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Arya Jha

Drama

4  

Arya Jha

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एक पिता की वापसी

एक पिता की वापसी

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आज समुद्रतट पर रंगीन गुब्बारों के साथ दौड़ती मिली को देख मन असीम आनंद से ओत-प्रोत हो गया। उसके पीछे सफेद कपड़ों में एक पुरुष भी था और साथ थी दीप्ति, मिली की माँ। उसने बढ़कर मेरा परिचय कराया। "ये विशाल हैं, मिली के पिता और ये मिली की क्लासटीचर !" "अरे आप यूँ कहें कि आपके पति हैं" मैंने मुस्कुराकर उनका अभिवादन किया। "पति-पत्नी ही थे जबतक दीप्ति आपसे ना मिली थी। अब हम माता-पिता हैं। हम दोनो को मिली के प्रति जिम्मेवारियों का अहसास कराने और हमारी गृहस्थी बचाने के लिए आपका दिल से आभार!" इस बार विशाल ने कहा।

"सच ! आपसी विरोधों ने दिमाग खराब कर दिया था। मुझे तो पता ही ना चला कि मैंने ही इस मासूम के चेहरे की मुस्कान छीन ली थी। आपकी जितनी तारीफें करें कम है। आप जैसी शिक्षिकाएँ ही मोमबत्ती के समान स्वयं जलकर दूसरों के जीवन में प्रकाश भरती हैं।" दीप्ति की बातें सुन मैं झेंप गयी।

"इतनी तारीफ ना करें, मैंने तो अपना फ़र्ज़ निभाया।" बस यही कहकर निकल गयी, मुझे जो चाहिए था वो मिल गया था हँसिनी सी कुलाँचे भरती वह माता-पिता को अपने दोनों हाथों से थामे, अपनी दुनिया में मस्त थी। ऐसा ही तो मैने उसे देखना चाहा था। आज उसे देखकर फिर से उन दिनों में खो गयी जब मैं उसे पहली बार मिली थी।

मिली एक बेहद मासूम कली सी मात्र चार वर्ष की लड़की जाने कैसे दिल के बहुत करीब आ गयी थी। नर्सरी स्कूल में काम करते हुए मुझे पंद्रह साल हो गये थे पर मिली जैसी बच्ची पहली बार मिली। ऐसे तो सभी बच्चे मासूम होते हैं पर वह अलग थी। चुपचाप बैठी रहती या ड्रॉइंग करती रहती। किसी से कोई बातचीत ना थी उसकी। दूसरे बच्चे कोशिश करें तो उसकी नाराजगी देख दूर हो जाते थे। ये सेशन खत्म होने वाला था और सिर्फ मैं ही उसकी दोस्त थी। उसकी चिंता रहने लगी तो ग्रीष्मावकाश के पहले डायरी में लिखकर उसकी मम्मी को बुलाया।

पूरे घंटे भर हमारी बातें हुईं। दीप्ति ने बताया कि एक साल पहले वह अमेरिका में थी। जब मिली 2 वर्ष की थी तब उसने अपना दूसरे बच्चे को जन्म देने के दौरान खो दिया था, कुछ जटिलतायें थीं| विशाल, उसके पति ने उसकी जान बचाने पर ज़ोर दिया| उस घटना के बाद से दूरियाँ बनाने पर वह अपना परिवार पूरा करना चाहती थी। अपने माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण जो अकेलापन उसने झेला था वह बेटी को नहीं देना चाहती थी। पर पति दूसरे बच्चे के लिए उसके जीवन पर दांव खेलने के लिये हरगिज़ तैयार ना हुए| पूरे एक वर्ष तक लगातार जद्दोजहद के बाद भी आपसी सामंजस्य ना बन सका| नतीज़ा पति-पत्नी में मतभेद कुछ ऐसे बढ़े कि नौबत तलाक़ तक आ गयी और वह बच्ची को लेकर माँ के घर देश लौट आई।

मुझे उसकी बातों से खास अचरज ना हुआ।

बस मिली की खामोशी की वजह पता लग गयी थी। शायद मैं मानसिक रूप से इसके लिए तैयार भी थी। सबसे पहले स्कूल कबर्ड से निकाल कर उसकी सभी ड्रॉइंग्स सामने रख दीं। जहाँ वह मम्मी-पापा के साथ थी और बेहद खुश थी। बाद वाले ड्रॉइंग्स में माँ का हाथ पकड़े उदास थी। उसे मेरी बात समझ मे आयी या नहीं कह नही सकती, पर कहना मेरा काम था।अखिर मिली के तरफ से किसी को तो आना था। यह बीड़ा मैने उठा लिया था।

"मैं जो कहने जा रही हूँ हो सकता है आपको बुरा लगे मिसेज़ दीप्ति| मुझे ठीक से पता नहीं कि आप पर क्या गुज़री और वह कितना दुखद अनुभव था पर मिली अबोध उम्र में जिस अवसाद से गुज़र रही है उसके लिए आप जिम्मेदार हैं। पहले आपका मुद्दा आपकी बेटी के तनहाइयों को दूर करना था पर अभी तो मुझे आपके आपसी अहं का मसला लग रहा है। आप मिली की ओर देखें अभी इसके आगे लम्बा जीवन है| माना एक सिबलिंग होना चाहिए पर इस चाहत की पूर्ति ना होने पर उसे उसके पिता से अलग कर उसकी कितनी बड़ी खुशी छीन रहीं हैं आप!"

आँखे बहने लगी थी हमदोनों की, मिली को पहले ही मैंने प्ले एरिया में आया माँ के साथ भेज दिया था।

दीप्ति ने हाथ जोड़ कर कहा :-"आपने मेरी आँखें खोल दीं। वाकई मेरा इगो ही था जो पति की बातों का ग़लत अर्थ लगाया। आखिर वह भी तो डर गए थे तभी उन्होंने हम तीनों की भलाई देखते हुए खुद को सयंमित कर लिया| मुझे उनकी बातें पसन्द ना आयीं, मैंने उनकी चिंताओं को अपने अहं पर वार के रूप में लिया और तलाक के कागजात भिजवा दिए।"

"ये तो अच्छी बात है कि अब आप अपनी गलती समझ गयीं।

मिली के हित में कुछ ज़्यादा बोल गयी तो क्षमा करें। आपके सुखी दाम्पत्य की प्रार्थना करूँगी ताकि मेरी स्टूडेंट मिली को अन्य बच्चों की ही तरह हँसती-खिलखिलाती देख सकूँ।"  

भारी मन से उस दिन विदा लिया था पर आज उस छोटे से परिवार की हँसी-खुशी ने जैसे मेरे सांसों में प्राण फूँक दिए थे। उन्हें खुश देखकर मैं जी उठी थी। कहने के लिए तो कितनों से कितनी ही हितकर बातें कहा करती थी पर दीप्ति ने मेरे कहे का मान रख मुझे भी अनुगृहित किया था। उसने एक गलत फ़ैसले को बदलकर तीन जिंदगियों को बचा लिया। एक पिता के परावर्तन ने तीनों का जीवन परिवर्तित कर दिया था।

सच तो यह है कि सुबह का भूला शाम को लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते।

अंततः मेरा उद्देश्य पूरा हो गया था। बागवान के समान अपने उपवन के फूलों को खुश देखकर हर्षित थी। वैसे तो हर साल छुट्टियों की प्रतीक्षा रहती थी पर अब स्कूल खुलने की भी तेजी से राह देखने लगी थी। अपनी प्यारी मिली के बदले रूप से मिलने की उत्कंठा थी।


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