गिले शिकवे
गिले शिकवे
मोहन और राघव उस समय से मित्र थे, जब वे मित्रता का अर्थ भी नहीं जानते थे अर्थात बचपन में विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद मोहन और राघस में दोस्ती आरम्भ हुई थी जो कि हर बीतते साल के साथ प्रगाढ़ होती जा रही थी।विद्यालय में हर ओर उनकी दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। वकील पिता का बेटा मोहन पढ़ाई में बहुत होशियार था, जबकि राघव का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। राघव के पिता गाँव के एक प्राइमरी विद्यालय में शिक्षक थे अत: उसका रहन सहन बहुत साधारण सा था। मोहन सदैव राघव को पढ़ाई में और अधिक मेहनत करने को कहता और समझाता “ देख राघव, मन लगा कर पढ़ाई कर और पढ़ लिख कर अच्छी सी नौकरी कर ले तभी तू अपनी बहनों की शादी और अपने माता पिता का अच्छी तरह से ख़्याल रख पायेगा “ पर राघव के कानों पर जूँ न रेंगती और वह अपना ज़्यादातर समय खेलने कूदने में ही बिताता।
दसवीं कक्षा तक आते आते मोहन और राघव की दोस्ती में दरारें पड़ने लगीं। मोहन के समझाने और टोकने से राघव को चिढ़ होने लगी। एक दिन उसने चिढ़ कर मोहन से कह दिया “ तू अपने काम से काम क्यों नहीं रखता। क्यों मेरे माँ पिताजी की तरह हमेशा मुझे उपदेश देता रहता है ? मुझे तेरी सलाह की कोई आवश्यकता नहीं। आज से तेरे और मेरे रास्ते अलग हैं “
दसवीं के बाद मोहन आगे की पढ़ाई करने शहर चला गया। उसे अपने पिता की तरह ही नामी वकील बनना था। राघव की दोस्ती कुछ आवारा लड़कों के साथ हो गई जिनकी बुरी संगत में पड़ कर वह शहर में ठगी, चोरी जैसे बुरे कामों में संलिप्त हो गया। एक बार वह बुराई के दलदल में घुसा तो फिर धँसता ही चला गया और उसे कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ी।
पचीस वर्षों बाद मोहन एक बड़ा वकील बन किसी केस के सिलसिले में दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा। स्टेशन पर उतरते ही एक बूढ़े से क़ुली को सामान लेने के लिये लपकते देख मोहन बोल पड़ा “ रहने दो भाई, क़ुली नहीं चाहिये “
“ सामान पहुँचा देता हूँ बाबू...कुछ पैसे मिल जायेंगे तो पेट मे अन्न का दाना पड़ जायेगा “ क़ुली ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
उसकी आवाज़ और बोलने का लहज़ा सुन कर मोहन चौंक पड़ा और उत्सुकतावश पूछ बैठा “ चलो ठीक है...सामान उठा लो। तुम्हारा नाम क्या है भाई ? कहाँ के रहने वाले हो ?”
क़ुली का उत्तर सुन कर मोहन बोल पड़ा “ अरे राघव। ये क्या हाल बना रखा है ? तू क़ुली का काम क्यों कर रहा है ? पहचाना नहीं मुझे ? मैं मोहन..तेरे साथ पढ़ने वाला मोहन “
राघव की आँखों मे आँसू आ गये वह सकपकाते हुए बोला “ बाबू...आप..मेरा मतलब है तुम मेरे मित्र मोहन हो ? जब तुम मेरे शुभचिंतक बन मुझे समझाते थे तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। पर मैने ग़लत संगति में पड़ कर सदा तुम्हारा अपमान किया...मैं भूल गया था कि सच्चा मित्र व सच्ची मित्रता अनमोल होते हैं। ..तुम तो बहुत बड़े आदमी बन गये हो। तुम्हें देख कर मुझे बहुत गर्व हो रहा है “
“ परन्तु तुम क़ुली का काम क्यों कर रहे हो ? तुमने कोई नौकरी करने की चेष्टा क्यों नहीं की ? मोहन ने पूछा।
“ एक बार पुलिस के रिकॉर्ड में नाम आ जाए फिर कहाँ नौकरी मिलती है मित्र ? और फिर मैंने दसवीं के बाद पढ़ाई ही कहँ की ? मैं चोरी और ठगी के कामों लिप्त हो चुका था। जब तक मेरी आँखें खुलीं तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेरी माँ और पिताजी मेरे बुरे कर्मों का सदमा नहीं झेल सके और असमय ही इस दुनिया से चल बसे। बहनों ने भी मुझसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिये और वे अपने अपने घरों में व्यस्त हैं। .सालों पहले मुझे टीबी हो गई। मेरे उन तथाकथित दोस्तों नें मुझे यहाँ स्टेशन पर मरने के लिये छोड़ दिया क्योंकि मैं अपनी गिरती तबियत के कारण उनके किसी काम का न था। .तबसे इसी स्टेशन पर लोगों का बोझ ढोकर किसी तरह गुज़ारा कर रहा हूँ। पैसे मिल जाते हैं तो पेट में रोटी पड़ जाती है, अन्यथा पानी पी कर यहीं प्लेटफ़ॉर्म पर सो जाता हूँ “ राघव ने अपनी कहानी सुनाई।
मोहन, राघव के साथ स्टेशन से बाहर निकला और टैक्सी में बैठते हुए ड्राइवर से बोला “ किसी अस्पताल में ले चलो “
अस्पताल पहुँच कर उसने राघव को भर्ती कराया और डॉक्टर से कहा “ डॉक्टर साहब, मैं मरीज़ का मित्र हूँ, आप इनका इलाज सुचारू रूप से करें। पैसों की चिन्ता न करें, अभी मैं काफ़ी रुपये एडवांस में जमा करा जा रहा हूँ, और पैसे चाहिये होंगे तो और भेज दूँगा। .बीच बीच में मैं यहाँ इससे मिलने भी आता रहूँगा। आप बस मेरे मित्र को जल्दी अच्छा कर दीजिये “
“ तुम मेरे लिये इतना सब क्यों कर रहे हो मित्र ? मैंने तो तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार भी नहीं किया। तुम्हारी मित्रता का मोल भी नहीं समझा “ कहते कहते राघव का गला रुँध गया।
“ तुमने सुना है न राघव, सच्चा मित्र वही है जो मुसीबत के समय मित्र के काम आये। .और यह तो तुम मान ही चुके हो कि मैं तुम्हारा सच्चा मित्र हूँ। तुम जल्दी से अच्छे हो जाओ फिर मैं तुम्हें अपने साथ अपने घर ले चलूँगा। तुम मेरे कामों में मेरा हाथ बँटाना “
आज फिर बचपन के दोस्त ऐसे ही गले मिल रहे थे जैसे वे विद्यालय में प्रवेश वाले दिन मिले थे। दोनों के बीच के सारे गिले शिकवे, राघव के आँसुओं के साथ बह निकले थे।