Annu Agrahari

Tragedy Inspirational Thriller

4.8  

Annu Agrahari

Tragedy Inspirational Thriller

घृणित शब्द - ए दे ना

घृणित शब्द - ए दे ना

6 mins
352


सुजाता और मोहन दोनों के लिए ही आज बड़ा ही शुभ दिन है क्योंकि आज सुजाता एक मां बनने वाली है और मोहन एक पिता आज के दिन सुजाता अपने बच्चे को जन्म देने वाली है।

सुजाता हॉस्पिटल में एडमिट है और मोहन और उसका पूरा परिवार घबराहट के साथ डॉक्टर के बाहर आने की राह देख रहा है सबके हृदय में बस एक ही प्रश्न बार-बार हिलोरे ले रहा है कि लड़का होगा या लड़की और इस प्रश्न के साथ-साथ एक स्वाभाविक सा प्रश्न यह भी कि यदि लड़का हुआ तो हम सब उसको क्या नाम देंगे और यदि लड़की हुई तो उसको क्या ?

समाज का यह बड़ा ही सीमित सा दायरा है कि उसके लिए समाज में इज्जत के हकदार सिर्फ दो ही लिंग होते हैं स्त्री और पुरुष और इन दोनों में भी पुरुष का पलड़ा सदा से भारी रहा है। यह किसी भी प्रकार के तीसरे लिंग (किन्नर) को अपनी समाज के सीमित दायरे में नहीं लाना चाहता है।

 कुछ समय पश्चात डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर से बाहर आती हैं एक मायूस लटका हुआ सा चेहरा लेकर। मोहन और मोहन का पूरा परिवार डॉक्टर के मायूस चेहरे को देखकर और अधिक घबरा जाता है परंतु तभी अंदर से बच्चे के 'केहां-केहां 'कर रोने की आवाज सबके कानों में पड़ती है और पूरे परिवार के चेहरे पर एक साथ खुशी की लहर दौड़ पड़ती है।परंतु तभी डॉ मोहन को धीरे से अपने केबिन में आने को बोलती हैं शायद यह हमारे समाज का एक कड़वा सच ही है कि जिस डॉक्टर को हम भगवान का दूसरा रूप मानते हैं वह धरती का दूसरा भगवान (डॉक्टर) भी तीसरे लिंग को सर्वव्यापी भगवान की रचना नहीं मानता शायद यही कारण है कि जब वह एक माता-पिता को यह बताता है कि आपने किन्नर को जन्म दिया है तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट व प्रसन्नता के भाव नहीं होते जो एक लड़का या लड़की के जन्म के वक्त माता-पिता को बधाई देते समय होती है। मोहन धीरे से डॉक्टर के केबिन में प्रवेश करता है और इस समय उसके हृदय में अनेक प्रश्न उठ रहे होते हैं कि कहीं सुजाता या बच्चे में से किसी की हालत नाजुक तो नहीं जिसके विषय में बात करने को डॉक्टर ने उसे अपने केबिन में बुलाया है। डॉक्टर धीरे से अपने को सहज करती हुई मोहन को कुर्सी पर बैठने का इशारा करती हैं। मोहन कुर्सी पर बैठते- बैठते डॉक्टर से पूछता है -'क्या हुआ डॉक्टर साहिबा आपने मुझे इस तरह अपने केबिन में क्यों बुलाया कोई दिक्कत की बात तो नहीं है ?' डॉक्टर साहिबा को समझ नहीं आता कि वह अपनी इस बात को किस तरह से शुरू करे मुख पर थोड़ी असहजता का भाव लिए वह अपनी बात को इस तरह से शुरू करती हैं - 'देखिए मोहन जी ऐसा कई दम्पत्तियों के साथ होता है, यह कोई शर्म की बात नहीं है आज के समय में हमारे समाज में लड़का और लड़की की तरह तीसरे लिंग को भी स्थान दिया जा रहा है।' मोहन चुपचाप उनकी बातों को सुनता है। साफ-साफ शब्दों में ना कहकर डॉक्टर मोहन से कहती हैं- ''आपकी बीवी ने जिस बच्चे को जन्म दिया है ना तो वह लड़की है और ना ही लड़का।''

 डॉक्टर के मुंह से ऐसी बात सुनकर मोहन का पूरा शरीर ऐसे तिलमिला उठा मानो आकाश की कोई कड़कती बिजली उसके ऊपर गिर गई हो और शरीर के जलन की पीड़ा से वह तिलमिला उठा हो।डॉक्टर के साफ-साफ ना कहे शब्द अब उसके कानों में साफ-साफ गूँज रहे थे -(तुम्हारा बच्चा किन्नर है, तुम्हारा बच्चा किन्नर है,............)।अचानक अपने दोनों कानों पर हाथ रखकर मोहन इतनी जोर से चीखा मानो यह शब्द अब उसके लिए अत्यंत असहनीय हो। अपना आपा और होश संभालते हुए मोहन ने डॉक्टर से सिर्फ इतना कहा कि-' यह मेरा बच्चा नहीं है, मैं इस बच्चे को कभी नहीं अपना सकता, मैं इस बच्चे को अपने साथ नहीं ले जाऊंगा।' मोहन के ऐसा कहने पर डॉक्टर ने मोहन को समझाने की बहुत कोशिश की पर मोहन कुछ भी सुनने को तैयार ना था। वह यह कहते - कहते डॉक्टर के केबिन से बाहर आ गया कि मैं इस बच्चे को अपने साथ नहीं ले जाऊंगा। 

सदियों से पुरुष के कोप का भाजन सदा से एक स्त्री रही है ,पुरूष को अपना क्रोध कम करने के लिए स्त्री एक उत्तम मार्ग नजर आती है क्योंकि पुरुष हमेशा से स्त्री से अपने को शक्तिशाली मानता रहा है। वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि प्रसव का कार्य भले ही एक स्त्री का हो परंतु एक भ्रूण के लिंग का निर्धारण पुरुष के गुण सूत्रों पर निर्भर करता है। परंतु हम यहां उसके लिए दोनों (स्त्री-पुरुष) को सहभागी मान कर चलते हैं ताकी एक पक्ष को इसका इकलौता गुनहगार या जिम्मेदार न समझा जाए या यूँ कह लीजिए कि एक का पक्ष लेकर दूसरे के साथ पक्षपात ना किया जाए।परंतु न पढ़ा लिखा हुआ समाज सदा से भ्रूण के लिंग निर्धारण के लिए स्त्री को ही जिम्मेदार मानता रहा है और कई बार यह पढ़े लिखे समाज में भी देखने को मिल जाता है। इसी प्रकार एक कड़वा सच यह भी है कि 'ना पढ़े लिखे' समाज के साथ-साथ 'पढ़े-लिखे' समाज का आधे से ज्यादा हिस्सा आज भी तीसरे लिंग को सभ्य समाज का अंग नहीं समझता है।

आज भी मोहन के कोप का भाजन उसकी पत्नी सुजाता को होना पड़ा। प्रसव की कमजोरी के कारण सुजाता अभी भी बेहोश हॉस्पिटल के बेड पर लेटी थी और उसके बच्चे को भी कमजोर होने के कारण ऑक्सीजन चेंबर में लिटाया गया था।

 तिलमिलाता हुआ मोहन अपने परिवार के पास आकर गुस्से से बड़बड़ाने लगा -'यह बच्चा जिसको सुजाता ने जन्म दिया है वह बच्चा मेरा नहीं है, आज से सुजाता मेरी पत्नी नहीं है, आप सब लोग अभी इसी वक्त मेरे साथ घर चलिए,आज से मेरा सुजाता के साथ कोई संबंध नहीं है।' इतना कुछ बड़बड़ाते हुए मोहन हॉस्पिटल से बाहर निकलने लगा। उसे रोकने के लिए परिवार के बाकी सदस्य भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गए। परिवार के किसी भी सदस्य को मोहन की बातें समझ नहीं आ रही थी।जैसे ही मोहन हॉस्पिटल के दरवाजे पर पहुंचा सामने से किन्नरों का एक समूह बधाइयां देता तालियां बजाता हुआ मोहन के समक्ष आ खड़ा हुआ।

एक पीड़ादायक सत्य यह भी है कि समाज के जिस वर्ग ,समूह को हम अपने समाज का हिस्सा मानने से भी इनकार करते हैं वही समूह, वर्ग समाज के प्रत्येक परिवार की सबसे बड़ी खुशी के समय बधाइयां देने तथा परिवार के नए नन्हे सदस्य को आशीर्वाद देने सबसे पहले आते हैं। कुछ क्षण पश्चात उन किन्नरों में से एक किन्नर ने तालियां बजाते हुए मोहन को बधाई दी तथा बच्चे के जन्म की खुशी में कुछ इन शब्दों में मोहन से नेग मांगा-'ए दे ना ' ।

शायद यह शब्द समाज के बहिष्कार ने उन्हें अपनाने को मजबूर कर दिया है या यूं कहें कि वे ही समाज से स्वयं के लिए कुछ मांगने के लिए उस शब्द को अपनाने के लिए मजबूर हो गए हैं।

किन्नर के इस शब्द को सुनते ही मोहन ने अपने बच्चे के रूप की कल्पना किन्नर के रूप में की। अपने बच्चे की उस स्थिति और शब्द के साथ कल्पना करते ही मोहन का ह्रदय घृणा और क्रोध से भर गया। शायद मोहन के अहम् के समक्ष पिता का प्रेम हार चुका था। 



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy