Sheikh Saquib

Tragedy Inspirational

2.4  

Sheikh Saquib

Tragedy Inspirational

गरीब कुम्हार

गरीब कुम्हार

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साँवले सपनों की याद कहा जाए तो इसका अर्थ यह निकलता है कि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दौर था तो वह था बचपन। किसी से मतलब नहीं सिवाय खुद के बचपन में माँ-बाबा के हाथ से दिए गए पैसे गुल्लक में बड़ी सावधानी से रखे जाते थे के कहीं दीदी या बड़े भैया चुरा न ले और यही देखा जाता था कि गुल्लक में कुछ पैसे बढ़े या नहीं परन्तु इस गुल्लक के पीछे एक बहुत बड़े व्यक्तित्व की कहानी है।


सारे गाँव में लखन सबसे अच्छा आदमी था क्योंकि वह सुंदर-सुंदर मिट्टी की अनेकों वस्तुएँ बनाया करता था। लखन मिट्टी का घड़ा, सुराही, बर्तन एवं गुल्लक आदि बनाया करता था। गाँव के सभी लोग लखन से संयोग रखते थे। किंतु बहुत समय पहले की बात है एक गाँव में बहुत ही सादा और सरल व्यक्तित्व का एक व्यक्ति रहा करता था जिसका नाम (लखन) था। पेशे से वह एक कुम्हार था। वह अपने गाँव में सबसे ग़रीब परिवार से आता था और वह हमेशा से ही ग़रीब परिवार से व्यवस्थित था। उसके पिता जी भी एक कुम्हार थे और लोग उनसे भली भाँति जानते थे। लखन अपने लगन और परिश्रम से बहुत अच्छा कार्य किया करता था। लोग उसके कार्य की सराहना किया करते थे। परन्तु फिर भी वह अपने कार्य में प्रगति नहीं कर पा रहा था। जिसकी वजह से लखन की पत्नी (शीला) उससे दुखी रहा करती थी। आये दिन लखन और शीला में झगड़ा होता रहता था। आखिर करती भी क्यों नहीं लखन के पास तीन बच्चें थे जिनमें से एक बड़ी लड़की (श्रेया) और दो छोटे लड़के (दीपक) और (कार्तिक)। श्रेया जवान हो चली थी शादी की उम्र होती जा रही थी। जिसके कारण शीला हमेशा परेशान नजर आती थी और लखन के घर की वित्तीय स्थिति भी कुछ ठीक नहीं थी। लखन बड़ी मुश्किल से अपने घर एवं परिवार का ख़र्चा चला पा रहा था और अपने बच्चों को पढ़ा लिखा रहा था।


परन्तु इससे लखन की परेशानियां कम नहीं होती। लखन ने बहुत बार आत्महत्या करने की कोशिश की परन्तु वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। वह रोज़ अपने घर से इस उम्मीद में बाहर निकलता था कि आज कुछ पैसे उसके हाथ आएँगे किंतु रोज़ की तरह वह निराश होकर अपने घर की तरफ लौट जाता था। लखन को अपने परिवार की सुख की चिंता खाए जा रही थी। दिन ब दिन लखन के घर की वित्तीय स्थिति ख़राब होती जा रही थी। लखन के दोनों बच्चे पढ़ाई छोड़ने तक को मजबूर हो चले थे। मगर लखन अपने परिवार को खुश हाल देखना चाहता था वह अपने परिवार को दुखी नहीं करना चाहता था। लखन किसी तरह अपने बच्चों को समझा बुझा कर उन्हें स्कूल के लिए भेज देता था। परन्तु लखन और दुखी रहने लगा उसका मानना था कि कोई उसे समझने को तैयार नहीं। सबको बस खुद से लगाव है। मुझसे किसी को प्यार नहीं। परन्तु लखन को सिर्फ उसकी पत्नी (शीला) समझ पा रही थी। किंतु शीला भी क्या करती घर के हालात इतने ख़राब हो चले थे कि शीला लोगों के घर जाकर उनका झाडू, कूड़ा, करकट करने लगी थी। उधर लखन भी मजबूर हो चला था। बच्चे भी घर की स्थिति देखकर दुखी रहने लगे थे। धीरे धीरे लखन मजबूर होकर दुकान और घर से बाहर निकलना छोड़ चुका था। अब सबके सब बेचारी शीला पर निर्भर थे और जिम्मेदारीयों का बोझ बढ़ते जा रहा था शीला बहुत मजबूर हो चुकी थी।


तभी कुछ समय बाद गाँव में कुछ लोग शहर से रहने के लिए आए अपने परिवार सहित। समय बीता गया और उन्हें यहाँ अच्छा लगने लगा था। कुछ समय बाद सबने फैसला किया कि वह अपनी आगे की जिंदगी यहीं बताएंगे। जिसके लिए उनके परिवार के बाकी के सदस्यों ने हाँ कर दी। यह लोग अपने स्वभाव से बहुत ही सरल और सादा थे। जिनका नाम (रौशन ) था। रौशन अपने परिवार में सबसे बड़े थे एवं वह अकेले थे। परिवार में उनके साथ उनकी पत्नी (दिव्या) और उनकी इकलौती पुत्री (निधि) रहा करती थी। वह धीरे धीरे गाँव के लोगों में रुचि दिखाने लगे और गाँव की संरचना में अपना योगदान देने लगे। वह लोगों की मदद करने में अपनी भलाई समझते थे। इसलिए गाँव के लोग भी उनसे संयोग रखते थे।


निधि अपने पिता जी की लाडली और प्यारी थी। निधि के पिता जी भी निधि से बहुत प्यार करते थे। निधि मनोविज्ञान में स्नातक की छात्रा थी। उसने अपनी पढ़ाई शहर के कॉलेज/विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। निधि को लोगों की मदद करने में बहुत रुचि थी। वह परेशान लोगों की बिना किसी स्वार्थ के मदद किया करती थी और बदले में उनसे प्रेम और स्नेह की उम्मीद करती थी। समय बीता गया निधि भी गाँव के रंग में ढल चुकी थी। एक दिन निधि शाम के समय बाजार की रौनक देखने के लिए घर से बहार निकली तो उसने बहुत सारी चीज़ों को देखा और अवलोकन किया। उन्हीं में से उसे लखन भी मजबूर और परेशान दिख गया। किंतु निधि एक मनोविज्ञान की छात्रा थी तो उसे लखन का दर्द खलने लगा। निधि ने खुद को बहुत रोकने की कोशिश की परन्तु वह खुद को रोकने में असफल रही और वह लखन के पास गई और बोली बाबा आपका मिट्टी का बना घड़ा कितने रुपये का है मुझे यह घड़ा खरीदना है। यह बात सुनते ही लखन काफी समय तक निधि को देखता रहा और वह सोचने पर मजबूर था कि आज उसकी दुकान पर ग्राहक कैसे आ गए। परन्तु निधि ने दोबारा से पूछा बाबा यह घड़ा कितने रुपये का है। यह घड़ा मुझे बहुत पसंद है, अतः मुझे यह घड़ा लेना है। लखन मुस्कुराते हुए बोला बेटी यह घड़ा पचास रुपये का है। किंतु बेटी तुम इसे बिना किसी मोल भाव के ले जा सकती हो आखिर तुम मेरी प्यारी बेटी जैसी हो इस पर निधि बोली बाबा वो सब तो ठीक है परन्तु मैं आपको पैसे नहीं दूँगी तो यह अन्याय होगा भगवान मुझे कभी माफ़ नहीं करेंगे आप यह पैसे कृपा करके रख लीजिए। लखन निधि की बातों से भावुक हो गया और निधि को उसने घड़ा दे दिया और निधि ने बिना किसी स्वार्थ के लखन के खुशी का हिस्सा बन गई और निधि अपना घड़ा लेकर अपने घर की ओर निकल पड़ी। आज लखन बहुत खुश था क्योंकि आज उसके यहाँ भगवान ने ख़ुशियाँ भेजी थी। बहुत समय तक ऐसे ही चलता रहा निधि रोज़ लखन की दुकान पर आती और अपने पसंद की वस्तुएँ ले जाया करती थी। लखन के भी दिन अब काफी अच्छे गुजरने लगे थे। कुछ समय बाद लखन अपनी आर्थिक स्थिति से सफल होकर निकलने लगा था। अब लखन के घर के हालात भी लगभग ठीक हो चले थे और कुछ दिनों में वह अपनी पुत्री श्रेया का विवाह करने वाला था इत्यादि।


एक दिन निधि के पिता जी ने निधि से पूछा के बेटा तुम रोज़ यह मिट्टी की बनी वस्तुएँ क्यों लेकर आती हो हमें तो इसकी जरुरत भी नहीं है सिवाय कुछ वस्तुओं को छोड़कर। तभी निधि ने कहा कि पिता जी अगर कोई व्यक्ति परेशान एवं लाचार है तो हमें उनकी मदद करनी चाहिए बिना किसी स्वार्थ के परोक्ष रुप से। कुछ दिनों पहले जब मैं गाँव के बाजार गई तो मैने हर व्यक्ति एवं हर वस्तु को खुश देखा। सिवाय एक व्यक्ति के जो पेशे से एक कुम्हार है। उसका नाम लखन है, वह बहुत ग़रीब और लाचार था। जो जिम्मेदारीयों के बोझ तले दब चुका था। जब मैने उसकी बेबसी और लाचारी देखी तो मुझसे रहा नहीं गया और मैने उनकी मदद करने की ठान ली। मैं वहाँ से रोज़ कुछ मिट्टी के बने बर्तन, घड़ा , हाँडी, चूल्हा एवं सुराही इत्यादि ले आती थी। ताकि किसी दिन उनका परिवार भूखा न रह जाये। मुझे पता था कि इन वस्तुओं में से कुछ ही वस्तु हमारे लिए उपयोगी है। किंतु मेरे इन्हीं वस्तुओं को बिना मतलब के लाने से अगर उनका भला होता है तो फिर सदा ऐसा ही अच्छा है। आज उनकी पुत्री का विवाह है और आज से पहले उन्हें मैने इतना खुश कभी नहीं देखा था। हमारी भी ख़ुशियाँ तभी खुशहाल होंगी जब हम किसी की बिना किसी स्वार्थ के परोक्ष रुप से मदद करेंगे इत्यादि।


इस पर निधि के पिता जी ने निधि की सराहना करते हुए एवं उसे गले से लगा लिया और सुझाव देते हुए कहा कि आगे भी ऐसे ही इसी तरह बेबस एवं लाचार लोगों की मदद करते रहना बिना किसी स्वार्थ के परोक्ष रुप से और बदले में सिर्फ उनके आशीर्वाद की अपेक्षा करना क्योंकि भगवान बहुत बड़ा है उनके ही हित में परन्तु दो चार ख़ुशियाँ हमें भी मिलेंगी। इसलिए हमेशा दुर्बल एवं लाचार लोगों की मदद करती रहना इत्यादि।



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