कुमार संदीप

Tragedy

5.0  

कुमार संदीप

Tragedy

गरीबी और ठंड

गरीबी और ठंड

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कड़ाके की ठंड और कुहासे की वजह से आगे का कोई भी दृश्य आँखों से दिखाई नहीं दे रहा था। ठंड से ठिठुरता दीनानाथ खुद से अनगिनत प्रश्न करते हुए अपने कदमों को खेत की ओर बढ़ाये जा रहा था। किटकिटाती ठंड, बढती उम्र और ऊपर से बीमारी की वजह से काँपते हुए उसके कदम कभी-कभी रुक जाते और मन में कई प्रश्न हिलोरे मार रहे थे.. प्रश्न भी ऐसे.. जो उसे आगे बढ़ने के लिए मजबूर कर रहे थे। आखिर मुनिया की शादी के लिए धन इकट्ठा करना और मुन्ने की पढ़ाई के खर्च की ज़िम्मेदारी, भी तो उसको ही पूरी करनी है। खैर उसकी पीड़ा से प्रकृति भला क्यों चिंतित होगी? धन,संपत्ति और तमाम भौतिक सुख सुविधाओं से पूर्ण लोगों को भी उसकी पीड़ा नहीं दिख सकती है। 

किसी तरह दीनानाथ अब खेतों में काम पर पहुँच चुका था। कुदाल से माँ धरती को घायल करता हुआ वह रोने लगा। उसकी आँखों के आँसू माँ धरती का आँचल भिगो रहे थे। चिंताओं ने उसे जिंदा लाश बना कर रख दिया था। अपनी पीड़ा कहे भी तो किससे कहे? इस दुनिया में भौतिक सुख सुविधाओं के खरीददार तो है, पर किसी का ग़म कोई नहीं खरीदता यहाँ..बल्कि ग़म खरीदना तो दूर सहारा देना भी ज़रुरी नहीं समझता। प्रकृति तो समय-समय पर रंग दिखाती ही है साथ में इंसान भी अपना रंग दिखाते हैं। गरीबी से जूझ रहे लोग तो जी भर के जी भी तो नहीं पाते हैं...हाँ असमय मौत ही उनके दरवाज़े पर ज़रूर पहुँच जाती है! पर मौसम कोई भी हो, वह हार नहीं मानेगा, ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करेगा.. सोचते ही उसके हाथ दोगुनी ताकत से कुदाल चलाने लगे। 

 



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