हरसिंगार
हरसिंगार
ठंड अब अपनी वापसी की तैयारी में लग गयी थी ।दिन में धूप तीखी लगने लगती। शाम को हल्की शॉल लेना पड़ता। कभी हाफ स्वेटर पहन पहाड़ों की तरफ निकल पड़ता।
रास्ते में पतझड़ के बिखरे पत्ते बसन्ती हवा के साथ मेरा हमसफ़र बनने लगते। कुछ दूर जाकर फिर साथ छोड़ देते।
और यहीं हरसिंगार के पेड़ के पास आकर कदम रुक जाते। चारों ओर बिखरे फूलों से अब भी तुम्हारी सुगन्ध आती है माया। कई बार इस हरसिंगार के गले लगकर रोया हूं। ये बेचारा खुद रात भर रोया होगा। हर बार की तरह मुठ्ठी में कुछ फूल चुनकर ले आता हूं। कमरे में वही रख देता हूं जहाँ तुमने बुद्ध की मूर्ति रखी थी। आखिरी बार ।
कोई तीस साल हो गए होंगे न माया।
आज भी वह बुद्ध मूर्ति यही कह रही है, माया यही इसी कमरे में है। यहीं आकर इसी खिड़की के पास भीगे बालो को खोलकर उंगलियों से सहला रही है।एक एक बाल अलग करके सुलझाते मैं तुम्हें कनखियों से देख रहा हूं।
तमाम कम्पटीशन की किताबें मेज पर पड़ी है।
और तुम खुले बाल में मेरी ही चौकी पर लेट कर वेद प्रकाश शर्मा का कोई उपन्यास पढ़ती दिख रही हो।
मेरा कमरा घर से जरा अलग था। अंदर की शोरगुल से दूर। पढ़ने के लिये यहां कमरा बनवाया गया। बड़े भैया इसी कमरे से पढ़कर साहबी ठाठ में रहते हैं।
और तुम मेरा रखा ग्लास का पानी भी पी जाती। बहनों की मजाल नहीं यहां आकर एक तिनका भी इधर से उधर करे।
तुम कमरे से लेकर मन में भी कब्जा जमाए बैठी थी। भाभी की रिश्तेदार होने के नाते तुम्हें कुछ कहता नहीं था। घर में कोई भी पूजा पाठ समारोह हो, भाभी तुम्हें बुलवा लेती।
सबसे निजात पाकर तुम यहीं डेरा जमाती। पगली ! किसी की बात पर रोना भी आए तो यहीं आकर सुबकती थी।
तुम्हारा आना कितना अच्छा लगता था माया। घर में कितनी भी भीड़ हो, मेरी नजर बस तुम्हें खोजती। तब यह हरसिंगार मेरे घर में भी था। तुम ओढ़नी में इसके फूल चुनती रहती। हरी दूब में गिरे ओस से लिपटे सफेद नारंगी हरसिंगार।
उस दिन तुम्हारे साथ इस ओर पहाड़ तक चला आया था। कभी ये काले पहाड़ इतने सुंदर नहीं लगे। गुलमोहर के फूल भी ऐसे पेड़ की फुनगी पर होते हैं, तुमने बताया तब ध्यान गया होगा। इस रास्ते से रोज ही तो गुजरता था।
जिद करके तुमने मेरी साइकिल चलानी भी सीख ली।
घर में बताने को मना न किया होता तो बताता कितना अच्छा साइकिल चलाती हो।
तुम्हारे जाने के बाद महसूस होता तुम कुछ लेकर चली गयी हो, जिसे ढूंढने तुम्हारे पास आना चाहता हूं।
ऐसे तो हर तीसरे चौथे महीने भाभी बुला ही लेती तुम्हें। ढेर सारा काम कराकर एक जोड़ी कपड़े देकर बड़ी बहन का फर्ज निभाती। गरीब बुआ की बेटी को कौन पूछता है भला!
इस बार वो भी खरीदने की बला मेरे सिर टाल दी।
मैं भला लड़कियों के कपड़े क्या जानूँ। वो भी कम पैसे देकर लाने की हिदायत।
मैंने अपने पैसे लगाकर आसमानी सूट का कपड़ा लिया था। और चूड़ियां भी डाल दी। भाभी को भरोसा ही नही हो रहा था ये कपड़ा इतना सस्ता है।
फिर तुम्हें छोड़ आने को भी कह गयी। पढ़ाई का बहाना मारता पर भैया की नई राजदूत की चाभी ने मन कमजोर कर दिया।
अब पढ़ाई में मन भटकने लगा था। मन करता तुम्हें एक खत लिखूं, पर तुम अल्हड़ किसी और को थमा देती तो! मैं डर गया।
परीक्षाएं होने लगी। इंटरव्यू के लिए बुलाया जाने लगा । बहन की शादी की एक फोटो मैंने अपने कमरे में रखी थी जिसमें तुम भी थी। हर बार तुमसे बात करके जाता।
थोड़े से हरसिंगार भी साथ रख लेता । शुक्र है !तुम आ गयी। आसमानी रंग के सूट में मेरा पूरा आसमान लिए। माँ में पेड़ कटवा दिया। पूरे आंगन का धूप छेक लेता ये हरसिंगार।
और तुम बुद्धू, मेरे कमरे में आकर रो रही थी। उसी दिन मैंने ये पौधा लगाया। क्योंकि उस दिन मैंने तुम्हारे आंसू पोंछ कर तुम्हें गले लगा लिया था।
वादा किया था नौकरी की खबर मिलते भाभी से बात करूंगा। खबर भी जल्दी आ गयी। जाने से पहले भाभी से बात की।
माया! तुम्हें बता नहीं सका न भाभी ने क्या कहा।
"उस भिखारिन की औकात है हमारे घर की मालकिन बनने की। देखो बबुआ, रिश्ता बराबरी में ठीक होता है।" मुंह लटकाए चला गया। पता चला भाभी ने तुम्हारी शादी में बहुत मदद की है।
कौन बहन के लिए इतना करता है। मैं जानता था भाभी गरीब बहन को अपने साथ नहीं देख सकती।
माया तुम्हें मुझसे शिकायत तो होगी न! मैं अपनी सफाई भी नहीं देना चाहता। मैंने अपना कमरा भी नहीं बदला। शादी करने के तमाम प्रस्ताव ठुकरा दिए।हरसिंगार की तरह मैं भी रात भर रोता रहा हूं।
तुम्हारे सामने न आने की कसम खाई है। और तुम निर्दयी हर बार सामने आ जाती हो।
देखो ये अब भी मुस्कुरा रहा है। बेचारा हरसिंगार।

