एक विधवा की आत्म कथा
एक विधवा की आत्म कथा
"विधवा " यह शब्द कुछ ऐसी है कि जो सिधा जाकर दिल को चुभती है... जब कि यह ही मेरी वास्तविकता हैं ... हकीकत है...जिसे मैं हर पल जी रहीं हूं ,... न जाने क्यों विधवा संबोधन से दिल मे एक अजीब सा खालीपन .. एक अजीब सा दर्द होता है... यही मेरी सच्चाई है... फिर भी मैं यह भूलकर रहना चाहतीं हूं..
कितनी अजीब बात है न... पर यही सच है...
आज समाज में विधवाओं के प्रति नजरिया बहुत बदल चुका है .. पहले जैसे कुछ भी नहीं रहा.. फिर भी कुछ कुछ जगहों पर ऐसी परिस्थिति आ जाती है कि खुद को सहज रखना मुश्किल होता है... खासकर के कोई भी तीज त्यौहारों में या फिर शादी में ... जहां सुहागनें आगे बढ़ चढ़कर कर सब कुछ करतीं हैं... वहां पे हम जैसों का कोई काम नहीं रहता है... एक कोने में सिर्फ दर्शक बनकर खड़े रहते हैं... तब अपने आप में बहुत ज्यादा असहज महसूस होता है.. ऐसा लगता है मैं इन लोगों से बहुत ही अलग हूं... जैसे कोई अपराधी .. और इन लोगों के बीच रहने का मेरा कोई अधिकार नहीं है..उस समय मन करता है सबके नजरों से दूर कहीं जाकर छुप जाऊं .. ताकि कोई भी मुझे देख न सके... पर हर वक्त ऐसा करना संभव नहीं होता अपमान का घूट पी कर रहना पड़ता है.... आखिर कर भी क्या सकते... एक विधवा आखिर विधवा ही होती है.. अब यह सब की धीरे धीरे आदत सी पड़ गई है.. समय के साथ साथ..
सच कहूं तो अब दिल से भी यह मानने लगीं हूं..
कोई भी शुभ कार्य में विधवाओं का हिस्सा लेना अपशगुन होता है..
आखिर एक विधवा की औकात ही क्या है...वो.तुच्छ और अबला होती है... भले ही इस बात का एहसास मुझे परिवार वालों ने कभी नहीं दिलाया आजतक.. पर हमारे आसपास कुछ कुछ ऐसे भी इंसान होते हैं जो इस बात एहसास दिला देते हैं..
जिनके नजरों में कभी मेरी बहुत इज्जत हुआ करती थी पर आज वे देख कर नज़र चुरा लेते हैं.. अनदेखा कर देते हैं जैसे उनके के लिए ... मेरे होने या फिर न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता..... तकलीफ़ होती है ...बहुत ज्यादा तकलीफ़ होती है...उस समय....पर कोई न.. अब आदत सी पड़ गई है ...
मैं आज भी पूरे मान सम्मान और अधिकार के साथ ससुराल में रहती हूं ..जब इनका स्वर्गवास हुआ था . आज से18 / 19 साल पहले.तब मेरे बच्चे बहुत ही छोटे थे और मेरी उम्र भी ज्यादा न थी..... पर मुझे ससुराल का पूरा सपोर्ट मिला ... मेरे बच्चों को परिवार के सभी ने भरपूर प्यार दिया . . आज भी करते हैं... उनके परवरिश में कोई भी दिक्कत न आने दी कभी ... मैं भी जितना हो सके उतना परिवार के लिए .. परिवार वालों के लिए करने की कोशिश करतीं हूं... कभी भी कोई चीज के लिए मांग कि न ही कभी भी कोई भी चीज पे अपना हक़ जताया.. जो मिल जाए वही ठीक..सच बोलूं तो मेरी जैसे सारी इच्छाएं मर चुकी है... न खाने पिने की
न सजने संवरने की .. मन नहीं करता... अंदर से इच्छा नहीं होती... ऐसा नहीं है कि मैं एक विधवा हूं इस लिए मेरा सजना संवरना किसी को पसंद नहीं है
उल्टा मेरे परिवार वाले गुस्सा करते हैं मैं साधारण सी रहतीं हूँ इस लिए..जो भी थोड़ा बहुत करतीं हूं वह परिवार वालों के खातिर और खासकर के बच्चों के खुशी के लिए करतीं हूं..
एक मां को और क्या चाहिए.. बच्चे खुश तो मां भी खुश... आखिर जींदा भी तो मैं इनके खातिर हूं..बच्चों की अच्छी परवरिश कर उनको लाइफ में सेटल करना अब मेरे जीवन का एक मात्र उद्देश्य रह गया है..
इस लिए मैंने कभी भी मेरे और मेरे बच्चों के बीच तीसरे को आने नहीं दिया.. ... मुझे दूसरी शादी के लिए बहुत समझाया गया था.. पर मेरे जींद के आगे सब हार मान गए...
बच्चों के जीवन में सौतेलेपन का साया कितना दर्दनाक होता है यह मैंने बहुत करीब से देखा है.. फिर वोही तकलीफ़ मैं अपने बच्चों को कैसे जानबूझ कर दे दूं..
हां मैं एक मां के साथ साथ एक औरत भी हूं ... मुझे भी हर औरतों के तरह कभी कभी कुछ इच्छाएं होती हैं ... . मेरे अंदर की औरत थी अपनी शारीरिक प्यास बुझाने के लिए कभी कभी बहुत मचल उठती है...पर नहीं... मैंने हमेशा इच्छा को सिर्फ इच्छा ही बना कर रखा है..
पर अगर अपनी दिल की बात कहूं तो.. ऐसा नहीं मुझे कभी भी एक साथी की कमी महसूस नहीं हूई.. बहुत होती है.. पहले ही होती थी.. आज भी होती है...
मेरा दिल भी प्यार चाहता है.. प्यार के लिए तड़पता है..दिल को भी एक साथी चाहिए.. भरपूर प्यार चाहिए...प्यार मतलब शारीरिक संबंधो वाला प्यार नहीं.. निःस्वार्थ प्यार.. जिसमें सिर्फ दो आत्माओं का मिलन हो ..न कि दो शरीर का .... जो मुझे और मेरी भावनाओं समझ सकें.. मेरा भी मन करता है
इस दुनिया में मेरा भी कोई अपना हो..जिसके कंधे पर सर रख कर मैं भी सुकून भरी पल दो पल बीता सकूं...
