसने नहीं खाया।

इतने में तापी चाय की केतली लिए धड़ल्ले से बैरक में घुस आई। एक दूसरे को देखकर दोनों सकपका गईं, उसके अभिजात्य सौन्दर्य ने तापी का मुँह बन्द कर दिया।

तापी के रूप-रंग ने उसका मुँह बन्द कर दिया। ‘‘छीः... छीः..... ! ऐसी औरत का नाम लेकर वह अपने पति पर शक करती रही ! जिसे देखने भर से झुरझुराहट हो रही है त्वचा में।’’

वह चाय देकर चली गई, जो अंत तक रखी ही रह गई।

मैं पान खाने के बहाने बैरक से निकल गया, वह जानती थी, घड़ी-घड़ी पान खाने की मेरी आदत पुरानी है। ठेले से पान खाकर आ रहा था कि तापी की दुकान की तरफ हल्ला सुना, वे दोनों भरी दोपहरी में खुले आम लड़ रहे थे।

‘‘इधर-उधर फलान ठेकान करते नहीं रोती और मुझे पइसा देने को रोती है ? छिनाल ! रंडी ! कुतिया भली है तुझसे, किसके-किसने साथ सोती है मैं नहीं देख रहा क्या ? अंधा नहीं हूँ।’’ उसने तापी पर हाथ उठाया था। उसने हाथ बीच में ही पकड़ लिया था।

‘‘तू मुझे मारेगा ? जिसे कमाकर मैं पाल रही हूँ ? हाँ मैं छिनाल हूँ, रंडी हूँ, परन्तु तेरा झोझर भरने के लिए ही तो ? ये सारे पिल्ले जो पैदा किये हैं तूने, इन्हें कैसे पालूँ ? अपना माँस खिलाऊँ ? बाबू भइया, साहेब सूबा को पटाकर न रखूँ तो यह दुकान दूसरे ही दिन उठाकर फेंक दी जाय। तुझे कौन पूछता है रे कुकुर ? वह तो मैं हूँ जो तुझ जैसे गू को ढोते फिर रही हूँ, चाहूँ तो इसी पल लात मार कर बाहर करूँ !’’ वह गुस्से में अपना आपा खो चुकी थी।

‘‘तू मुझे लात मारेगी ? ले तो मार के बता ?’’ बिहारी उसके बंधन में छटपटा रहा था। तापी अपने परिवार भर में मोटी तगड़ी थी, बिहारी तो एकदम सीकिया पहलवान था। उसका छरकना, उछलना देखने के लिए वहाँ भीड़ लग गई थी, अब वह ताबड़तोड़, लातों, घूसों से बिहारी को पीट रही थी। उसकी साँसें तेज हो रहीं थीं।

‘‘ले .... चिल्ला। मेरे तो इशारे की देर है, अभी तुरन्त तुझसे हजार गुना अच्छे के साथ जा सकती हूँ।’’

‘‘बाप रे ! .... बाप ! यह औरत है ?’’

मैं, दबे पाँव बैरक की ओर भागा। जहाँ वह लगातार रो रही थी।

मुझे देखते ही वह फिर मुझसे लिपट गई।

‘‘हमारे बच्चे को पीलिया हो गया है, कुछ पचता नहीं पेट में, गलती सही माफ कर चलिये, मेरे लिए न सही उसके लिए।’’ मेरे हाथ उसकी पीठ पर सरकने लगे। ‘‘अब समझ में आया, कि मर्द क्या होता है ? कैसे रो रही है क्यों नहीं करा लेती बच्चे का इलाज ? पहचान है ! रूपया है ! चालाकी है !’’

’’अरे ये तो वही औरत है ! ! !’’ जिसकी मुझे तलाश थी, मेरे पौरूष रुपी अंगारे पर जमीं राख उड़ गयी,

’’चलो अभी चलते हैं, हमें बस मिल जायेगी।’’


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