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S D

Tragedy

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23 July .... अधूरा सफर

23 July .... अधूरा सफर

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घड़ी में दोपहर के दो बज रहे थे। मैं रसोई में खाना बनाने में व्यस्त थी। तभी दरवाजे की आहट हुई, और मेरे पति, राज, हड़बड़ाते हुए अंदर आए। आते ही जोर से आवाज लगाने लगे—

"सुमन! सुमन! कहां हो? जल्दी से कमरे में आओ!"

मैं घबराई, हाथ का काम छोड़कर भागी-भागी कमरे में गई।

"क्या हुआ? आप इस समय घर पर? और मुझे क्यों बुला रहे हैं?" मैंने सवाल किया।

राज को इस वक्त घर में देखकर मुझे कुछ अजीब-सा लगा। जितनी देर वो घर में होते हैं, बस मुझे परेशान करते रहते हैं। शादी को पाँच साल हो चुके थे और तीन साल की बेटी थी हमारी, घर के कामों से फुर्सत मिलती ही कहां थी? लेकिन राज को मेरी व्यस्तता से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर मैं न दिखूं, तो घर सिर पर उठा लेते हैं।

माँ (सासू माँ) हंसकर कहतीं, "जा सुमन, तेरा पति बुला रहा है, नहीं तो पूरा घर सिर पर उठा लेगा। बाकी काम मैं देख लूंगी।"

मैं शर्मा जाती और कहतीं.." क्या मां आप भी न"..

और जल्दी से कमरे में चली जाती। मुझे मालूम है मै जब तक रूम में नहीं आऊंगी तब तक राज यूंही हल्ला करते रहेंगे और मां भी मुझे छेड़ती रहेंगी..

कमरे में आते ही राज ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और मेरे गाल पर हल्की-सी किस कर दी। मैं झटके से अलग हुई—

"ये सब छोड़िए और बताइए, आप इतनी जल्दी घर क्यों आ गए?"

"मुझे बहुत जरूरी काम से बाहर जाना है, दो दिन लगेंगे। ज़रा मेरा सामान पैक कर दो।"

मैंने जल्दी-जल्दी उनका बैग पैक किया और पूछा—

"आपका खाना?"

"माँ से कह दूँगा, वो परोस देंगी," कहकर राज बाहर चले गए।

अचानक, गुड़िया के रोने की आवाज आई। मैं दौड़कर बाहर आई। माँ उसे गोद में लेकर चुप करा रही थीं और राज खाना खाते हुए माँ से कह रहे थे—

"आप बेवजह चिंता करती हैं, माँ!"

मैंने माँ की ओर देखा और कहा, "आपको मालूम है, राज इस बारिश में खुद कार ड्राइव करके जा रहे हैं?"

माँ कुछ बोलतीं, उससे पहले ही राज बोले—

"कोई ट्रेन नहीं है अभी, और देर की तो काम हाथ से निकल जाएगा।"

"पर…" मैं कुछ कह पाती, उससे पहले ही राज ने बात काट दी—

"अब कोई पर-वर मत लगाओ। मुझे वैसे ही देर हो रही है।"

जल्दी से खाना खत्म करके, उन्होंने गुड़िया को गोद में उठाया और प्यार से कहा—

"पापा बहुत सारे खिलौने लाएंगे!"

गुड़िया अब भी सुबक रही थी। पापा जी भी बाहर आ चुके थे। राज ने उन्हें गुड़िया पकड़ाई और बोले—

"संभालिए अपनी पोती को, मुझे निकलना है!"

बैग उठाया, सबको "बाय" कहा और चले गए। माँ अब भी चिंतित लग रही थीं। पर मैं जानती थी, राज की जिद के आगे कुछ कहना बेकार था।


राज को गए दो घंटे हो चुके थे।

माँ-पापा अपने कमरे में आराम कर रहे थे। गुड़िया भी सो चुकी थी। मेरा सारा काम खत्म हो गया था, तो मैं भी उसके पास लेट गई।

राज के बारे में सोचने लगी.. सही मे शादी के इतने साल हो गए फिर भी राज का प्यार थोड़ा सा भी कम नहीं हुआ.. कितनी लकी हूं मैं । सोचते सोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला।

अचानक फोन की रिंग से मेरी नींद खुली ..देखा कि स्क्रीन पर राज का नाम चमक रहा .. जल्दी से मुस्कुराते हुए मैंने फोन को रिसीव कर राज को छेड़ते हुए कहा ..

"क्या हुआ जानू? इतनी जल्दी मिस कर रहे हो? फिर दो दिन कैसे रहोगे?"

पर दूसरी ओर से किसी अजनबी की घबराई हुई आवाज आई—

"हेलो, आप कौन बोल रही हैं?"

मैं चौंक गई। फिर सोचा, शायद राज की कोई नई शरारत है।

"राज, आवाज बदलकर मज़ाक मत करो!"

लेकिन फोन में वही घबराई हुई आवाज आई—

"मैं मज़ाक नहीं कर रहा। यहाँ एक कार का भयानक एक्सीडेंट हुआ है। ड्राइवर की मौके पर ही मौत हो गई। ये फोन उनकी जेब में मिला। मैंने इसी नंबर पर कॉल किया है।"

शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे…

"एक्सीडेंट… स्पॉट डेथ…"

मेरे हाथ से फोन गिर गया। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। गला सूखने लगा। किसी तरह कांपते हुए माँ को पुकारा—

"माँ!"

और फिर बेहोश होकर गिर पड़ी।

जब होश आया, तो देखा… माँ रो रही थीं, पापा सिर झुकाए बैठे थे। गुड़िया मेरी गोद में थी, मगर अब भी रोए जा रही थी।

और राज…जो मुझे एक सेकेंड के लिए दूर होने नहीं देते थे वो राज मुझे सच में छोड़कर बहुत दूर जा चुके थे।


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