एक्टर
एक्टर
लेखक: मिखाइल जोशेन्का
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
यह एक सच्ची घटना है, जो अस्त्रखान में हुई थी. इसके बारे में मुझे एक शौकिया-अभिनेता ने बताया था.
तो, उसने ये किस्सा सुनाया:
“आप, नागरिकों, मुझसे यह पूछ रहे हैं कि क्या मैं एक्टर था? हाँ, था. थियेटर में अभिनय करता था. इस कला को मैंने छुआ तो था. मगर सिर्फ बकवास. इसमें कोई ख़ास बात नहीं है.
बेशक, अगर गहराई से सोचा जाये, तो इस कला में काफ़ी कुछ अच्छा है.
जैसे, आप स्टेज पर आते हो, और पब्लिक देखती है. और पब्लिक के बीच में – परिचित लोग, बीबी की तरफ़ के रिश्तेदार, अपनी बिल्डिंग वाले नागरिक. देखते हो – सामने वाली सीटों पर बैठे हुए लोग आँख मारते हैं – जैसे, घबरा मत, वास्या, फूँक दे पहाड़ को. और तुम, मतलब, इशारों में उनसे कहते हो, कि घबराओ नहीं, नागरिकों. पता है, हम ख़ुद ही उस्ताद हैं.
मगर, यदि गहराई से सोचो, तो इस पेशे में कोई भी अच्छी बात नहीं है. परेशानी ही ज़्यादा है.
तो, एक बार हमने पेश किया नाटक “दोषी कौन”. पुराने ज़माने का. बेहद सशक्त नाटक है. उसमें, एक अंक में डाकू पब्लिक के सामने ही व्यापारी को लूटते हैं. बहुत अच्छा हुआ था. व्यापारी, मतलब, चिल्लाता है, लात मारता है. मगर उसे लूट लेते हैं. ख़तरनाक नाटक.
तो, यह नाटक कर रहे थे.
मगर ‘शो’ से ठीक पहले, एक शौकिया कलाकार ने, जो व्यापारी का रोल कर रहा था, खूब शराब पी ली. और नशे में, वह आवारा इतना लड़खड़ाने लगा कि ज़ाहिर था, व्यापारी का रोल नहीं कर सकता. और, जैसे ही रैम्प पर निकलता, जानबूझ कर बल्बों को पैरों से दबा देता.
डाइरेक्टर इवान पालिच ने मुझसे कहा:
“दूसरे अंक में उसे बाहर निकालना संभव नहीं होगा. कुत्ते का पिल्ला सारे बल्ब रौंद डालेगा. तू,” बोला, “उसके बदले चला जा. पब्लिक तो बेवकूफ़ है – नहीं समझ पायेगी.”
मैंने कहा:
“मैं, नागरिकों, रैम्प पर नहीं निकल पाऊँगा. मुझसे न कहिये. मैंने, अभी-अभी दो तरबूज़ खाये हैं. तबीयत ठीक नहीं लग रही है.”
“मदद कर दे, भाई. कम से कम एक अंक में. हो सकता है, उस कलाकार को बाद में होश आ जाये. इस शिक्षाप्रद काम को”, उसने कहा, “बीच ही में न तोड़.”
आख़िर उन्होंने मना ही लिया. मैं रैम्प की ओर निकला.
और नाटक के बीच में ही, जैसा था, वैसा निकला, अपने जैकेट में, अपनी पतलून में. सिर्फ छोटी-सी पराई दाढ़ी चिपका ली थी. और मैं निकला. मगर पब्लिक ने, चाहे वह बेवकूफ़ ही सही, फ़ौरन मुझे पहचान लिया.
“आ--,” लोग बोले, “वास्या आया है! घबराना नहीं, चढ़ जा पहाड़ पर...”
मैंने कहा:
“नागरिकों, घबराने का सवाल ही नहीं है – जब मुसीबत की घड़ी हो. आर्टिस्ट,” मैंने कहा, “नशे में धुत् है और वह रैम्प पर नहीं आ सकता. उल्टियाँ किये जा रहा है.”
अंक शुरू हुआ.
इस अंक में मैं व्यापारी का रोल कर रहा हूँ. चिल्लाता हूँ, मतलब, लातें मारते हुए लुटेरों से छूट जाता हूँ. मुझे महसूस हुआ कि जैसे कोई शौकिया कलाकार सचमुच में मेरी जेब में हाथ डाल रहा है.
मैंने आर्टिस्टों से एक तरफ़ हटकर अपना जैकेट खोला.
उनसे छिटक जाता हूँ, सीधे थोबड़े पे मारता हूँ. ऐ ख़ुदा!
“मेरे पास न आना,” मैंने कहा, “कमीनों, ईमानदारी से कह रहा हूँ.”
मगर वे तो नाटक के दौरान मुझ पर चढ़े ही जा रहे थे. मेरा पर्स निकाल लिया (अठारह नोट दस-दस के) और घड़ी की ओर लपके.
मैं भयानक आवाज़ में चीख़ा.
“गार्ड, देखिये, नागरिकों, सचमुच में लूट रहे हैं.”
मगर इससे तो बहुत बढ़िया प्रभाव हुआ. बेवकूफ़-पब्लिक उत्तेजना से तालियाँ बजाती रही. चिल्लाने लगी:
“कम-ऑन, वास्या, छूट उनसे, मेरे शेर. फ़ोड़ दे शैतानों की खोपड़ियाँ/”
मैं चिल्ला रहा था:
“कुछ फ़ायदा नहीं हो रहा है, भाईयों!”
और ख़ुद उनके सिरों पर चाबुक बरसाने लगा.
देखा – एक शौकिया कलाकार खून में नहा गया है, और बाकी के कमीने, तैश में आकर मुझे दबाने लगे.
“भाईयों,” मैं चिल्लाया, “ ये क्या हो रहा है? ये इतनी पीड़ा मुझे क्यों झेलनी पड़ रही है?”
डाइरेक्टर पार्श्व से बाहर झाँकने लगा.
“शाबाश,” बोला, “वास्या, ग़ज़ब कर रहे हो, पूरी तरह अपनी भूमिका जी रहे हो. बढ़ आगे.”
देखता हूँ – मेरी चीखों का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है. क्योंकि, जो भी मैं चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा हूँ, उसे नाटका का ही भाग समझा जा रहा है.
मैं घुटनों के बल बैठ गया.
“भाईयों,” मैंने कहा, “डाइरेक्टर, इवान पालिच, और ज़्यादा बर्दाश्त नहीं होता! परदा गिरा दीजिये. आख़िरी बार कह रहा हूँ, वाकई में मेरे पैसे लूट रहे हैं!”
वहाँ बहुत सारे थियेटर-विशेषज्ञ – देखते हैं कि मेरे वाक्य नाटक की स्क्रिप्ट के अनुसार नहीं हैं – वे पार्श्व से निकल कर बाहर आ गये.
प्रॉम्प्टर अपने ‘बूथ’ से निकलकर बाहर आ गया.
“लगता है, नागरिकों, कि वाकई में व्यापारी का पर्स छीन लिया गया है.”
परदा गिरा दिया गया. मेरे लिये जार में पानी लाये. पिलाया.
“भाईयों,” मैंने कहा, “डाइरेक्टर, इवान पालिच. ये सब क्या है. नाटक के दौरान किसी ने पेरा पर्स निकाल लिया.”
शौकिया कलाकारों की तलाशी ली गई. मगर, सिर्फ पैसे ही नहीं मिले. और खाली पर्स को किसी ने झाड़ियों में फेंक दिया.
पैसे, वैसे ही ग़ायब हो गये. जैसे जल गये हों.
और आप कहते हैं – कला? पता है! हम भी हिस्सा थे!”