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Prabodh Govil

Drama Others

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Prabodh Govil

Drama Others

हॉकर्स

हॉकर्स

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उन दिनों मैं कुछ फ़्री ही था, क्योंकि ऑफिस के सामान्य कामकाज के अलावा मेरे पास कोई विशेष काम नहीं था।

मैं सड़क पर टहल ही रहा था कि मेरे बिल्कुल समीप आकर एक कार रुकी।


इस छोटी सी स्पोर्ट्स कार को पहचानने में मुझे देर नहीं लगी।

मेरा दोस्त अभिनव था।

हम स्कूल में साथ साथ पढ़े थे लेकिन उसके बाद वो मेडिकल कॉलेज में चला गया था।

उसने अपने शौक़ के चलते मनोविज्ञान पढ़ा था और अब उसकी गिनती शहर के लोकप्रिय साइकियाट्रिक्स में होती थी।                - मनोचिकित्सक!


कभी- कभी जब हम मिलते तो मुझे अपने साथ वो अपने क्लीनिक पर ले जाता, जहां शाम छह बजे से साढ़े आठ बजे तक वो बैठा करता था।

जब उसके मरीज़ नहीं होते या कम होते तो हम कॉफी भी वहीं पिया करते थे।

कभी - कभी कोई दिलचस्प रोगी आता तो वह काउंसिलिंग करते समय मुझे भी अपने साथ शामिल कर लेता था।


एक दिन अजीब वाकया हुआ। एक मरीज़ को मुझे दिखा कर वह बोला - “ये पूरी तरह तेरा ही केस है, इसे तू ही डील करना, मैं बीच में बिल्कुल भी दखल नहीं दूंगा।”


मैंने चौंक कर कहा - “ये तो ग़लत हो जाएगा, मैं क्वालीफाइड डॉक्टर नहीं हूं, ये बेचारा पूरी फ़ीस देकर भी मुझसे इलाज क्यों ले?”


अभिनव बोला- “मेरे हिसाब से ये रोगी है ही नहीं, केवल एक आदत का शिकार है, और इसका भला मुझसे ज़्यादा तू कर देगा।”


मैंने कहा, “यदि तुझे ऐसा लगता है तो ठीक है, मैं कोशिश करता हूं, पर ये तो बता कि इसे इसके अनुसार रोग या बीमारी क्या है, क्योंकि तभी तो ये तेरे पास आया होगा।”


अभिनव ने भोलेपन से कहा- “प्रेमरोग है!”


मैं समझ नहीं पाया कि अभिनव गंभीर है या मज़ाक कर रहा है।

मैं कुछ नहीं बोला और सचमुच अभिनव ने उसके लिए ऐसा समय तय कर दिया जब मैं उसे देख सकूं, अभिनव उस समय वहां हो या न हो।

अभिनव के केबिन के साथ में ख़ाली पड़े एक और केबिन में मैं उससे मिल कर उसकी काउंसिलिंग करने लगा।


लगभग पैंतीस- चालीस वर्ष की आयु के उस प्रौढ़ होते हुए युवक की बातें पहले ही क्षण से बेहद जिज्ञासा भरी थीं।

उसने मुझे बताया कि कुछ खास लोगों को देखते ही उसे उनके प्रति आकर्षण हो जाता है।


इस तरह मेरी और उसकी बैठकों का लंबा सिलसिला शुरू हो गया। मुझे उसके बारे में जैसे - जैसे जानकारी मिलती गई मामला और भी उजागर होता गया।


मुझे पता लगा कि उसे अख़बार से खास दिलचस्पी है।

वह बचपन से ही अख़बार पढ़ता रहा है। उसे चाहे जहां जितने भी अख़बार दिखें, उन सबको उलटे- पलटे बिना चैन नहीं आता। अपने स्कूल, कॉलेज और दफ़्तर में वो हमेशा लाइब्रेरी या रीडिंग रूम में जाता था। वहां उसे अख़बारों को पलटना बहुत अच्छा लगता था।

वो पढ़ता तो बहुत कम ही था, पर उसे अख़बार देखना या छूना बहुत भाता था।


कभी - किसी प्रिंटिंग प्रेस या न्यूज़पेपर कार्यालय के सामने से गुजरने भर से ही वहां की हवा में घुली गंध उसे भाती थी और वो अकारण वहां रुक कर ज़ोर - ज़ोर से सांस लिया करता था।

पहले मुझे लगा कि अख़बारी काग़ज़ या अख़बार की प्रिंटिंग में काम आने वाले किसी कैमिकल के प्रति उसे ये आकर्षण है।


जैसे किसी चीज़ से एलर्जी होती है, उसी तरह कुछ लोगों को मिट्टी, पेट्रोल या अन्य किसी चीज़ की गंध भी लुभाती है। ये शरीर में किसी डेफिशिएंसी का मामला होता है, जिसे डॉक्टर्स आसानी से पहचान कर दूर कर देते हैं।


लेकिन बात वो नहीं थी जो मैं सोच रहा था। उसका ये आकर्षण इस अवस्था से कहीं बहुत आगे तक बढ़ कर उसकी जटिल समस्या बन चुका था। उसे सुबह- सुबह अख़बार को बांटने के लिए ले जाने वाले हॉकर्स को देख कर भी एक आत्मीयता का अहसास होता था।


वह अख़बार की एजेंसियों के बाहर खड़ा रह कर उन्हें देखा करता था और उसे लगता था कि ये सब उसके अंतरंग मित्र हैं।

ऐसी बातों पर विश्वास बिल्कुल न होते हुए भी मेरे मन में एक बार ये आया कि कहीं ये उस युवक के पिछले जन्म से संबंधित कोई बात तो नहीं है?


लेकिन फ़िर मैंने अपना ही मज़ाक उड़ा कर इस ख्याल को झटक दिया और अपना ध्यान पूरी तरह इस विचार पर लगाया कि उसकी उलझन का स्रोत अवश्य ही उसके बचपन की किसी घटना में छिपा है।


यदि बचपन में हमारे साथ कुछ अवांछित घट जाता है तो वो कई तरह से हमारे जीवन को प्रभावित कर सकता है। जैसे कि -

समय के साथ उसका प्रभाव मंद होते -होते कुछ समय में बिल्कुल खत्म हो जाए और हम उसे भूल ही जाएं।

समय के साथ उसका "आनंद" तत्व बढ़ता जाए और "डर" तत्व ख़त्म हो जाए।

समय के साथ उसे लेकर भय या अरुचि की कोई ग्रंथि हमारे भीतर बैठ जाए।

हम उसे विस्मृत कर दें, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में वो हमारे मानस पटल पर फ़िर -फ़िर उभर आए।


कभी - कभी मुझे ऐसा लगता था कि जैसे वो मुझसे कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं पाता।

ये भांप लेने के बाद मैंने उससे उसके मन की बात निकलवाने के लिए वो तमाम काल्पनिक बातें कह डाली जो संभावित हो सकती थीं।

और तब मेरे सामने ये बात आई कि विवाह के बाद अपनी पत्नी से शारीरिक संबंधों में असंतुष्ट रहने के बाद उसके मन में बचपन में घटी एक घटना स्वतः उभर आई और अब वो मन ही मन उस घटना की पुनरावृत्ति चाहता हुआ, उस घटना के फ़िर से होने की संभावना तलाश किया करता है।


तब वो नौ साल का था। घर से कुछ दूरी पर एक सरकारी विद्यालय में पढ़ा करता था। सप्ताह में दो दिन उसे स्कूल की प्रार्थना सभा में किसी अख़बार में से मुख्य खबरें लिख कर सुनाने का काम उसके अध्यापक द्वारा दिया गया था।


सुबह - सुबह जल्दी वह समय से आधा घंटा पहले ही विद्यालय पहुंच जाया करता था। तब तक स्कूल में अन्य कोई भी छात्र नहीं होता था, केवल एक कर्मचारी विद्यालय के मुख्य गेट का ताला खोलकर भीतर के कक्षों की सफ़ाई, पानी भरने आदि के काम में व्यस्त होता था।

उसी समय सुबह जल्दी विद्यालय में अख़बार आया करता था। अख़बार वाला भी किसी कॉलेज में पढ़ने वाला लड़का ही था जो सुबह कॉलेज जाने से पहले साइकिल से अख़बार बांट कर अपनी जीविका चलाया करता था।

इस तरह मेरे मरीज़ उस युवक की पहले जान पहचान, तथा बाद में दोस्ती, उस अख़बार बांटने वाले लड़के से हो गई।


सुबह - सुबह स्कूल की ख़ाली इमारत के सुनसान अहाते में मिलते दोनों एक दूसरे के और क़रीब आते गए। अख़बार वाला अब कभी-कभी अपनी साइकिल खड़ी करके अपने नन्हे दोस्त के पास बैठ जाया करता और दोनों कुछ देर बातें भी कर लेते।

यहीं अख़बार वाले ने लड़के को स्पर्श करना, कभी - कभी उससे मज़ाक में सैक्स की बातें करना और उसे किस आदि करना भी शुरू कर दिया।

एक दिन उसने मौक़ा देख कर कुछ ऐसा कर दिया कि छोटा लड़का दो दिन तक न केवल दर्द से परेशान रहा, बल्कि वह मन ही मन डर भी गया।

फ़िर उसने सुबह जल्दी आना और अखबार वाले लड़के से मिलना बंद कर दिया।


बाद में बचपन में घटी ये घटना युवक के दिमाग़ से पूरी तरह ओझल हो गई।

वह बड़ा हो गया, नौकरी करने लगा, और उसकी शादी भी हो गई।

किन्तु कुछ सालों बाद उसे ऐसा महसूस होने लगा कि वह अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट नहीं है और उसे हमेशा ही किसी चीज़ की तलाश रहती है।


आश्चर्य की बात ये थी कि उसके दिल में अख़बार से किसी भी तरह जुड़े लोगों के लिए एक सॉफ्टकॉर्नर बन गया।

वह अख़बार बांटने वाले लोगों को ध्यान से देखा करता और उनके प्रति आकर्षित रहता।

और हद तो तब हो गई जब लगभग एक साल पहले वो इस कॉलोनी में रहने के लिए आया।


उसे अपने घर में नियमित रूप से अख़बार मंगवाना था। पड़ोस में रहने वाले लोगों ने उसे अपने अख़बार वाले से मिलवा दिया। लेकिन उसने उससे अख़बार मंगवाना शुरू नहीं किया।

बल्कि वह कई दिन तक सुबह अपने घर की छत पर चाय का कप लेकर बैठा हुआ सड़क पर आते-जाते हाकर्स को देखा करता था। और उसे मन ही मन ये उम्मीद रहती थी कि शायद यहां से कभी कोई ऐसा अख़बार वाला गुजरेगा, जिससे वो अख़बार लेना शुरू कर सके।


मैंने जब ये पूरी घटना अपने मित्र अभिनव को बताई तो उसने कुछ गंभीरता से कहा- “हम एक दिन उसकी पत्नी को भी क्लीनिक में बुलवाएंगे और उससे कहेंगे कि वो रोज़ ऑफिस से लौटते समय अपने पति के लिए एक अख़बार खरीद कर ले आया करे, वो भी नौकरी करने के लिए किसी ऑफिस में जाती है।”


मुझे ये समझ में नहीं आया कि अभिनव मज़ाक कर रहा है या सच कह रहा है। मैं मुंह बाए उसे देखने लगा।

लेकिन एकाएक अभिनव हंस पड़ा।

मैंने उससे कहा- “उसे एक डॉक्टर होकर अपने मरीजों की भावना से इस तरह नहीं खेलना चाहिए!”


वह एकदम से संजीदा होकर बोला- “नहीं-नहीं, ये वास्तव में जटिल है। जीवन का पहला प्रेम चाहे वासना के रूप में ही क्यों न हो, अपना असर देर तक नहीं छोड़ता।

यदि ये प्रेम सामान्य प्रेम है तो ये विवाह हो जाने के बाद स्वतः तिरोहित हो जाता है, किन्तु यदि इस तरह का असामान्य प्रेम है तो समय- समय पर सिर उठाता रह सकता है।

लेकिन मरीज़ को ये समझाया जा सकता है कि इससे उसे कोई नुक्सान नहीं है। हां, इसे धीरे-धीरे मन से निकाल देना ज़रूर बेहतर है क्योंकि इसके असर से भविष्य में कोई आदत या लत लग जाने की आशंका रहती है।”


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