हमाम मे नंगे
हमाम मे नंगे
अल्लाह हो अकबर, अल्लाह हो अकबर। अल्लह हो अकबर, अल्लाह हो अकबर।
अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह सबसे बड़ा है। अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह सबसे बड़ा है।
मुअज़्ज़िन की पुकार गूंज उठी।
ठंड के मारे शमशाद मियां की हिम्मत नही हुई कि बिस्तर से बाहर निकले। बेगम ने आकर जगाया, “उठ भी जाओ। अज़ान हो रही है। नमाज़ कज़ा हो जायेगी।”
“अरे अभी अज़ान ही तो हो रही है। जमात मे वक्त है अभी। फ़ज्र की जमात और अज़ान के बीच काफ़ी वक्त रहता है।” कसमसकर शमशाद मियां ने कहा। इतनी देर मे मुअज़्ज़िन ने शहादत के कलमात बोल दिये थे और अभी सदा लगा रहा था कि, हंय्या अलस्सलात, हंय्या अलस्सलात। हंय्यया अलल फ़लाह, हंय्या अलल फ़लाह।
आओ नमाज़ की ओर, आओ नमाज़ की ओर। आओ सफ़लता की ओर, आओ सफ़लता की ओर।
बेगम ने कहा, “उठ भी जाओ। बहुयें जाग जायेंगी तो क्या कहेंगी।”
जब मुअज़्ज़िन ने पुकारा- अस्सलातो खैरुम्मिनन्नौम, अस्सलातो खैरुम्मिनन्नौम
नमाज़ बेहतर है नींद से, नमाज़ बेहतर है नींद से...तो शमशाद अली आखिर उठ ही बैठे।
शमशाद अली ने एक गहरी सांस खींची और धीरे से कदम दरवाज़े के बाहर निकाला। बड़ी मायूसी से आसमान की तरफ़ नज़र उठा कर देखा। अल्लाह उसे देख रहा है; इस बात का उन्हे पूरा यकीन है।
बिस्तर से बाहर निकलते ही उसने मायूस होकर सोंचा, ‘पता नहीं यह ठंड का मौसम क्यों आ जाता है। बूढ़ी हड्डियां क्या बर्दाश्त करेंगी? अभी तो ठंड शुरू हुई है और ये हाल है कि सुबह बिस्तर से उठना मुश्किल हो जाता है। सारा जिस्म रात भर मे अकड़ चुका होता है। फ़ोड़े की तरह जिस्म की एक एक रग दुखती रहती है। क्या ही अच्छा हो अगर ठंड का मौसम कभी आये ही न...’
चलते हुये उसने सिर हिलाया और धीरे से मुस्कुरा उठा। अपने मुस्कुराने पर उसे खुद यकीन नहीं हुआ। हंसना मुस्कुराना तो जैसे वह भूल ही चुका था। पहले आती थी हाल ए दिल पे हँसी, अब किसी बात पर नही आती...। इस उम्र मे ऐसा ही होता हो शायद। हंसी आती नहीं, उदासी जाती नहीं। सिर्फ़ एक खयाल हरदम सताता है; किस लिये?... आखिर किस लिये ज़िंदा हूं? सब कुछ तो देख लिया। और कुछ इस तरह देखा कि अब और कुछ देखने की तमन्ना ही बाकी नही रही। सच कहो तो आगे कुछ भी देखने से डर लगता है। सच कहो तो कुछ अच्छे की कोई उम्मीद ही नहीं। ज़िंदगी को एक बुरे ख्वाब की तरह जिये जा रहे हैं। अगर कहीं मौत से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो जाये तो, कसके गले मिलना है। हां उस मलेकुल मौत को भी एहसास हो जाये कि दुनियाँ मे उसका चाहने वाला भी कोई है। सचमुच मौत इतनी बुरी शय नहीं कि जिस तरह लोग उससे डरते हैं। ये तो हर डर से हर नागहां परेशानियों से निजात दिलाती है।
ज़िंदगी को बहुत प्यार हमने किया, मौत से भी मुहब्बत निभायेंगे हम...। सच मे, ये शायर भी क्या बात कह जाते हैं...। क्या ज़माना था उन गानो का। क्या दीवानगी थी उन फ़िल्मो की...। अपनी जवानी के और कमसिनी के दिन याद कर शमशाद फ़िर बरबस ही मुसकुरा उठा।
इसके पहले भी तो वह मुस्कुराया था। किस बात पर? हाँ, क्या ही अच्छा हो अगर ठंड का मौसम कभी आये ही न? इस बात पर उसे अपना बचपन याद आ गया, जब वह सोचता था क्या ही अच्छा हो अगर ठंड का मौसम कभी जाये ही न।
उसके बचपन के वे दिन उसे याद आ गये जब उसके दादा-दादी अपनी अकड़ी हुई हड्डियों को सीधा करते हुये ठंड को कोस रहे होते तो वह किस तरह बिगड़ उठता, “ठंड को क्यों बुरा बोलते हैं, आप लोग? ठंड तो सबसे अच्छा मौसम है।” ऐसा नहीं था कि दादा-दादी के ठंड को कोसने से ठंड को मौत ही आ जायेगी। बस उसे यह जताना होता था कि उसे ठंड का मौसम ही सबसे प्यारा लगता है। दादा-दादी क्या कहते? बस मुस्कुरा देते, “अरे अभी नया खून है न? जब बुढ़ापा अयेगा तब पता चलेगा।” क्या राज़ था उनकी मुस्कान का? क्या उन्हे भी अपना बचपन याद आता होगा? या शायद जवानी...?
“मै कभी बूढ़ा नहीं होऊंगा?” वह तब चिढ़कर कहता।
“क्या हमेशा जवान बने रहोगे?” वे हँसकर कहते।
“जवान नही, बच्चा?” वह कहता। दादा-दादी दोनो एक दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्कुरा उठते।
ठंड के दिनो को दादा और दादी आग के सहारे ही काटते। आंगन के पेड़ के झड़े हुये पत्ते जो ओस से भीग चुके होते और जलने पर धुआँ देते। धुआँ जो आंख मे जलन पैदा करता और दादी की बद्दुआयें पाता। शमशाद और सभी भाई बहन बाड़ी मे मौजूद झाड़ियों से सूखी लकड़ियां बटोरकर लाते और उनपर पत्ते बिछाकर आग जलाते। सभी भाई बहन दादा और दादी के साथ आग के इर्द-गिर्द जमा होकर आग तापते हुये उनकी कहानियों का मज़ा लेते।
अब तो उस आग का सहारा भी नही रहा। दौर ए ज़माना ही बदल गया है। क्या किया जाये? देख लो शमशाद अली, दादा-दादी के बुढ़ापे पर हँसे थे; अब अपना बुढ़ापा देख लो। बड़ा कहते थे न कभी बूढ़ा नहीं होऊंगा। क्या है तुम्हारे हाथ में? क्या रह गया है तुम्हारे पास? आग तापने का सहारा भी तो नहीं रहा कि किसी तरह ठंड तो कटे। ऊपर से सुबह सुबह बाहर खदेड़ दिये जाते हो कि, “अज़ान हो रही है। मस्जिद जाओ, नहीं तो नमाज़ कज़ा हो जायेगी।”
शमशाद अली कभी बहुत धार्मिक नहीं रहे। हाँ, ये ज़रूर रहा कि अल्लाह और अल्लाह के रसूल पर ईमान तो रखते थे। बस, नमाज़ मे कोताही बरतते थे। फ़िर भी उन्हे पक्का यकीन था कि अल्लाह उन्हे भी चाहता है; जैसे और दूसरे लोगों को चाहता है। क्यों नहीं चाहेगा? आखिर हर हराम काम से दूर रहा हूं। कोई गलत काम नहीं किये। रिज़्क ए हलाल पर ही ज़िंदगी गुज़ारी है। उसे नापसन्द हो ऐसे हर काम से बचता रहा। क्यों नहीं चाहेगा?... यह भी पूरा यकीन था कि गुनाहगार हैं, नमाज़ें कज़ा तो की हैं और जहन्नुम तो जाना ही है। फ़िर भी दिल के किसी कोने मे यह अहसास ज़रूर था कि अल्लाह ज़रूर रहम करेगा। अल्लाह के रहमान और रहीम होने मे तो कोई शुबह ही नहीं था। अल्लाह जैसी शफ़क़त और कहाँ? दुनियाँ उसकी शफ़क़त को समझने से भी कासिर है। कुछ ऐसा ही रिश्ता था उसका अपने रब, अपने मालिक के साथ।
कुछ ऐसा ही था वह। आज जैसा तो बिल्कुल नहीं। लम्बी सी सफ़ेद दाढ़ी, कुर्ता पायजामा। बिल्कुल एक दीनदार मुसलमान की तरह। वैसे भी इस उम्र मे अब उसे यही भेस ज़ेब देता है। लोग इज़्ज़त करते हैं...।
इज़्ज़त तो उसने वैसे भी बहुत कमाई थी। और इज़्ज़त के लिये कोई खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ी। बस ईमानदार बना रहा। ड्यूटी ईमानदारी से की। काम से जी नहीं चुराया। झूठ और फ़रेब से दूर रहा। ऐसा भी नहीं कि नौकरी के दौरान सौंपा गया काम हमेशा पूरा ही हुआ है। लेकिन लोगों ने कहा अगर शमशाद से नहीं हुआ तो काम मे ही कोई समस्या है। नौकरी के आखरी कुछ बरसों मे तो उसने कई बार नये आने वाले अपने अफ़सरों को भी डांटा फ़टकारा है। मजाल है किसी ने बुरा माना हो। यह सब किसी करिश्मे जैसा ही तो लगता है। यह सब कुछ अल्ल्लाह की ही तो अता है। वह जिसे चाहे इज़्ज़त बख्शे। वह रब्बुल इज़्ज़त है...।
लेकिन यह सब रिटायरमेंट के पहले की बात है। अब तो ज़माना गुज़र गया है इन बातों को। अब तो यह सब सपने जैसा लगता है। अब तो यह बातें याद भी कभी-कभी ही आती हैं। ठीक बचपन की बातों की तरह। ज़िंदगी कहाँ कहाँ से गुज़रती हुई कहां आगई है? और किन किन मरहलों से गुज़रना है; पता नहीं। उसने एक आह भरी और बेचारगी से एक गहरी सांस छोड़ दी। दिल बहुत भारी हो गया। अल्लाह तआला ये बेकारी और लाचारी के दिन किसी को न दिखाये...। रिटायरमेन्ट विदाउट पेन्शन...। लानत ही है ज़िंदगी पर। सारी ज़िंदगी अपनो का, घरबार का बोझ उठाओ, अपने दिल पर पत्थर रखकर। एक दिन तो आयेगा, जब कोई जवाबदारी नहीं रहेगी। किसी की कोई ज़िम्मेदारी नही रहेगी। अपना कमाया पैसा होगा अपने हाथ मे और अपना वक्त होगा। लेकिन क्या अपना वक्त आया कभी। खयाल तो खयाल ही होते हैं। पी एफ़, ग्रेच्यूटी और छोटी बड़ी दूसरी जो कुछ रकम हाथ आयी वह तो यूँ देखते देखते उड़ गई। बगैर कमाई के तो कारून का खज़ाना भी कम पड़ता है...
आज तो ख़्यालों मे खोये शमशाद मियां, चलते हुये कब इस गली तक पहुंच गये पता ही नही चला। बगल वाली गली मे मौजूद गुरुद्वारे से अरदास की आवाज़ कान मे पड़ी तब खयाल आया। यह दूसरी गली से आने वाली, गहरे खयालों मे डूबी सी पुरसुकून आवाज़ एक ज़माने से उसे आकर्षित करती रही है। यह दूसरी गली से नहीं, शायद किसी दूसरी दुनियां से ही आरही है; एक पुर सुकून दुनियां से। इसे सुनने वाले भी जैसे एक दम के लिये, एक सुकून भरी दुनियाँ पहुंच जाते हैं। पता नहीं यह सुकून हक़ीकत की दुनियाँ मे क्यों नहीं है?
अभी जमात को बहुत वक़्त है। जिस दिन शमशाद अली घर से जल्दी निकल आते हैं तो वक़्त गुज़ारने के लिये रास्ते को लम्बा कर लेते हैं। इसमे घूमना भी हो जाता है। और यह अक्सर ही होता है; लेकिन मौसम और सेहत साथ दे तो।
वह एक चक्कर लेकर, गुरुद्वारा वाला रास्ता पकड़ लेता है। किस्मत हुई तो उसका पुराना दोस्त लक्खा यानि लखविंदर मिल जायेगा। वह अक्सर सुबह सैर को निकलता है और दोनो की मुलाकात हो गई तो गुरुद्वारे तक दोनो का साथ हो जाता है। आज भी किस्मत अच्छी थी, सो वह नज़र आ गया। उसने दूर से ही हाथ हिलाते हुये रुकने का इशारा किया और ज़रा पास पहुंचने से पहले ही अपनी आदत के अनुसार चिल्लते हुये पूछा, “और भई, क्या बात है आज फ़िर जल्दी? लगता है भाभी ने लात मारकर निकाल दिया।”
शमशाद मियां ने बुरा नहीं माना। वे दोनो बचपन के दोस्त थे और नौकरी मे भी दोनो का साथ बना रहा। इसलिये वे दोनो लंगोटिया यार रहे हैं। और लक्खा तो हमेशा से ऐसा ही रहा है; बिंदास। यारों का यार। उसे देखते ही चेहरे पे रौनक आ जाती है। सारी दुश्चिंतायें हवा हो जाती हैं।
“लगता है, तू आज लात खाकर निकला है।” शमशाद ने मुस्कुराते हुये कहा।
“ओय यारा, सबके घर की यही कहानी है। हमाम मे सभी नंगे हैं।” लक्खे ने हाथ थामते हुये कहा। दोनो साथ साथ चलने लगे।
दोनो हम उम्र थे, सो कुछ महिने के आगे पीछे ही रिटायर हुये थे। लेकिन रिटायर्मेंट के बाद, हालात ने दोनो को दूर दूर कर दिया था। दिल से दूर नहीं, बस मिलना जुलना कम हो गया था।
“और सुना कब आया।” शमशाद मियां ने पूछा, “इस बार बड़े दिनो बाद मुलाकात हुई...”
“हां यार, इस बार फ़ेरा ज़रा ज़्यादा लम्बा हो गया।” चलते चलते लखविंदर सिंह कहता जा रहा था, “दिल्ली मे रहा। हरजीत और उसकी बहू छोड़े ही न। चंडीगढ़ से मनजीत और छोटी बहू के फ़ोन पर फ़ोन आते रहे। वहां कुछ दिन रहा तो बेटी दामाद ने फ़ोन कर कर के परेशान कर दिया, वहां भी जाना पड़ा। बस यार रब भला करे, इसी तरह बच्चों के बीच भागते दौड़ते ज़िंदगी बीत रही है। रब उना दा भला करे, दोनो बेटा बहू, ते बेटी दमाद भी बड़ा खयाल रखदे हैं। और की चाईदा लाईफ़ विच?”
“सच है यार। इतने अच्छे बच्चे हों तो और क्या चाहिये ज़िंदगी मे।” शमशाद ने सहमति जताई, “हमारी खुशियों का मरकज़ तो ये औलाद ही है। तू फ़ालतू उन्हे छोड़कर यहाँ आ जाता है। आखिर यहां ऐसा रखा ही क्या है?”
“ओये ! कमाल करता है यार तू; हमारी अपनी भी लाईफ़ है। बूढ़े हो गये हैं, तो क्या।” लक्खा शरारत से हंस दिया, “फ़िर यारा, यहां के घर की भी तो देख भाल करनी है। बड़ी मेहनत से बनाया है। छोड़ थोड़ी सकते हैं। फ़िर पड़ा रहेगा तो बच्चों के काम आयेगा। बिक गया तो पैसा कितने द
िन टिकेगा? फिर, नाती पोते आते हैं छुट्टियाँ मनाने तो उनके लिये एक ठिकाना तो है।”
“हां तेरी बात सही है यार।” शमशाद ने जैसे आह भरकर कहा हो।
“होर तु सुना, भाभी बच्चे कैसे हैं? तू ठीक तो है?”
“मुझे क्या होना है? मै भी बिल्कुल ठीक हूं, तेरी तरह। बहुयें, बेटे खिदमत करते हैं। बेटियां आती जाती रहती हैं। मज़े मे कट रही है।” शमशाद ने कहने को तो कह दिया लेकिन दिल डर से कांप गया। अल्लाह के घर जा रहा हूं नमाज़ पढ़ने और झूठ...। यह बात इतनी सच भी तो नहीं है। मज़े मे तो नहीं है। बस कट रही है। और किस तरह कट रही है, यह तो वही जानता है। लेकिन क्या शिकायतें करना? अपनी जांघ खोलकर दिखाने से खुद को ही शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। लेकिन वह पहले अल्लह से इतना डरता नहीं था: क्योंकि झूठ नहीं बोलता था। हां सच है नमाज़ें भी कज़ा करता था, लेकिन जानता था कि अल्लाह तआला इसकी वजह बेहतर जानता था। और कम से कम दिखावे की इबादत तो नहीं करता। दिखावे की इबादत तो शिर्क है। सबसे बड़ा गुनाह; जिसकी कोई माफ़ी नहीं। लेकिन अब के हाल मे जो इबादत है वह तो रस्म ए ज़माना भर है। या शायद वक़्त गुज़ारने का तरीका। इसी बात के लिये उसे आज कल अल्लाह से बड़ा डर लगा रहता है वर्ना तो वह ज़िंदगी भर कभी नही डरा। हां ! अब भी उसे, अल्लाह के रहमान और रहीम होने पर पूरा भरोसा है।
बातों ही बातों मे वे गुरुद्वारा तक पहुंच गये।
“अच्छा यार, नमाज़ मे रब से मेरे लिये भी दुआ करना; मैं भी तेरे लिये दुआ करूंगा। रब किसी एक की भी दुआ कुबूल करले तो..., वैसे तो दोनो ही पापी ठहरे।“ कहकर लखविंदर गुरुद्वारे की तरफ़ चल पड़ा और शमशाद मस्जिद की तरफ़।
नमाज़ के बाद शमशाद मियाँ ने बड़ी अनिच्छा से मस्जिद के बाहर कदम रखा। कुछ देर दूसरे नमाज़ियों के साथ गपशप मे गुज़ारी। जब सब चले गये तो घर की राह पकड़नी पड़ी। घर जाकर सबकी नज़र मे खटकने से बुरा क्या है। मर्द की ज़िंदगी भी अजीब है, जब तक कमाई है तब तक तो सब जगह आप की बड़ी आव भगत है। घर बैठने के बाद तो घर मे भी अवांछित हो जाते हैं...। किस्मत तो पाई है लक्खे ने। बेटे, बहुयें, बेटी, दामाद सभी पूछते हैं। कुछ दिन नहीं गये तो बुलाने के लिये फ़ोन पर फ़ोन करते हैं। दूर दूर जो रहते हैं। मैने सब को समेट कर एक जगह रखना चाहा, सोंचा पूरा घराना एक होकर रहेगा। लोग मिसालें देंगे हमारे घर की, हमारी एक जहति की। और देखो अंजाम...। लेकिन अब किया क्या जा सकता है।
चौक से गुज़रते हुये एक चाय के ठेले पर चाय की केतली से उठती हुई गर्मागरम भाप को देखकर चाय की तलब जाग उठी। जेब टटोलकर देखा। हिम्मत नहीं हुई। जब कमाई न हो तब एक एक पैसा भी कीमती होता है। बहुत बार सोंचा कि अपना खर्च चलाने के लिये कुछ छोटा मोटा काम धंधा ही कर लें; लेकिन बेटा बहू झिड़कते हैं कि अब इस उम्र मे काम करके, ज़माने मे हमारी रुसवाई कराने का इरादा है? लोग क्या कहेंगे? बूढ़े बाप को पाल नहीं सकते? दस मुंह दस बातें। बीवी कहती है क्या कर लोगे अब काम करके? छोड़ो न, क्यों अब बुढ़ापे मे अपनी भी फ़जीहत और बच्चों की भी फ़जीहत कराने पर तुले हो। दो वक़्त की रोटी तो दे रहे हैं न...? यह भी उन्ही की तरफ़दार हो गयी है, जबसे रिटायर हुआ हूँ...।
लेकिन चाय की तलब हावी होने लगी। चाय तो घर मे भी मिल ही जाती है लेकिन इस तरह की ताज़ा ताज़ा चाय...? भटकते भटकाते जब घर पहुंचेंगे, तब सुबह की बनी हुई चाय गरम करके परोस दी जायेगी। बहुत बुरा लगता था, शुरू शुरू मे। आदत नहीं थी न ! कभी अपने राज मे भला इस तरह चाय पी थी? सुबह तो नींद ही नही खुलती थी चाय के बगैर। ताज़ी गर्मागरम चाय और प्याली से उठती हुई उसकी खुशबू...। गुस्सा तो इतना आता है...। लेकिन क्या कहें बेगम को, कहती है- “कोई तमाशा मत खड़ा करो। चुप चाप पी लो। अब अपना राज नही रहा घर पर।“ ये औरते भी न... !!
शमशाद मियां चाय के ठेले के पास जाकर खड़े हो गये। चाय की गर्मागरम भाप और उससे उठती खुशबू ने सारी ठंड भुला दी। चाय वाले ने झट से गिलास मे ढालकर, एक हाफ़ बढ़ा दी।
“नहीं नहीं ! चाय नहीं चाहिये।“ बड़ी अनिच्छा से उसने मना किया; हालान्कि दिल तो कह रहा था लपक ले गर्मागरम चाय।
“मै तो किसी का इंतेज़ार कर रहा था।“ सफ़ाई मे, मजबूरन एक झूठ फ़िर बोल उठे और दिल ही दिल मे अल्लह से तौबा भी करने लगे।
“तो यहां क्यों खड़े हो? थोड़ा दूर खड़े रहो न। धंधा क्यों खराब कर रहे हो।“ चाय वाले ने चाय वापस केतली मे उडेलते हुये झिड़क कर कहा। गिलास मे निकाली चाय वापस केतली मे डालने के कारण उसे बड़ा गुस्सा आरहा था। शमशाद मियां को गुस्सा ज़रूर आ रहा था; लेकिन गुस्सा दिखाने के लिये भी हैसियत की ज़रूरत होती है। आज उनकी हैसियत इस चाय वाले के बराबर भी नहीं थी। जब तक नौकरी मे थे किसी की मजाल थी इस तरह बात करे? वक़्त वक़्त की बात है। जब नाईट शिफ़्ट छूटती थी, और गेट से निकलकर चाय के ठेले पर गर्मागरम चाय का गिलास हाथ मे थामे दोस्तों के साथ गपशप लड़ाते खास तौर पर लक्खे के साथ तो वक़्त का पता ही नहीं चलता। हां सब पुरानी बातें हैं...। शमशाद ने एक आह भरी। क्या बुरा है अगर एक बार फ़िर वहां जाया जाये? नाईट शिफ़्ट छूटी होगी। कोई एकाध पुराने लोग भी मिल जायें। हो सकता है कोई चाय वाय भी पिला दे। अच्छा, ऐसा भी तो हो सकता है सुबह सुबह वहीं चाय का ठेला लगा लिया जाय। दो घंटे का धंधा है। कमाई भी हो जायेगी और किसी को पता भी नही चलेगा।
शमशाद ने सोचते सोचते ही यह तय कर लिया कि, इस खयाल को अंजाम तक पहुंचाना ही है; और पक्के इरादे के साथ वे पैदल ही बोरिया गेट की तरफ़ चल पड़े।
बोरिया गेट पहुंचकर शमशाद अली, मानो अपने पुराने दौर मे वापस लौट गये। यादों के जाने कितने झरोखे खुल गये। लगा कि यहां का एक एक पेड़, एक एक झाड़ी उन्हे पहचानती है। यहां की ज़मीन के एक एक इंच ज़मीन के खित्ते से वे वाकिफ़ हैं। ‘वकिफ़ हैं’ कहना शायद नाकाफ़ी होगा। यह सब तो उनके वजूद का एक हिस्सा रहा है। बरसों बरस रहा है। सिर्फ़ रहा है नहीं, बल्कि अब भी है। हां यह सब अब भी मेरे वजूद का हिस्सा है। इससे मुझे और मुझसे इसे अलग नहीं किया जा सकता। यहां का एक एक ज़र्रा अब भी मेरी रग ओ जां मे खून के साथ रवां दवां है और दिल मे धड़कन की तरह धड़क रहा है।... और मै हूं कि, मुझे ही पता नहीं। लेकिन एक पराये पन का अहसास भी क्यों है? इसमे परायापन कैसा? ये अनजान चेहरों का हुजूम ! बेशक, यहां की रौनक अब पहले से ज़्यादह हो गयी है। एक ज़माने मे सिर्फ़ नाईट शिफ़्ट से छूटने वाले कर्मचारियों से आबाद रहने वाला यह बाज़ार अब आम शहरियों की तफ़रीह का भी मर्कज़ बन गया है। शमशाद ने तो इस बाज़ार को, एक एक दुकान करके अपने सामने आबाद होते देखा है। शुरुआत तो बस एक चाय के ठेले से हुई थी, जब सुबह सवेरे ड्यूटी से छूटने वाले कर्मचारी यहां रुककर चाय की चुस्कियों से अपनी रात भर की थकान उतारते। एक से दो और दो से तीन ठेले, फ़िर बच्चों के चड्डी बनियन वाले का अनियमित पसरा, फ़िर एक सब्ज़ी वाले का पसरा फ़िर तो इसे सड़क की दूसरी तरफ़ मैदान की ओर शिफ़्ट करना पड़ा और देखते देखते बाज़ार ने आज का रूप ले लिया। अब तो सोंचना पड़ रहा है कि कौनसी चीज़ है जो यहां बिकने नहीं आती।
शमशाद अली काफ़ी देर तक इसी उधेड़बुन मे लगे बाज़ार मे घूमते रहे कि किससे इस बारे मे बात करें और क्या बात करें। दुकानदारों मे आधे से ज़्यादा लोग अब भी पुराने लोग ही थे। शमशाद अली को बरसों से जानते थे लेकिन लम्बी दाढ़ी, कुर्ता पायजामा और टोपी मे कोई अब तक पहचान नहीं सका था। लेकिन मसला यह नहीं था। लोग तो पहचान ही लेंगे, वह कोई भूलने वाली चीज़ भी नहीं था। डर था कि उसके चाय बेचने के इरादे के बारे मे जानकर लोग क्या कहेंगे? क्या सोंचेंगे? चालीस साल बी एस पी की नौकरी करने के बाद भी यह हाल कि अब चाय बेचेंगे? क्या कहूंगा? कैसे कहूंगा? अपनी तकलीफ़ किस किस से बयां करूं? सोंचते सोंचते हिम्मत जवाब देने लगी। इरादे कमज़ोर पड़ने लगे, कि तभी अल्लाह ने मदद की...
शमशाद ने वहां एक सरदार जी को चाय बेचते देखा तो हैरानी हुई। पहले नहीं था... लगता है शायद नया हो, बाद मे आया हो। उसके पास बहुत भीड़ थी और शमशाद अली भीड़ के ऊपर से नज़र आती उसकी पगड़ी को ही देख पा रहे थे। जिज्ञासावश और करीब पहुंचते ही अचानक शमशाद अली चीख ही पड़े- “लक्खे !!!”
“क्या बताता यारा ! रोने से ज़ख्म भरते नहीं, और गहरे होते हैं। बेटे-बहुयें ते बेटी-दामाद... सब अपनी जगह ठीक हैं शमशादे ! बस हम ही गुज़रा हुआ ज़माना हो गये हैं। नये ज़माने पर बोझ।“ लखविंदर सिंह के आंसू थमने का नाम नहीं लेते। दोनो दोस्त बहुत दिनो बाद आज साथ मिलकर रोये थे।
“जाने दे यार, सबके घर की यही कहानी है। हमाम मे सभी नंगे हैं।“ शमशाद अली ने दिलासा देते हुये कहा।
दस बज रहे थे। बाज़ार अधिकतर उठ चुका था। ज़्यादातर चाय दुकाने बंद हो चुकी थीं। दोनो दोस्त वही बाज़ार मे चाय-नाश्ता कर चुके थे। सड़क लगभग सूनी हो चली थी और दोनो दोस्त सड़क के डिवाईडर पर बैठे सर्दियों की धूप सेक रहे थे।
“सच पूछो तो हमारे बच्चों का कसूर नही है यार,” लखविंदर कह रहा था, “कसूर तो हालात का है। सोंच हमारे ज़माने मे ज़िंदगी कितनी सादा थी। और कितनी आसान? कितनी बे फ़िक्री थी। आज की जनरेशन के पास क्या है? सिर्फ़ आंकड़े ! विकास के !! तरक्की के !!! इन आंकड़ों का क्या अचार डालेंगे? नौकरीयां घटती जारही है। छोटे, मंझोले कारोबारों पर भी बड़ी बड़ी इजारेदार कम्पनियां कब्ज़ा कर रही है। कमाई बढ़ती नहीं महंगाई बढ़ जाती है। टैक्स बढ़ते जारहे हैं। आधी कमाई टैक्सों मे निकल जाती है। गरीब और मिडिल क्लास के पास बचता ही क्या है? बची कमाई से स्कूलों की फ़ीस पूरी नहीं होती। ये जनरेशन क्या करेगी?”
“सच है यार,” शमशाद मियां ने सहमति जताई, “कसूर हमारा ही है। हमे अपने बच्चों को तो पढ़ाने लिखाने की बजाय, नेता, अभिनेता या क्रिकेटर ही बनाना चाहिये था। आज ये तीन लोग ही खुशहाल हैं, या इनके आक़ा बड़ी बड़ी कम्पनियों के मालिक।“
“हां,” एक लम्बी आह भरकर लखविंदर ने कहा, “किसान या मज़दूर होना अब ज़िल्लत की बात हो गयी है। यही हालात रहे तो, आने वाली जनरेशन उत्पादन के काम से मुंह मोड़ने लगेंगी...।“
“लेकिन हालात का एक और कुसूर है कि हम दोनो को चाय बेचने के बहाने फ़िर इकट्ठा कर दिया,” शमशाद मियां ने लखविंदर के पुट्ठे पर हाथ मारते हुये कहा, “लगता है अब मरते दम तक तुझसे पीछा नहीं छुटेगा।“
दोनो दोस्त हंस पड़े। वैसे ही जैसे वे बचपन मे, अपने स्कूल के दिनो मे हंसा करते थे।
दूसरे दिन, शमशाद अली अपने घर से मस्जिद के लिये निकले और लखविन्दर सिंह गुरुद्वारे के लिये; बाद मे वे दोनो गेट पर चाय बेच रहे थे। शमशाद ने लखविन्दर से पुछा- “यार, घर मे पता चला तो?”
“ओ यार, कैसे पता चलेगा? तू बतायेगा न मै; आखिर हमाम मे दोनो नन्गे हैं।“ लखविन्दर ने कहा।
“फ़िरभी यार, कुछ ठीक नहीं लग रहा।“
“की? की ठीक नई लग रिया?”
“तुझे नहीं लगता हम घर वालो को धोखा देकर ठीक नहीं कर रहे? घर वाले सोंचते हैं हम इबादत करने गये हैं...”
“तो यार, इसमे कहां धोखा? भूल गया, हम क्या कहते थे? वर्क इस वर्शिप। काम ही इबादत है।“
दोनो मुस्कुरा उठे।