हम आपके हैं कौन

हम आपके हैं कौन

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उस दिन पूरी दोपहर बेहद बोरियत में बीती थी। वैसे सोशल मीडिया के ईजाद होने के बाद बोरियत भी चंद उन रवायतों में शुमार है जो अमूमन आसानी से नहीं पाई जाती हैं, पर कभी - कभी ऐसे हालात पेश आ जाते हैं कि इंसान का दिल न लगे। मसलन मोबाइल चार्ज न हो और बिजली भी आ न रही हो।

इस सारी कहन- सुनन का मतलब केवल इतना सा है कि मैं देर रात को फ़ेसबुक से चिपका हुआ था।

तभी कहीं से उड़कर आ बैठी तितली की मानिंद एक संदेश मेरे मैसेंजर में आ टपका - "हाय"

आमतौर पर ऐसे समय मेरे दोनों हाथ काम करते हैं। एक हाथ से मैं वो करना जारी रखता हूं जो कर रहा हूं, और दूसरे से तत्काल ऐसे संदेश इग्नोर या डिलीट कर देता हूं जो किसी अपरिचित व्यक्ति ने भेजे हों।

लेकिन उस रोज़ न जाने क्या वजह थी कि मैंने उस घड़ी आँखों पर चश्मा लगा रखा था, इसलिए बिना नज़रें गड़ाये भी मुझे उस संदेश के साथ लगी डीपी की एक झलक दिखाई दे गई।

तस्वीर में एक निहायत संजीदा, बल्कि ख़ूबसूरत से नौजवान का चेहरा दिख रहा था जो अजनबी और अपरिचित होकर भी आकर्षक था।

यदि तस्वीर में कोई लड़की होती तो मैं उस तरफ़ देखे बिना पल भर में इग्नोर मार जाता, पर उस तस्वीर पर नज़र ठहर गई।

आप सोच रहे होंगे कि ये क्या बात हुई, लोग तो लड़कियों की तस्वीर के इस कदर दीवाने हुए रखे हैं कि रामायण के ताड़का और शूर्पणखा प्रसंग में भी अगर किसी लड़की की सूरत लग रही हो, तो उसे पहले "लाइक" करके पीछे पढ़ेंगे,और हो सकता है कि पढ़ने की जहमत न भी उठाएं, वैसे ही हाय हैलो के संदेश भेज दें, और मैं कह रहा हूं कि मैं लड़की की तस्वीर होने पर न तो देखता हूं, और न ही कोई भी, किसी तरह की रिक्वेस्ट स्वीकार करता हूं।

इसका कारण सीधा सा ये है कि ज़्यादातर लड़की की तस्वीर के पीछे लड़की होती नहीं है। हां, लड़के की तस्वीर में कम से कम लड़का होगा तो ज़रूर, ये बात अलग है कि उन्नीस साल के लड़के की तस्वीर के पीछे छिपा छप्पन साल का लड़का हो। तो जब एक जवान और सुदर्शन से नवयुवक की तस्वीर के साथ संदेश आया तो मैंने ख़ुद- ब- खुद जवाब भी दे दिया - हैलो!

जवाब पाते ही मानो मशीन स्पीड पकड़ कर फ़ौरन हरकत में आ गई। तुरंत अगला संदेश मिला- कैसे हैं?

अब अपने को "अच्छा हूं" कहने का मौक़ा मुफ़्त में मिल रहा था, भला मैं क्यों छोड़ता? कह दिया।

और जो कोई अच्छा हो, उससे आगे बात करने का अवसर भला वो क्यों छोड़ता? उसने तत्काल कहा - "मैं भी"! हालांकि ये मैंने पूछा नहीं था कि वो कैसा है?

मैं पूछता कैसे, मुझे तो अभी ये भी पता नहीं था कि जनाब किस देश के किस नगर के, किस उमर के, किस नज़र के बाशिंदे हैं!

उसने झटपट अगला सवाल किया - मैं आपको कैसा लगा?

- अरे, ये क्या सवाल हुआ! मैंने मन ही मन सोचा। मैंने उसे जवाब दिया- आपको मैं जानता नहीं, शायद पहली बार आपसे संदेश का आदान प्रदान हो रहा है।

उसने तत्परता से जवाब दिया - तो क्या हुआ, हर रिश्ता कभी न कभी तो पहली बार मिल कर ही बनता है। आपने मेरी फोटो तो देखी ही होगी?

मुझे लगा, कि ये न जाने कौन है, मान न मान, मैं तेरा मेहमान, जान न पहचान...फ़िर भी एकाएक बात का पटाक्षेप करने को दिल नहीं चाहा। कम से कम पता तो चले, कौन है, क्या चाहता है। यही सोच कर मैंने उसकी तस्वीर को थोड़ा एंलार्ज किया और गौर से देखने लगा।

यदि तस्वीर खुद उसी की हो, तो ये लगभग उन्नीस - बीस साल का कुछ पढ़ा लिखा, ख़ूबसूरत सा लड़का दिख रहा था। शक्ल सूरत से भी कोई चालबाज या शातिर नहीं लग रहा था। बिना जाने उसके बारे में कोई भी धारणा बना लेना शायद सही नहीं होता। क्या पता, सचमुच कोई ऐसा परिचित - संबंधी- जानकार निकल आए जो मुझसे किसी कार्यवश ही बात करना चाहता हो!

मैंने एक बेतुका सा मैसेज सरका दिया - मेरी आयु लगभग साठ साल है, और मुझे याद नहीं आ रहा कि हम इससे पहले कभी संपर्क में आए हों।

उधर से जवाब आया- मुझे इसी आयु के लोग पसन्द हैं।

अब मेरा दिमाग़ ज़रा स्थिर हुआ और मैं सोचने लगा, हो न हो, ये ज़रूर कोई "ग्रैंड पेरेंट्स फिक्सेशन" का केस है।

मतलब ये, कि आजकल छोटे- छोटे परिवार होने लगे हैं। केवल माता- पिता और एक या दो बच्चे,बस! इन परिवारों में संयुक्त परिवार की तरह दादा, दादी, ताऊ, चाचा, बुआ वगैरह और कोई साथ में नहीं होता। और माता- पिता भी दोनों वर्किंग होने के कारण बच्चों को पर्याप्त समय व ध्यान नहीं दे पाते। ऐसे में बच्चा कुछ "मिस" करता रहता है।

और यदि उसकी यादों में अपने बचपन की कुछ ऐसी छवियां अवचेतन में बसी हुई हों, जब घर में हर समय उसे गोद में बैठा कर प्यार करने वाले दादा- दादी, या अन्य कोई भी बुज़ुर्ग रहे थे तो वो मन ही मन उनकी तलाश करता हुआ ऐसे लोगों की ओर आकर्षित होने लगता है। चाहे वो लोग उसके लिए बिल्कुल अपरिचित ही हों। सोशल मीडिया ऐसे लोगों की तलाश में बहुत आसान और विश्वसनीय साधन बनता है। यहां वो पूरी गोपनीयता के साथ अपने मनचाहे लोगों को ढूंढ पाते हैं,चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों।

बस इसमें एक खतरा ज़रूर रहता है कि इससे अपनी पहचान छिपा कर कुछ ग़लत लोग भी उनके संपर्क में आ सकते हैं।

फिक्सेशन के शिकार ये बच्चे युवा हो जाने के बाद तक अपने खोए हुए साथी या संरक्षक की तलाश में रहते हैं।

ये सब सोचकर मैंने लड़के से चैट करना जारी रखा।

मैंने भी पूछ लिया- तुम कितने साल के हो?

- बीस का होने वाला हूं, दो महीने बाद! लड़के ने जवाब दिया।

मैंने लिखा- ओह, तब तो तुम मुझसे बहुत छोटे हो।

- तो क्या हुआ, दोस्ती में उम्र नहीं देखी जाती। मैं आपको पसंद तो हूं न? उसने कहा।

अब इस मासूम से सवाल का मैं और क्या जवाब देता, मैंने कह दिया- बिल्कुल।

- थैंक्स! उसने जवाब दिया।

- तुम क्या करते हो? मैंने बातचीत को जारी रखने के लिए वैसे ही कहा।

- जो आप चाहें! उसने जवाब दिया।

मुझे कुछ अजीब सा तो लगा, पर मैं ये भी जानता था कि यदि दो लोग आपस में एक दूसरे को दोस्त समझने या कहने के स्तर पर आ जाएं तो मन और ज़बान कुछ खुल ही जाती है। मैंने फ़िर से पूछा- मेरा मतलब है कि तुम आजकल क्या कर रहे हो, मतलब छात्र हो तो क्या पढ़ाई कर रहे हो? और यदि काम करते हो तो क्या नौकरी करते हो?

उसने कहा - पढ़ाई कर चुका, अब बेरोजगार हूं।

- लेकिन तुम तो बहुत छोटे हो, इतनी सी उम्र में तो लोग बी.ए भी मुश्किल से कर पाते हैं! मैंने उत्तर दिया।

शायद इस बात ने उसे कुछ चौकन्ना कर दिया। उसे लगा कि जैसे मैं उसकी आयु के बारे में कोई शक जाहिर कर रहा हूं। उसने तुरंत उत्तर दिया- मैंने इसी साल थर्ड ईयर की परीक्षा दी है, अब आगे पढ़ने जैसी घर की परिस्थिति नहीं है। इसी से नौकरी या कोई काम करूंगा।

- अच्छा, तो अभी से अपने को बेरोजगार क्यों कहते हो? मैंने उसका उत्साह बढ़ाने के लिए कहा।

मुझे लगा कि यदि इसे दोस्त की तरह मानकर बात कर ही रहा हूं तो थोड़ा इसका भी आत्म विश्वास और मनोबल बढ़ाना चाहिए। मैंने पूछा- क्या तुमने मुझे पसंद किया?

वह जैसे गदगद हो गया, बोला - आपकी तस्वीर देखकर ही तो आपको मैसेज भेजा था। आप मुझे बहुत पसंद हैं।

- पर तस्वीर में तुमने ऐसा क्या देखा? मैंने कहा।

- तस्वीर को देखकर ऐसा लगता है कि आपसे मिलना चाहिए, आपके पास बैठना चाहिए और आपके साथ रहना चाहिए। उसने जैसे अपनी तस्वीर की मासूमियत से बाहर निकल कर कहा।

इससे पहले कि मैं उसकी बात को समझने की कोशिश एक बार फ़िर से करता, उसी ने मुझसे पूछ लिया- आपके साथ और कौन- कौन रहता है?

- कोई नहीं, अकेला रहता हूं। मैंने कहा।

- फ़िर आपका खाना कौन बनाता है? मुझे उसके इस प्रश्न पर कोई हैरानी नहीं हुई, क्योंकि "खाना" सृष्टि का प्रथम नियम है, जीवित रहने की पहली शर्त।

हमारे यहां पीढ़ियों से बच्चों को यही सिखाया जाता है कि औरतें खाना बनाती हैं।

यदि घर में एक औरत हो तो दस लोगों के परिवार से भी कोई नहीं पूछता कि खाना कौन बनाता है, कैसे बनता है! पर यदि घर में एक पुरुष अकेला हो तो ये यक्षप्रश्न है कि इसके भोजन की व्यवस्था क्या है? मानो औरत तो इंजीनियर हो सकती है, डॉक्टर हो सकती है, पायलेट हो सकती है, पुलिस अफ़सर हो सकती है, पर पुरुष "रसोइया" कैसे हो सकता है। ये विधाता का लैंगिक पक्षपात है कि पुरुष पूरे देश का खाद्यमंत्री तो हो सकता है, पर घर की अन्नपूर्णा तो नारी ही होगी।

खैर, मैं सारे ज़माने का उलाहना उस मासूम बच्चे पर क्यों थोपता, मैंने कह दिया- खुद बना लेता हूं। कभी किसी "कुक" से बनवा लेता हूं।

उसने फ़िर पूछा- बाक़ी लोग कहां हैं?

उसके इस सवाल को भी ग़लत नहीं ठहराया जा सकता था। अगर कोई साठ साल का आदमी है, तो उसके बाक़ी लोग तो होने ही चाहिए। आख़िर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, परिवार या समूह में रहता है।

मैंने कहा- बाक़ी लोग दूसरे देश या दूसरे शहर में रहते हैं।

वह काफ़ी समझदार भी निकला। उसने ये नहीं पूछा कि दूसरे देश या दूसरे शहर का नाम क्या है।

बल्कि उसने ख़ुद ही ये अनुमान भी लगा लिया कि बाक़ी लोग अगर दूर अलग रहते हैं तो बड़े व समझदार ही होंगे और मुझ पर निर्भर भी नहीं।

हां, उसके दिमाग़ में ये स्वाभाविक जिज्ञासा ज़रूर उमड़ी, कि एक पुरुष के अगर बाक़ी लोग भी हैं तो फ़िर उसकी कोई एक महिला भी होगी ही।

अब यही उसकी समझदारी का असली इम्तहान था कि वो उस महिला के बाबत क्या कह कर पूछता है! क्योंकि यदि वो कहता है कि आंटी कहां हैं, तो इसका मतलब है कि वो मुझे अंकल मानता है। यदि कहता है कि मैडम कहां है तो फ़िर वो मुझे "सर" समझता है। यदि वो पूछता है कि आपकी "वाइफ" कहां हैं तो फ़िर वो मुझे एक हसबैंड के रूप में... ख़ैर, इतने अनुमान लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उस युवा ग्रेजुएट मित्र ने सीधे - सीधे पूछ लिया- बच्चों की मम्मी उनके साथ ही रहती हैं क्या?

और तब मुझे कहना पड़ा कि उस दुनिया के लोग किसके साथ रहते हैं, मुझे नहीं पता!

उसका उत्तर तुरंत आया - ओह, आय एम सॉरी!

- तुम क्यों खेद प्रकट करते हो, तुम्हारी इसमें क्या चूक? मैंने कहा।

अब उसे शायद उस बात के लिए शिष्टाचार का सहारा मिल गया, जो वो वैसे भी कहना चाहता था।

उसने कहा- तब तो मुझे आपसे मिलना ही चाहिए।

- क्यों? मैंने कहा।

- आपका अकेलापन बांटने के लिए। वो बोला।

- कैसे बांटोगे? मैंने किसी बच्चे की तरह नासमझी से कहा।

- जैसे आप कहेंगे। उसने जवाब दिया।

अब मैंने कुछ संजीदा होकर बात का विषय बदलने की गरज से कहा- तुम जवान और खूबसूरत चेहरे के मालिक हो, तुम्हारे पास जीने के लिए पूरी ज़िन्दगी है, अपनी ही जैसी किसी ख़ूबसूरत और युवा लड़की को चुन कर दोस्त बनाओ और उसके साथ भविष्य के सपने देखो, मेरा अकेलापन बांट कर तुम्हें क्या मिलेगा?

मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी बात उसे कोई ज़्यादा पसंद नहीं आई। क्योंकि उसने बेहद ठंडेपन से जवाब दिया- काश, ऐसा होता। वो जैसे आह भर कर बोला। लेकिन फ़िर उसने आगे कहना शुरू किया - आप मुझसे बहुत बड़े और अनुभवी हैं, आपके सामने मैं क्या कहूं, लेकिन मुझे लगता है कि अब वो दिन गए, जब किसी लड़की को किसी दूसरे के जीवन को संवारने की गरज हो, इस युग में तो हर लड़की अपना ही जीवन बनाने के फेर में पड़ी है, चाहे इसके लिए उसे दूसरों की ज़िंदगी को रौंदना पड़े। उन्हें अब न घर की चिंता है, न परिवार की, न विवाह संस्था की,और न "घर" के पारंपरिक कल्चर की! जहां थोड़ी फ़िक्र या चिंता दिख रही है वो भी परिजनों के संस्कारों के कोड़े के डर से!

- ऐ, सच - सच बताओ तुम कितने साल के हो? जो कुछ मैंने साठ साल में जाकर समझा, तुम टीनएज में ही समझ गए? मैंने कहा।

उसने आश्चर्य से कहा - तो क्या लड़कियों को लेकर आपका भी यही सोचना है? इसका मतलब लड़कियाँ होती ही ऐसी हैं।

कुछ देर की चुप्पी दोनों ओर से रही।

हमारी चैट बंद हो गई।

लेकिन लगभग आधा घंटा गुज़रा होगा, वो मुझसे फ़िर मुखातिब था।

बोला- अच्छा,आप बुरा न मानें तो आपसे एक सवाल पूछता हूं, यदि जवाब दें, तो पूरी सच्चाई से दीजिएगा।

मैंने कहा- पूछो, कोशिश करूँगा कि वही कहूं जो सच हो।

उसने पूछा - आपकी पत्नी को दिवंगत हुए कितने साल बीत गए?

- दस साल! मैंने कहा।

- इसका मतलब जब आप लगभग पचास साल के थे, तबसे आप अकेले हैं? उसने फ़िर कहा।

- हां !

- तो कभी आपने अपनी दूसरी शादी के बारे में क्यों नहीं सोचा? उसने बेहद संकोच से पूछा।

मैंने उसे बताया- मेरे बच्चे दूर- दूर रहते थे, मुझे लगा कि इस घर में एक नई औरत आने से कहीं वो इस घर के दरवाज़ों को अपने पर हमेशा के लिए बंद न समझें। मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था।

- लेकिन ये भी तो हो सकता था कि वो आपके घर को अच्छे से संभालती और बच्चों को प्यार तथा अपनापन देती। उसने फ़िर सवाल किया।

- बच्चे अब शिक्षित और आत्म निर्भर हैं, उन्हें किसी अजनबी औरत से कुछ नहीं चाहिए था। मैंने थोड़ी बेबाकी से कहा।

- और आपको? वो बोला।

अब तक मैं और वो आपस में काफ़ी खुल चुके थे, मैंने भी खुलकर उसे बताया- मेरी अब कोई ऐसी इच्छा या मांग ऐसी नहीं बची है कि कोई नई दुनिया सजाने की सोचूं।

- क्या आपका मन कभी नहीं चाहता कि लंबी अकेली रातों में कोई आपके साथ हो? उसने कहा।

- चाहत को नापना आसान नहीं होता न, यदि जो कोई मेरे साथ हुआ उसकी चाहत मेरी चाहत से कहीं ज़्यादा हुई तो मेरी ज़िन्दगी और घर को तितर- बितर होने में देर नहीं लगेगी। मैंने सफ़ाई दी।

- मतलब?

- मतलब ये, कि सप्ताह में पंद्रह मिनट की प्यास के लिए घर में चौबीस घंटे नदी बहाने का क्या फ़ायदा?

- मतलब?

- मतलब ये, कि अब मेरा मन अकेलेपन से नहीं डरता!

- और तन???

- बाद में बात करेंगे, सो जाओ, अब बहुत देर हो गई। मैंने कहा।

कुछ देर की चुप्पी रही। लेकिन रात के लगभग पौने तीन बजे जब मैं पानी पीने के इरादे से उठा तो मेरा हाथ मोबाइल पर चला गया। मैंने एक बार यूं ही उसे ऑन किया तो देखा, उसका संदेश है - "हाय"।

संदेश लगभग बीस मिनट पहले का था। मैंने सोचा, अब तक तो ज़रूर ही वो सो गया होगा।

फ़िर भी लिख दिया- "गुड मॉर्निंग"!

ताकि जब वो सवेरे उठ कर देखे तो ये न समझे कि इस उमर के लोगों का कोई भरोसा नहीं, न जाने कब बीच में बात छोड़ कर नींद के आगोश में चले जाएं!

लेकिन अब मुझे नींद नहीं आ रही थी, बार- बार लग रहा था कि एक बार मोबाइल ऑन करके तो देखूं, क्या पता उसका कोई संदेश आया न हो।

लेकिन डर भी लग रहा था कि कहीं सचमुच ही संदेश आ न गया हो!


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