एक सुखद मोड़ - भाग ४
एक सुखद मोड़ - भाग ४
सुबह विशम्भर जब उठा तो वो एक बदला हुआ इंसान था। वो ये देखना चाहता था की संसार की ये कैसी माया है और संसार कितना विचित्र है। उसे अब बहुत उत्सुकता हो रही थी की अपने गांव जाये और जा कर वहां क्या हो रहा है उसे देखे और अपने पुराने कर्मों का प्रायश्चित करे। इन दस दिनों में विष्णु के घर में उसने कुछ ग्रन्थ भी पढ़ लिए थे। उसे पता था कि उसका गांव काफी दूर है पर उसने ये सोच लिया था की मैं ये यात्रा पैदल ही करूंगा और रास्ते में लोगों से कुछ न कुछ सीखने को ही मिलेगा।
स्नान करने के बाद उसने विष्णु से जाने की इजाजत मांगी और कहा अब मैं आगे जाऊँगा। विष्णु ने भी उसे नहीं रोका। वो और उसकी पत्नी उसके चरण स्पर्श करके प्रणाम करने लगे तो उसने उन्हें रोक दिया। बल्कि वो उन्हें मन ही मन प्रणाम कर रहा था और सोच रहा था कि असली साधु तो वो लोग हैं, मैं तो बस वेश से ही साधु हूँ। उसकी आँखें भी भर आईं थी। वो भावुक हो रहा था इसलिए वहां से जल्दी से चल दिया।
रास्ते में जब भूख प्यास लगती तो कोई न कोई उसे भिक्षा दे दिता। उसे अब मांगने में भी कोई शर्म नहीं आ रही थी। रात में कोई मंदिर दिखता तो रात वहां गुजार लेता या कभी कभी सड़क किनारे भी सो जाता। अब उसका डर भी काफी ख़तम हो गया था। करीब दो हफ्ते बाद वो अपने गांव पहुंच गया। उस वक्त वो काफी थका हुआ था। भूख प्यास से भी बेहाल था। वो एक खेत में से जा रहा था कि बेहोश होकर गिर पड़ा। जब उसे होश आया तो एक किसान की गोद में उसका सर था। ये वही शंकर था जिसकी जमीन उसने कुछ महीने पहले छीनी थी। ये खेत भी वही था जो उसने शंकर से छीना था। शंकर उसे पहचान ना सका और पूछा बाबा, आप कौन हो और कहाँ जाना है। विशम्भर बोला, मैं तो एक साधु हूँ और यहाँ से बस गुजर रहा था। शंकर ने उसे पानी पिलाया और जो रोटी वो लेकर आया था उसमें से आधी विशम्भर को दे दी। विशंभर सोचने लगा कि गरीब मैं हूँ कि ये शंकर जिस के पास जो थोड़ा सा भी है वो बाँट रहा है और एक मैं था जो बहुत कुछ होते हुए भी बांटना तो दूर, दूसरों से छीनने में लगा रहता था।
बातों बातों में विशंभर ने शंकर से पूछा कि इस गांव का मुखिया कौन है। शंकर उसे बतलाता है कि मुखिया तो तीन महीने पहले से लापता है। उसके बेटों ने शुरू में तो कुछ दिन उसे ढूंढ़ने की कोशिश की पर अब तो वो उसे मरा हुआ ही मान रहे हैं। उसने ये भी बतलाया कि वो बहुत क्रूर किस्म का आदमी था और उसके जाने के बाद उसके बेटों में लड़ाई झगड़ा होता रहता है। दोनों बड़े बेटों ने सबसे छोटे बेटे को हवेली से निकल कर एक छोटा सा घर दे दिया है। माँ भी उसी के साथ रहती है। बड़े बेटे भी अपने पिता की तरह ही क्रूर हैं पर छोटा बेटा साधारण है और मन का साफ़ है। वो माँ की भी बहुत सेवा करता है और गांव वालों की भी जो हो सकती है मदद करता है। विशम्भर सोच रहा था की जिसे वो नाकारा बेटा समझता था वही शायद उसका सबसे अच्छा बेटा है।
सुनते सुनते उसकी आँखों में आंसू आ गए। शंकर बार बार उसे क्रूर कह रहा था पर उसे बुरा नहीं लग रहा था। उसे तो लग रहा था कि जो कर्म उसने किये हैं उसका फल तो इससे भी बुरा हो सकता है। विशम्भर ने शंकर से पूछा कि वो इस गांव में कुछ दिन रुकना चाहता है तो वो कहाँ पर रुक सकता है। शंकर उसे गांव के बाहर मंदिर में ले गया। बगल में एक खाली कुटिआ थी। मंदिर के पंडित से बात करके साधू रुपी विशम्भर को वहां रहने के लिए दे दी। विशम्भर अब सोच रहा था की आगे क्या किया जाये। सोचते सोचते उसकी आँख लग गयी।
