घर
घर
लगभग तीस वर्ष पहले हम हमारे पुराने, गलियारेनुमा घर को छोड़कर एक अच्छी सी प्लान करके बनाई गई कॉलोनी के घरे में रहने आ गए। यह कॉलोनी एक तालाब के किनारे बसी हुई थी, घर के पीछे से दो रेल्वे ट्रैक भी जाते थे। दिनभर वहाँ से गुजरती हुई रेलगाडियों की गिनती करना हमारा खेल ही बन गया था। मैं और मेरा भाई तब बहुत छोटे थे। नया घर बनाने के पीछे किए गए माँ – पिताजी के श्रम, जोड़-जोड़कर लगाया गया पैसा यह सब समझने की उम्र नहीं थी। नए घर में रहने-जाने का आनंद ही बहुत बड़ा था। उसके साथ अपना खुद का बड़ा सा आँगन, छत, कॉलोनी के बीचोबीच खेल का मैदान इन सब का आकर्षण अधिक था।
धीरे-धीरे इस घर ने मेरे मन में पक्की जगह बना ली। आगे का मुख्य दरवाज़ा, पीछे एक दरवाज़ा, ढेर सारी खिड़कियाँ और घर की तीन बाजुओं में आँगन। अगले कई वर्षों तक वहाँ माँ ने सुंदर बगीचा बनाया था। कई तरह के गुलाब, बहुत से फूलों के पौधे, कुछ फलों के पेड़ इन सबके साथ एक कोने में रूई का पेड़ भी था, आमतौर पर किसी के आँगन में न होनेवाला। सालभर घर की रूई से बनी बाति भगवान के सामनेवाले दीए में जलती रहती। आँगन में फूल भी कई तरह के थे। पिताजी के पूजा में बैठते ही आँगन से फूल चुनकर लाना मेरा पसंदीदा काम हुआ करता था। सहजन, अनार, पपीता, नारियल, अमरूद ये सभी पेड़ हमारे साथ-साथ बड़े हुए और फलने भी लगे। उनकी छाया में बैठकर उन्ही के फल खाते हुए खेले गए छुट्टियों के खेल अभी भी याद आते हैं।
देखा जाए तो एक बैठने का कमरा, रसोईघर और एक ही बेडरूम इतना सा ही तो था घर, लेकिन उस समय कितना बड़ा लगता था। छह - सात लोग आरामसे बैठकर रसोईघर में ही खाना खा सकते थे। उस बड़ी-सी रसोई की तुलना आज के छह बाय आठ के किचन से नहीं हो सकती। कुल तीन कमरों में ही सारा घरेलू सामान आ जाता था। शायद ज़रूरते भी कम थी।
उन दिनों गरमियों के दिनों में छत पर कई चीजे सुखाई जाती। सालभर के लिए गेहूँ, दालें, पापड़, भरवाँ मिर्च, बड़ियाँ और भी बहुत कुछ। कौवों को छत से भगाने के बहाने हम दिनभर छत पर जाकर आधे कच्चे पापड़, बड़ियाँ खाते रहते थे। गरमियों की शाम को आँगन में और चांदनी रात में छत पर बैठकर बातें करने में जो मज़ा आता था वह अब व्हाट्स अप चैट में कहा?
मुख्य दरवाज़े के सामने ग्रील लगाकर एक खुला बरामदा बना हुआ था। उसका एक सिरा आँगन से होकर सड़क पर खुलता था और दूसरा बंद था। बंद सिरे में एक बेंच बनी हुई थी। उस बेंच का कोना मेरी पसंदीदा जगह थी। वहाँ से आँगन, सड़क, रसोई में खड़ी माँ सब कुछ दिखाई देता था। स्कूल से आने के बाद कुछ खाते हुए या पढ़ते हुए वहाँ देर तक बैठना मुझे बड़ा अच्छा लगता था। कॉलेज के दिनों में, शादी तय होने के बाद, अपने ही खयालों में खोए हुए कई घंटे मैंने उसी कोने में बैठकर बिताए है। यहाँ तक की मेरे बेटे के जन्म के बाद उसे लेकर भी देर तक वहीं बैठकर उसे आते-जाते लोग और आँगन के पेड़-पौधे दिखाया करती थी। वहाँ पर लगी ग्रील से खेलने के लिए पिताजी मना करते थे, कहते थे – ज़्यादा मज़बूत नहीं है, निकल आएगी, तुम लोग गिर जाओगे। पर मज़े की बात यह है कि मैं और भाई छोड़कर हमारे घर आनेवाले सभी मेहमानों के बच्चे उस ग्रील पर खेलते थे और अभी तक वह वैसी ही है जैसी लगी हुई थी।
इस घर में हमारा पहली बार आना, शादी के बाद मेरा पति के साथ पहला आगमन, फिर मेरे नन्हे बेटे को पहली बार घर ले आना, भाई की शादी सब कुछ इतनी अच्छी तरह से याद है जैसे कल-परसों की बात हो। इसमे से हर प्रसंग खास था और हर बार उसका साक्षी था मेरा घर। छोटी-बड़ी बहुत सी यादे इस घर के साथ जुड़ी हुई है। बहुतांश अच्छी ही है। इस घर ने हमारा बचपन, यौवन, हमारे झगड़े, प्रेम, बिमारियाँ, हमारे बच्चों के जन्म, कई सारे त्यौहार, खुशियाँ, ग़म सब कुछ देखा। पुराना होते हुए भी हर खुशी के मौके पर रंग-रोगन लगाकर घर नया हो उठता । मेरे मन में जब भी घर का खयाल आता है तब वह एकमंज़िला, आँगनवाला घर ही होता है।
परंतु अब घर बहुत ही पुराना हो चुका है। बढ़ती उम्र से माँ-पिताजी उसका पूरा ध्यान नहीं रख पाते। काम की व्यस्तता के कारण सालों तक हमारा उधर जाना भी नहीं होता। गाँव में पानी की बहुत कमी है, शायद एकाध वर्ष में घर को बेचना भी पड़े। पर मन के एक कोने में मेरा घर हमेशा वैसा ही रहेगा, जीवन की अविरत दौड़-भाग में पलभर का सुकून देनेवाला।