Sandeep Murarka

Drama

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Sandeep Murarka

Drama

हूल विद्रोह के नायक

हूल विद्रोह के नायक

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जीवन परिचय - सिदो-कान्हू मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गाँव में एक ट्राइबल संथाल परिवार में हुआ था। संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ये 6 भाई बहन थे , जिनके नाम चाँद मुर्मू ,भैरव मुर्मू , फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू थे।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान -सिदो-कान्हू ने 1855 मे ब्रिटिश सत्ता, साहुकारो व जमींदारो के खिलाफ एक विद्रोह की शुरूआत की थी, जिसे 'संथाल विद्रोह या हूल आन्दोलन' के नाम से जाना जाता है। संथाल हूल विद्रोह का नारा था 'अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो'। कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को ‘भारत की प्रथम जनक्रांति’ कहा था।वर्ष1820 में बिहार के भागलपुर जिले के कलेक्टर ‘ऑगस्टस क्विसलेण्ड’ के आदेश पर ईस्ट इण्डिया कंपनी का एक अधिकारी ‘फ्रांसिस बुकानन’ राजमहल की पहाड़ियों को पार करके ट्राइबल गाँवो में नियुक्त हुआ।उस समय वहां के ट्राइबल्स जंगल से लकड़ियाँ लाकर बाजार में बेचने एवं खेती द्वारा अपनी जीविका चलाते थे। किन्तु व्यवस्थित खेती के नाम पर ‘फ्रांसिस बुकानन' ने क्षेत्र में स्थायी बंदोबस्ती को लागू कर दिया, जिसका वहां के मूलवासियों पर प्रतिकूल असर पड़ा। इसके अनुसार ट्राइबल्स पर जंगल से कोई भी संसाधन निकालने और शिकार पर रोक लगा दी गयी। सिदो कान्हू अंग्रेजों की नीतियों से आक्रोशित थे।

फसल अच्छी नहीं हो पाने पर भी किसानों को लगान देना पड़ता था , ऐसी स्थिति में कई बार कर्ज़ लेकर लगान चुकाना पड़ता था, कर्ज लौटाने की शर्ते ऊंची हुआ करती थी, साहूकार सादे कागज़ पर ट्राइबल्स के अंगूठे के निशान लगवा लिया करते थे। वसूली के लिए महाजनों के गुर्गे ट्राइबल्स व उनके घर की महिलाओ के साथ दुर्व्यवहार किया करते थे और अंग्रेज प्रशासन भी उनकी ही ओर खड़ा दिखता।

महाजन साहूकारों की बर्बरता का एक खास साथी पंचकठीया तहसील का थानेदार महेश लाल दत्त था, जो औरतों के साथ उत्पीड़न के मामले में वह सबसे आगे रहता था. यही नहीं आदिवासी जब भी ‘पंचकठीया’ बाजार में अपने रोजमर्रा की चीजें खरीदने-बेचने जाते, तो उन्हें महेश लाल दत्त के आतंक का सामना करना पड़ता।

सिदो - कान्हू ने हूल आन्दोलन को सफल बनाने के लिए धर्म का सहारा लिया। देवता मरांग बूरू और देवी जाहेर एस के दर्शन और अबुआ राज स्थापित करने की बात को प्रचारित कर लोगों की भावना को उभारा। ट्राइबल्स के हर घर में 'सखुआ डाली' भेज कर लोगों को आमंत्रित किया कि मुख्य देवी देवता का आशीर्वाद लेने के लिए 30 जून को भगनाडीह में जमा होना है। फलस्वरूप आहूत सभा में लगभग साठ हजार ट्राइबल्स तीर कमान, दरांती, भाले और फरसा जैसे परंपरागत हथियारों के साथ एकत्रित हो गये। उस सभा में सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चाँद को प्रशासक और भैरव को सेनापति मनोनीत कर नये संथाल राज्य के गठन की घोषणा कर दी गई। सभा ने संकल्प लिया गया कि गाँवो से महाजन, पुलिस, जमींदार, सरकारी कर्मचारी एवं नीलहे गोरों को मार भगाना है और ना लगान ही देना है ना कोई सरकारी आदेश मानना है। इस विद्रोह की खबर आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई.

इसी कड़ी में दारोगा महेश लाल दत्त को खबर लगी, तो वह कलेक्टर क्विसलेण्ड के आदेश पर सिदो कान्हु को गिरफ्तार करने उपरोक्त सभास्थल पर पहुंचा , जहाँ एकत्रित ट्राल्बल्स उग्र हो गए। उन्होंने दरोगा महेश लाल की हत्या कर दी और इसी के साथ प्रारंभ हुआ ‘सन्थाल हूल आन्दोलन’। इतने पर भी उग्र भीड़ रुकी नहीं, उन्होने महाजनों के घरों पर हमला कर कर्ज के दस्तावेजों को जला दिया।

इधर महेश लाल की सूचना मिलने पर के बाद अंग्रेज कलेक्टर क्विसलेण्ड कप्तान मर्टीलो के साथ भागलपुर से सेना सहित संथाल विद्रोह को दबाने आया। पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नामक स्थान पर सिदो कान्हु की सेना के साथ क्विसलेण्ड की सेना का भीषण युद्ध हुआ। एक ओर ट्राइबल्स के जोश, उत्साह, पारम्परिक हथियार थे तो दूसरी ओर आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस कुशल नेतृत्व वाली अंग्रेज़।

शुरुआती लड़ाई में ट्राइबल्स ही भारी पड़े, क्योंकि नेतृत्व कर्ता सिदो कान्हू जंगल और पहाड़ियों में लड़े जाने वाले ‘गुरिल्ला युद्ध’ में पारंगत थे ,उन्होने अंग्रेज़ी सेना का जमकर नुकसान पहुंचाया। कैप्टेन मर्टीलो ने उनकी ताक़त व कमजोरी को आँक लिया और नई रणनीति के तहत संथाल विद्रोहियों को मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर किया। जैसे ही ये विद्रोही पहाड़ों से उतरे,अंग्रेज़ी सेना इन पर हावी हो गई। भारी संख्या में ट्राइबल लड़ाके मारे गए , 9 जुलाई 1855 को सिदो कान्हू के छोटे भाई चाँद और भैरव भी मारे गए।

सिदो कान्हु के द्वारा आगाज हूल आन्दोलन व्यापक पैमाने पर फैलने लगा और झारखंड के पाकुड़ प्रमंडल के अलावा बंगाल का मुर्शिदाबाद और पुरुलिया इलाका भी इसके प्रभाव में आ गया। किन्तु सिदो कान्हु की सेना के पास खाने का समान तक नहीं था, आगे की रणनीति व रसद की व्यवस्था करने दोनोँ भाई 26 जुलाई 1855 की रात को अपने साथियों के साथ गांव पहुँचे। तभी किसी मुख़बिर की सूचना पर अचानक धावा बोलकर अंग्रेज़ सिपाहियों ने दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया , उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए पंचकठीया ले जाया गया और वहीं बरगद के एक पेड़ से लटकाकर उन वीरों को फाँसी दे दी गई।

संथाल विद्रोह के वक्त अग्रेजों द्वारा रातों-रात मार्टिलो टावर का निर्माण करवाया गया था, इस टावर में 52 छेद हैं, जिनसे अंग्रेजों ने फायरिंग की और हजारों क्रांतिकारी शहीद हुए ,पाकुड़ में अवस्थित यह मर्टीलो टॉवर आज भी सिदो कान्हु की शौर्यगाथा गाता है।

सम्मान - सिदो कान्हु के नाम पर वर्ष 1992 में दुमका में सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। 6 अप्रेल 2002 को भारत सरकार द्वारा सिदो कान्हु पर 4 रुपए की डाकटिकट जारी की गई। मई 2016 में प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिदो कान्हू मुर्मू सेतु का उदघाटन किया। एक ही नदी पर बना यह पुल दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है, इसकी लम्बाई 6,000 मीटर है , यह साहेबगंज से मनिहारी को जोड़ने वाले गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना है। लखीकुंडी, दुमका एवं फागूटोला, पाकुड़ में सिदो-कान्हू के नाम पर पार्क बने हुए हैं। 18 अप्रेल 2018 को हजारीबाग के बड़कागांव के उरीमारी में सिदो कान्हु की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई हैं, भोगनाडीह साहेबगंज, दुमका सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी, जमशेदपुर के भुइयांडीह, चंद्रपुरा इत्यादि झारखण्ड के कई स्थानों पर सिदो कान्हु की प्रतिमा स्थापित है। प्रत्येक वर्ष 30 जून को हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है , झारखण्ड सरकार द्वारा इस दिन अवकाश घोषित किया गया है।


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