एक एस एम एस स्टोरी

एक एस एम एस स्टोरी

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एक दिन उसने मुझसे कहा “मुझे पटाखों से बहुत डर लगता है। मैने कहा-  “अगर मैं पटाखा फूटते हुए देख लेता हूँ तब डर नहीं लगता लेकिन अचानक मेरे करीब कोई पटाखा फोड़े और मुझे पता न हो तो मुझे बहुत गुस्सा आता है।” उसने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे वह कुछ और सुनना चाहती हो मुझसे। मैं जानता था वह मुझसे अक्सर कुछ विशिष्ट सुनना चाहती थी। उसका आशय समझकर मैने कहा- “ हो सकता है, जब भीतर का शोर समाप्त हो जाता है बाहर की हर आवाज़ साफ सुनाई देने लगती है जिनमें कुछ आवाज़ें डराती भी हैं और शोर तो लगभग असहनीय हो जाता है।” मुझे नहीं पता कि पटाखों से उसका यह भय बचपन से ही उसके जीवन में शामिल था या पिछले दिनों ऐसा कोई हादसा हुआ था। अक्सर ऐसे फोबिया बचपन में ही जन्म लेते हैं। लेकिन मैने कभी इस बारे में विस्तार से नहीं जानना चाहा।

दीवाली पर मैं उसके शहर से दूर अपने शहर में था। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि उसके और मेरे शहर से दूर अपने पैतृक शहर में था। दीवाली की रात घर की चारदीवारी पर चिराग़ रखते हुए मुझे उसके घर की बाउंड्री वाल याद आ गई जिसे देखते हुए मैं अक्सर उस सड़क से गुजरता था। पता नहीं वह उस वक़्त उस पर उस पर चिराग़ रख रही थी या नहीं। उसके धर्म में इस तरह दूसरों के त्योहारों पर दिये जलाने की मनाही  थी।

पर्व की बधाई देने का मेरा मन तो था लेकिन मुझे लगा कि वह बुरा न मान जाये, आखिर वह उसका पर्व तो नहीं था फिर भी मन नहीं माना, मैंने अपनी कल्पनाओं के दीप जलाये और मोबाइल पर एक एस एम एस उसे भेज दिया।

जला सको तो अवश्य जलाना

आंधियों से उसे बचाना

बस इतना भर याद रहे

किसी का दीपक नहीं बुझाना

और हाँ... पटाखों से नहीं डरना

दीवाली के बाद मैं अपने शहर से फिर अपने शहर लौट आया। यह इसलिये कह रहा हूँ कि लौटने के बाद उसने पूछा था ..” आ गये अपने शहर से? “यह वे दिन थे, जब हवाएँ अपना तेवर बदलने लगी थीं और मौसम में हल्की ठंडक छाने लगी थी। शहर ने अपने आप को दुनिया के आंगन में एक दीवार पर टांग लिया था और ठंड का स्वागत करने की तैयारी के साथ-साथ बरसात की नमी दूर करने के लिये अपने आप को धूप दिखाने लगा था।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि ठंड में दिन बहुत जल्दी बीत जाता है। शाम समय से पहले आ जाती है और अन्धेरा न केवल अपने अंधेरेपन से बल्कि अपने ठंडेपन से भी डराने लगता है। उन दिनों वह एक लबादेनुमा कोट पहन कर आने लगी थी। उसे देख कर मुझे अनायास टॉलस्टाय की अन्ना कैरेनिना याद आ जाती जो गिरती हुई बर्फ के बीच जीवन और मृत्यु दोनों में से किसी एक को अपनी मंज़िल के रूप में चुनने के पशोपेश में रहती थी। हालाँकि उसके लिए अपना जीवन ज़रूरी था क्योंकि उससे जाने कितनी ज़िंदगियाँ जुड़ी थीं।

वह सोलह दिसम्बर की सुबह थी और ठंड और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक थी। बिस्तर से बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा था पर दफ्तर जाना ज़रूरी था। गर्दन तक रज़ाई ओढ़े मैं उन लोगों के बारे में सोच रहा था जो इस कड़कड़ाती ठंड में भी आसमान तले इस  धरती के बिछौने पर अपनी रातें बिताने को विवश थे। मुझे विष्णु नागर की “ईश्वर की कथाएँ” संग्रह से एक कहानी याद आई जिसमें आदमी ईश्वर से पूछता है “भगवन आपको ठंड अच्छी लगती है, गर्मी या बरसात?” और ईश्वर उसे जवाब देते हैं “मूर्ख यह सवाल ग़रीबों से करते हैं ईश्वर से नहीं।” मेरा मन हुआ कि यह कहानी किसी को सुनाऊँ और उस वक़्त कोई करीब नहीं था।

जैसे बच्चे कागज़ की नाव बनाकर पानी में छोड़ देते हैं, मैंने इस कहानी का एक एस एम एस बनाया और उसे भेज दिया। मुझे पता था वह इसे पढ़कर मुस्करा रही होगी।

उस शाम उसकी सहेली आ गई और वह अपना काम जल्द समाप्त कर कहीं जाने की तैयारी करने लगी। उसने अपनी सहेली से मेरा परिचय करवाया .. “मीट सुकीर्ति।”   मैने औपचारिकता वश पूछा “कहीं जाने का प्रोग्राम है क्या?” “हाँ” उसने कहा। “हम लोग नेपाली मार्केट से स्वेटर खरीदने जा रहे हैं।’’ “क्यों, तुम लोग स्वेटर बुनते नहीं हो?” मैंने पूछा। वह मुस्करा दी। मुझे उसकी मुस्कान टी.वी. पर स्वेटर के विज्ञापन में दिखाई देने वाली लड़की की मुस्कान की तरह दिखाई दी जो कह रही हो... भूल जाइए वो दादियों-नानियों का स्वेटर बुनने का ज़माना... हमारी कंपनी के बने खूबसूरत रेडीमेड स्वेटर खरीदिये।

वह बीस दिसम्बर की कंपकंपाहट से भरी शाम थी। मैं घर लौटते हुए नेपालियों के गर्म कपड़ों के मार्केट के सामने से गुजरा। हर साल नेपाल की ओर से यह तिब्बती और नेपाली व्यवसायी आते थे और शहर के एक मैदान में अपना अस्थायी डेरा जमा लेते थे, इस उम्मीद में कि ठंड इस साल ज़्यादा पड़ेगी और उनके व्यवसाय में वृद्धि होगी लेकिन ठंड तो साल-दर-साल कम होती जा रही थी। मेरा मन हुआ कि मैं भी भीतर जाऊँ। एक स्वेटर खरीदने की इच्छा तो मेरी भी थी। मुझे याद आया बरसों पहले  मेरे लिये किसी ने एक स्वेटर बुना था। अब मेरे पास न वह स्वेटर था न उसकी यादें। स्वेटर मैं किसी जरूरतमंद को दान कर चुका था और स्मृतियाँ किसी पुराने कपड़े की तरह अपना रंग खो चुकी थीं। उसकी याद आई तो मन किया किसी से शेयर करूँ। सो मोबाइल की बटनों पर अनायास ही उंगलियाँ  चलती गईं और स्क्रीन पर उभरी यह कविता...

वो स्वेटर ऐसे बुनती थी

मानों ख्वाब बुनती थी

न की उष्मा में महसूसती

ज़िन्दगी के नर्म गर्म खयाल

अब उसने छोड़ दिया है ख्वाब बुनना

और स्वेटर वो बाज़ार से खरीदने लगी है।

न जाने किस-किस के बिम्ब में उसके बिम्ब को प्रत्यारोपित कर मैने भी ख्वाब बुनने शुरू कर दिये थे। उसके माथे की बिन्दी में मैं चांद देखने लगा था और उसकी खिलखिलाहट में झरनों की आवाज़। उस दिन वह बिन्दी लगाकर नहीं आई। मुझे लगा शायद घर वालों ने मना किया हो... धर्म और सौन्दर्यबोध का क्या मेल?  लेकिन संकोच का स्थायी भाव मुझे रोकता रहा। उस रात जब अचानक नींद खुली तो मैं बाहर आंगन में निकल आया ..” अरे.. चांद कहाँ गया। चांद या तो निकला नहीं था या डूब गया था, लेकिन मेरे सुबह के एस एम एस में वह मौजूद था कुछ इस तरह-

कल चांद गायब था आसमान से

और आसमान

चांद बगैर बेहद उदास

अब कोई वादा तो नहीं था

चांद का आसमान से

कि वो निकलेगा ही

और होता भी

तो क्या ज़रूरी था

उसे निभाना

मेरे आसमान जैसे वजूद को उदासी ने ढाँक लिया था उस दिन, जैसे बादलों ने ढाँक लिया था आसमान। सर्द हवाओं का सामना करते हुए रोज़ वह अपनी मोपेड में आती थी और फिर दिन भर नौकरी करते हुए फेफड़ों से उन ठण्डी और गीली हवाओं को निकालने की कोशिश में खाँसती। खाँसते खाँसते उसकी आँखों में पानी आ जाता। मैं उस पानी में अपना अक्स देखने की कोशिश करता तो वह मुस्कराती और फिर फिर खाँसती। मैं उससे कुछ नहीं कहता था। मन करता था कि उसके लिये कोई अच्छा सा कफ सिरप ले आऊँ। लेकिन कवि हूँ ना इसलिये बस सोचता था और मोबाइल पर उसे एस एम एस भेजता था।

फिज़ाएं थरथराती थीं

चौंकती थी दिशाएं

सागर का पनीलापन छलकता था

उसकी आँखों में

सारी कायनात सिमट आती थी

उसके इर्द-गिर्द

हवाओं सी खाँसती थी जब वो

वह क्रिसमस की पूर्व सन्ध्या थी और मैं चाहकर भी उसके लिये कफ सिरप नहीं ला पाया था। मुझे लगता था कि उसका खयाल रखने वाले तो बहुत लोग हैं। इसी शहर में उसके माता-पिता, सास-ससुर, पति, बहन और भी बहुत सारे रिश्तेदार। आखिर उसका जन्म यहीं हुआ था और यहीं वह पली-बढ़ी थी।

 उसके बारे में सोचते हुए मुझे अपनी यायावरी का खयाल हो आया, शहर दर शहर की ठोकरें याद आ  गईं। मैने सोचा अनेक जगहों पर भटकते हुए मैने कितना कुछ खोया है। इसे वे लोग कदापि नहीं समझ सकते जिनका सब कुछ एक ही शहर में बीतता है। मुझे लगा उसे इस बात का अहसास दिलाना चाहिये कि वह कितनी खुशनसीब है। मैने घर लौटकर उसे एस एम एस किया।

जिस शहर में जन्म

उसी शहर में बचपन

वहीं प्यार वहीं शादी वहीं मायका

वहीं ससुराल वहीं नौकरी

इसे अगर नसीब कहते हैं

तो तुम खुशनसीब हो

 क्रिसमस का अवकाश था और उससे मुलाकात सम्भव नहीं थी। नौकरी की अपनी सीमाएँ होती हैं अपनी समस्याएँ। फिर उन दिनों यूनियन भी अपने मेम्बर्स को कुछ ज़्यादा ही परेशान कर रही थी। एक दिन पहले उसने इस बात का ज़िक्र मुझसे किया था कि उसे तबादले की धमकी दी जा रही है। उसकी यह परेशानी जाने कैसे मेरी क्रिसमस की बधाई में शामिल हो गई। बहुत पहले पढ़ा हुआ किसी शायर का एक शेर मैने उसे एस एम एस किया

जो लोग मसीहा थे हिमालय पे बस गये

सूली से हमने रोज़ उतारी है ज़िन्दगी

मुझे लगा कि इतना रूपक काफी नहीं है सो एस एम एस के अंत में मैने लिखा... मसीहा यानि हमारे नेता, हिमालय मतलब बड़े शहर और सूली मतलब नौकरी... मेरी क्रिसमस। उसका जवाब भी बड़ा मज़ेदार आया। “मेरी क्रिसमस, आपकी क्रिसमस हम सबकी क्रिसमस अब बताइये उसका रूपक बड़ा था या मेरा।”

उस रात देर तक जागता रहा है मैं और सितारों में सांताक्लाज़ को ढूँढता रहा। ऐसा लगा जैसे वह अपना चोगा पहने हुए मेरे आंगन में उतरेगा और कहेगा “इस बार तुम्हारे लिये एक सुख की सौगात लेकर आया हूँ।” लेकिन सांताक्लाज़ तो एक रात पहले ही आकर जा चुका था और हर बार की तरह इस बार भी मेरे पास पहुँचने तक उसकी झोली खाली हो चुकी थी।

अचानक मोबाइल पर मैसेज इनकमिंग की रिंगटोन बजी। मुझे लगा शायद सांताक्लाज़ ने मेरे लिये  कोई मैसेज भेजा है। बहुत ही चौंकाने वाला था वह मैसेज ..इसे आज से छह दिन बाद खोलिएगा ... मैने जॉयस्टिक नीचे की, एक लम्बा सा गैप... फिर उभरे कुछ अक्षर... लिखा था... मुझे मालूम था, आपमें इतना धैर्य नहीं है, खैर नये साल की बधाई। लेकिन याद रहे नये साल की बधाई देने वालों में मैं फर्स्ट हूँ। “ओह तो यह बात है नया साल आने में अभी छह दिन बाकी हैं। मैं जानता था यह शरारत से भरा मैसेज है लेकिन मैने सचमुच उसकी इस सद्भावना को पूरी गम्भीरता से लिया और जवाब में हिन्दी की टाँग तोड़ते हुए ताजा ताजा इंट्रोड्यूस हुई हिंगलिश में उसे लिखा...

रिसीव्ड योर मैसेज जस्ट

ऑफकोर्स यू आर फर्स्ट

लेकिन थोड़ा है कष्ट

वेयर आल आर वर्स्ट

तुम सदा रहो फर्स्ट

चमकती रहो गोल्ड सी

तुम में न लगे रस्ट 

वह सचमुच ढेर सारे धुंधले सितारों के बीच एक चमकता हुआ सितारा थी और मैं चाहता था कि वह इस बुलंदी पर ध्रुव तारे की तरह अटल रहे। “यह ध्रुवतारा कहाँ दिखाई देता है आसमान में?” एक दिन उसने पूछा था। मैने बताया सप्तर्षि के ऊपरी दो तारों को मिलाकर एक सरल रेखा खींचो वह जहाँ जाकर ठहरेगी वहीं दिखाई देगा ध्रुव तारा। सप्तर्षि अपना स्थान बदलते रहेंगे लेकिन ध्रुव वहीं रहेगा। उस रात घर लौटकर मैने सप्तर्षि और ध्रुव तारे की स्थिति बताते हुए उसे एक एस एम एस किया।

दिसम्बर की वह आखरी तारीख थी और मैं बीतते हुए साल के गम में बेहद उदास। साल के आखरी दिन मैं आदतन उदास हो जाता हूँ। पूरा साल एक फिल्म की तरह मेरी आँखों के आगे से गुजरने लगा। मैं सोचता रहा किसे अपनी इस मनःस्थिति में शामिल करूँ। फिर मुझे उसका खयाल आया और मैने उसे एस एम एस किया।

 जो अच्छा हुआ उसे याद रखना

जो बुरा हुआ उसे जाना भूल

सारे काँटे चुन लेगा वक़्त

राह में  बिछायेगा खुशी के फूल

भेजने के बाद मुझे अपनी इस तुकबंदी पर हँसी आ गई। बहुत सारे लोग ऐसे ही जीवन भर तुकबंदी करते हैं और उसे कविता कहते हैं। न उन्हें ठीक से तुकबंदी आती है न कविता ...हाँ पढ़ने वालों में भी कुछ लोग इसे कविता ही समझते हैं

वक़्त को अपने सामने से गुजरते हुए देखना और ज़िन्दगी की बारे में सोचना। यह कितना अजीब लगता है और आदिम भी कि साल के अंत में हम साल के बारे में सोचते हैं , महीने के अंत में महीने के बारे में , सप्ताह के अंत में सप्ताह और दिन के अंत में यानि सोते समय दिन के बारे में लेकिन पल के अंत में पल के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता क्योंकि पल कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता।

वर्ष के अंत में मैं वर्ष के बारे में सोचते हुए मुझे लग रहा था कि इस वर्ष यानि आने वाले साल में वह यहाँ से चली जायेगी या मैं चला जाऊंगा या  दोनों ही। इसी निराशा में उपजा एक एस एम एस

एक साल मिलना एक साल साथ रहना

एक साल बिछड़ जाना

यह साल महीने हो सकते हैं

सप्ताह , दिन, घंटे या मिनट

फिर भी ज़िन्दगी वर्षों में गिनी जाती है

ना कि पलों में

उस शाम बेहद उदास था मैं और मुझे हर साल की तरह राजकुमार कुम्भज की वह कविता याद आ रही थी ...दिसम्बर की आखरी शाम और खाली हैं तमाम रास्ते ...। वह शनिवार की शाम थी और वह अपने आधे दिन की नौकरी समाप्त कर घर जा चुकी थी। मैं हॉल में अकेला बैठा कुम्भज की कविता की पहली पंक्ति के आगे अपनी पंक्तियाँ जोड़कर उसे अपने मोबाइल पर टाइप कर रहा था।

दिसम्बर की यह आखरी शाम

बीते साल की लाश पर                 

जश्न मनाने की तैयारी में गुम

अभी-अभी हवा के एक झोंके ने

आकर मुझसे कहा

मैं उसे छूकर आया हूँ

जिसे प्यार करते हो तुम

हवा का वह झोंका आया और चला गया। उसे जो कहना था उसने कह दिया और मैने सुन भी लिया। उसकी फुसफुसाहट हमेशा की तरह जश्न के शोर-शराबे में डूब गई और मैं अपनी तनहाई में। लेकिन जैसे जैसे रात जवान होती गई मेरी तनहाई टूटती गई मैं उस शोर में अपने आप को समायोजित करता गया और धीरे धीरे एक उदास प्रेमी से एक सामान्य मनुष्य बनता गया। मैने दोस्तों और खैरख्वाहों के लिये मैसेज बनाने शुरू किये। ख्याल आया कि यह दुनिया आज से सौ साल बाद कैसी होगी शायद तकनीक में इतनी क्रांति हो जाये कि मनुष्य मरे ही नहीं या मरने लगे तो मरने से पहले अपना क्लोन बनाकर छोड़ जाये जो ठीक उसी की तरह दिखाई देता हो। फिर शायद एक क्लोन दूसरे क्लोन को कुछ इस तरह मैसेज भेजे...

“हैप्पी 2106 टू डियर क्लोन ऑफ मि. / मिस... आपके ओरिजिनल शरीर ने मेरे ओरिजिनल शरीर को सौ साल पहले शुभकामनाएं भेजी थीं उनके लिये धन्यवाद।”

मैं देर तक अपनी इस कल्पना पर हँसता रहा। क्या पता सौ साल बाद यह भावनाएं ही ना रहें। मनुष्य पूरी तरह यंत्र हो जाये। कोई मुझे देख कर सोच ही नहीं सकता था कि यह वही शख्स है जो कुछ घंटे पहले अपने अकेलेपन के विशाल सागर में उदासी की लहरों के बीच डूब उतरा रहा था।

अपने क्रियेशन और तकनीक के इस उपयोग में सुबह कब हो गई कुछ पता ही नहीं चला। पारम्परिक शुभकामनाओं के बीच मैं वास्तविकता के धरातल पर था और मेरे एस एम एस को कुछ इस तरह होना ही था “ नई सुबह मुबारक हो, नया साल मुबारक हो, वही आटा मुबारक हो वही दाल मुबारक हो।” इस उत्सवधर्मी देश में मनुष्य की आदिम उत्सवधर्मिता के चलते ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ बहुत बौनी लगने लगती हैं।

नये साल के दस दिन बीत चुके थे। सर्दियों के मौसम में भी नौकरी करने की विवशता तो थी ही। उसकी खाँसी अब तक ठीक नहीं हुई थी। किसी को खाँसते हुए देखकर मैं पता नहीं क्यों बहुत विचलित हो जाता हूँ। यह विचलन मेरे अवचेतन में स्थित बचपन के उस बिम्ब का परिणाम है जिसमें घर के सामने रहने वाला एक बूढ़ा जो ठीक कवि विजय कुमार की कविता के एक बूढ़े की तरह दिखाई देता था, रात रात भर खाँसता रहता था।

शहर का सबसे बूढ़ा कवि

आधी रात शहर की सबसे पुरानी बस्ती में

एक दुकान में अधजली रोटी शोरबे में डुबाकर खाता है

क्या आपने कभी देखा?

 

रात है

बहुत लंबी उदास रात

जब हवा का चलना बंद है

जब आकाश में चांद पहले से ज़्यादा टेढ़ा है

जब दुनिया के ज़्यादातर पेड़ कट चुके हैं

जब पक्षी विलाप कर रहे हैं

जब संसार की बहुत सी नदियां में सूख चुका है पानी

महान पुस्तकों के पन्ने फटे हुए यहां- वहां पड़े हैं

और स्वप्नदर्शियों के तोड़ दिये गये हैं बुत

जब सारी सड़कें इकतरफा हो गयी हैं

कवि को

इतने बूढ़े कवि को सुनने के लिए

कौन बचा है इस पृथ्वी पर?

 (विजय कुमार, मुंबई)

अगले दिन ईद थी और मुझे पता था कि उस दिन वह मेहमानों के स्वागत और आवभगत में इस क़दर व्यस्त हो जायेगी कि शायद ही अपना ख्याल रख पाये। बड़े होने के नाते मैं उसे कुछ सलाह देना चाहता था और पर्व की सामान्य औपचारिकताओं के चलते मुझे शुभकामनाएं भी देनी थी सो दोनों बातें मैने एक ही एस एम एस में शामिल कर दीं। "एक भाग अदरक का रस, 5-6 दाने काली मिर्च पीस कर चम्मच भर शहद के साथ मिलाकर लें ताकि कल तक खाँसी गायब हो और आप बिना खाँसे मेहमानों को कह सकें...ईद मुबारक" भेजने के बाद मुझे लगा यह ढेर सारी एजेंसियों से आने वाले फ्री मैसेज की तरह ज़्यादा लग रहा था।

मुझे उस वक़्त पता नहीं कैसे बचपन की याद आ गई जब ऐसे ही मुझे खाँसी हुई थी और एक रात मुझे परेशान देख पिता ने एक चम्मच ब्रांडी दे दी थी जो मेरे होशो-हवास में मेरे लिये शराब का पहला स्वाद था। मैं उसे ब्रांडी पीने की सलाह नहीं दे सकता था अलबत्ता एक शाम जाते हुए शहद की एक छोटी शीशी मैने उसे खरीदकर दे दी थी। उस रात सोने से पहले मुझे ख्याल आया पता नहीं उसने दवा ली होगी या नहीं। मुझे रॉबर्ट फ्रॉस्ट की वह मशहूर पंक्तियाँ याद आईं जिनके बारे में कहा जाता है कि नेहरू जी उन्हें अपने टेबल पर रखते थे। मैने उसी वक़्त उसे एस एम एस किया “रॉबर्ट फ्रॉस्ट ने कहा है मुझे जाना है मीलों दूर सोने से पहले और तुम्हारे लिये भी किसी ने कहा है मुझे लेना है एक चम्मच शहद और अदरक का रस सोने से पहले।" मैं जानता था रॉबर्ट फ्रॉस्ट की आत्मा इसके लिये मुझे माफ नहीं करेगी।

उस रात सोने से पहले  इस बात को याद कर मैं मुस्कुरा रहा था। हम लोग इसी तरह अपनी उदास और बेरौनक ज़िन्दगी में मुस्कुराने के सबब ढूँढ लेते हैं। कोई अच्छा सा खयाल हमारे सारी चिंताओं को कुछ देर के लिये ही सही खत्म कर देता है।

उसके वज़ूद को देख कर मुझे ज़िन्दगी का ख्याल आता था। लगता था ज़िन्दगी को अगर इंसानी शक्ल में ढाल दिया जाये तो वह ऐसी ही दिखाई देगी, ऐसी ही खूबसूरत, ऐसी ही हँसती खिलखिलाती झरनों की तरह चट्टानों पर उछलकर बहती हुई, ऐसे ही जंगल में बहने वाली हवाओं की तरह गाती हुई...। लेकिन ऐसा तब हो सकता था जब ज़िन्दगी को अपना पेट पालने की मजबूरी न हो। इसलिये कहते हैं ना कि कल्पना और यथार्थ में फर्क होता है। मुझे अपनी वह कविता याद आ गई जिसमें डूबते हुए सूरज का ज़िन्दगी से सवाल है... मैंने उसे तुरंत एस एम एस किया

डूबते हुए सूरज ने ज़िन्दगी से पूछा

मैं तो चला ..क्या करोगी तुम अब

इसके आगे कविता कुछ और थी लेकिन मैने उसे हँसाने के लिये यहाँ जोड़ा...” क्या करूंगी, कुछ नहीं, बचे हुए खाते खोलूंगी और काम खत्म करके मोपेड पर अपने घर जाऊंगी।” उन दिनों दफ्तर में उसे यही काम सौंपा गया था। भरे पेट ज़िन्दगी की रूमानियत के बारे में सोचते हुए आप टहलने निकलिये और अचानक किसी झोपड़पट्टी के बाहर भूख से बिलखता हुआ कोई बच्चा आपको नज़र आ जाये, कुछ इस तरह का था मेरा यह वाक्य।

अगले दिन उसने बहुत मासूमियत के साथ कहा “ आपका एस एम एस समझ में नहीं आया।” मेरा मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र वहीं धराशायी हो गया। “अरे” मैने कहा “नहीं समझीं... तुम ही तो वह ज़िन्दगी।” वह कुछ इस तरह से मुस्कराई जैसे पहले से ही जानती हो मैं यह कहूंगा। उसकी यह मुस्कुराहट ही मुझे अच्छी लगती थी इसलिये कि एक व्यावसायिक संस्थान में काम करने के बावजूद उस मुस्कुराहट में वस्तुओं को बेचने के लिये काम आने वाला ओढ़ा हुआ या सिखाया हुआ भाव नहीं था। बिलकुल एक घरेलू औरत की तरह अपने सहज भाव में वह मुस्कराती थी और टी.वी. पर मुस्कराती दिखाई देती औरतों से अलहदा दिखाई देती थी।

फोन पर उसकी आवाज़ बिलकुल बच्चों की आवाज़ की तरह लगती। बीतती हुई जनवरी के एक इतवार को सुबह सुबह मैंने उसे फोन किया “क्या कर रही हो?” उसने जवाब दिया “कपड़े धो रही हूँ।” मेरे जेहन में उसका चित्र उभर आया। वह ढेर सारे मैले कपड़ों के बीच बैठी है और फिर दिखाई दी उनके बीच बैठी टी.वी. की एक चर्चित मॉडल जिसने ज़िन्दगी में कभी कपड़े नहीं धोये थे और जिसके सुन्दर सलोने हाथों का उपयोग साबुन कम्पनी वाले अपने एड में करते थे “रखे आपके हाथों को सुन्दर सुकोमल।”

अगले दिन मैंने उसकी इस भंगिमा को चित्रित करते हुए उसे एक एस एम एस किया... ” वह कपड़े धोती थी पूरे घर के, साबुन बनाने वाली कंपनियों को फिक्र थी, उसके हाथ न खराब हो जाएं, हालांकि उन के घरों की औरतें भी , अपने हाथों से कपड़े धोती थीं...” मुझे नहीं पता उसे यह बात समझ में आई या नहीं। मैं उसे बताना चाहता था कि बाज़ार इन दिनों स्त्री का उपयोग अपनी वस्तुएं बेचने के लिये कैसे कर रहा है और स्त्री का स्थान इस समाज में पुरुषवादी मानसिकता पर ही निर्भर है। मैं अक्सर उससे इस पुरुष प्रधान समाज के गठन पर बातें करता था, प्राचीन समाज, धारणाओं और मायथॉलॉजी पर बातें किया करता था। उसे बताता था कि किस तरह चालाक मनुष्य ने अपने मस्तिष्क का उपयोग कर मनुष्य का शोषण किया, भाषाएँ किस तरह आईं, उच्च समझे जाने वाले लोगों का किस तरह भाषा पर आधिपत्य हुआ  आदि आदि।

मुझे लगता था कि उसे ढेर सारी बातें बताऊँ लेकिन अक्सर ऐसा सम्भव नहीं होता। फुटपाथ पर उगने वाली घास की पत्ती की तरह था वह रिश्ता जिसका पैदा होना और कुचला जाना एक बराबर था।

वह गणित की स्नातकोत्तर थी और गणित वालों का मैं हमेशा से सम्मान किया करता था। एक दिन यूँ ही उसे हँसाने के लिये मैने उसे एस एम एस किया...” मैथ्स वालों के लिये एक जोक... संस्कृत शिक्षक ने छात्र से कहा तमसो मा ज्योतिर्गमय का हिन्दी अनुवाद करो, छात्र ने कहा... तुम सो माँ मैं ज्योति के घर गमन करता हूँ।” फिर आई छब्बीस जनवरी और मैंने उसे रघुवीर सहाय की  एक कविता भेज दी

राष्ट्रगीत में कौन भला वह

भारत भाग्य विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसके

गुन हरचरना गाता है।

वह चार फरवरी थी। किसने मुझे बताया कि आज मित्रता दिवस है। मैने सोचा ,जाने कितने विशेष दिन हमने अपना मन बहलाने के लिये गढ़ लिये हैं ,बूढ़ों के लिये, महिलाओं के लिये ,बच्चों के लिये। क्या मनुष्यों के लिये भी कभी कोई दिवस मनाया जायेगा ? मित्रता के लिये तो हर दिन होता है। खैर , मैने सोचा यह दिन इसलिये बनाये गये हो कि कम से कम एक दिन तो हम उस दिन से सम्बन्धित अवधारणा पर विचार करें । मैने उस दिन अपने कई मित्रों को याद किया अतीत के उन मित्रों को भी जो गुम हो जाने के बाद दोबारा फिर कभी नहीं मिले। अपने वर्तमान मित्रों के बीच मेरी नज़र उसे भी मित्रता की परिभाषा के अंतर्गत परखती रही।

मुझे वे दिन याद आये जब मैं दोस्तों को लेकर  ज़रा भी सतर्क नहीं हुआ करता था। हर किसी से मेरी दोस्ती हो जाती थी। मैं बगैर जाने कि दोस्ती क्या होती है। कोई अच्छा लगता तो मन होता उससे दोस्ती की जाए .. फिर कभी दोस्ती दो चार मुलाकातों तक चलती , फिर एक दिन पता चलता कि मैं जिसे अपना दोस्त समझ रहा था उसका स्वभाव ही ऐसा था कि वह हर किसी से ऐसे ही बातें करता है। या मुझे महसूस होता कि दोस्ती सिर्फ मेरी गरज है उसकी नहीं। और फिर यह दोस्ती अधिक दिनों तक नहीं चल पाती।

मुझे यह विचार बहुत नया लगा कि लोग तो प्यार में धोखा खाते हैं मैने तो दोस्ती में खाये हैं। लेकिन इसका असर यह तो हुआ था कि मैने यह कहना छोड़ दिया कि मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूँ। अपनी ओर से कुछ न कहना मेरा सहज स्वभाव बन गया।

फिर ऐसा क्यों हुआ बरसों बाद कि प्रौढ़ावस्था की दहलीज़ पर मुझे यह सब सोचने की ज़रूरत महसूस हुई। उम्र के इस पड़ाव पर अनुभवों की तल्ख़ी मुझे पीछे खींच रही थी और हादसों से टकराने का हौसला मेरे पाँव आगे बढ़ाने पर आमादा था।

मैने अपने सर को झटका दिया .. मैं भी क्या क्या सोचने लगा हूँ। अब ज़िन्दगी के इस मोड़ पर भी मुझे क्या किसी अनुभव की दरकार है ? आग और आँसू का खेल जितना खेलना था वह इस ज़िन्दगी में तो मैं खेल चुका .. क्या एक ज़िन्दगी में इतना काफी नहीं है ?

लेकिन मैं जानता था दोस्ती कभी अपनी परिभाषाओं में सिमटकर घटित नहीं होती है मित्रता के अनेक रूप होते हैं और वे जीवन में अलग अलग समय पर अलग अलग तरीकों से घटित होते हैं।

मैने कभी उससे उसके मित्रों के बारे में नहीं पूछा। जब वह फोन पर चहक चहक कर बातें करतीं तो लगता कि उसके ढेर सारे मित्र होंगे वहीं जब वह उदास खामोश बैठी दिखाई देती तो लगता दुनिया में उसका कोई मित्र नहीं है। एक दिन उसे इस तरह बैठा देख मुझे लगा कि शायद वह भी मेरी तरह सोच रही हो कि किसे दोस्त कहे और किसे दुश्मन। मैने उसकी मदद करनी चाही और क़तील शिफ़ाई  के एक शेर को एस एम एस बनाकर उसे भेज दिया...

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम

दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे...।

और उसके नीचे लिखा

Today is world closest friend’s day, send this SMS to your closest friend, if you get reply u r lovable

मैं जानता था हर बार की तरह इस बार भी मेरे एस एम एस का जवाब नहीं आयेगा, लेकिन वह भी कम शरारती नहीं थी, उसने एक बन्दर का प्यारा सा चित्र बनाया और मुझे भेज दिया यह लिखकर कि “यह आपके बचपन की तस्वीर है।”

मैं काफी देर तक उसके इस एस एम एस को देख देख कर हँसता रहा। अपने एस एम एस और उसके जवाब को लेकर किसी किस्म की भावुकता का प्रत्यारोपण मैं अपने भीतर नहीं करना चाहता था। उम्र के उस अनिवार्य पड़ाव को हम दोनों ही कब का पार कर चुके थे जब इस तरह के मैसेजेस भी प्यार होने की शुरुआत में अपनी भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह तय था कि मित्रता के इस दिवस पर हँसी हँसी में ही सही जीवन के साथ सहजता से बनाये जाने वाले रिश्तों की शुरुआत हो चुकी थी।

यह सम्बन्धों का तकाज़ा है कि यदि आप को कोई कुछ दे तो बदले में आप भी उसे कुछ दें। उसने मुझे काफी देर तक हँसाया था, हँसी जैसी दुर्लभ वस्तु देकर... मैंने भी बदले में उसे हँसाना चाहा यह एस एम एस भेजकर...” फिल्म शान में अपने गंजे सिर पर हाथ घुमाते हुए शाकाल यानि कुलभूषण खरबंदा पूछता है... दुनिया में ऐसा कौन सा काम है जो शाकाल नहीं कर सकता? दर्शकों में से आवाज़ आती है... कंघी नहीं कर सकता। “फिर इसके आगे लिखा “इस जोक को याद कर सोमवार को साढ़े बारह बजे हँसना।”

गौरतलब है कि उन दिनों हमारे संस्थान में निरीक्षण हेतु एक गंजे निरीक्षक आये हुए थे जो ठीक साढ़े बारह बजे अपने काम पर उपस्थित हो जाते थे। संस्था प्रमुख की कोशिश थी कि इस बार उन्हें सर्वोच्च रैंक मिले और इसके लिये वे भरपूर प्रयास भी कर रहे थे। मैने इस बात को उन दिनों के एक चर्चित फिल्मी गीत की पैरोडी की शक्ल में ढाला और उसे एस एम एस कर दिया... “ए ... क्या बोलती तू... ए... क्या मैं बोलूँ सुन, सुना... मिलेगा रैंक  ए प्लस? क्या करोगे तुम लेकर के रैंक ए प्लस? अरे सी जी एम को बतायेंगे, दावत उड़ायेंगे, पेपर में छपवायेंगे और क्या...।”

इस तरह दिन बीतते रहे, हवाएँ हमारी खिलखिलाहटों में हमारे साथ खिलखिलाती रहीं, तूफान हमें देख रश्क करते रहे, ज़िन्दगी बग़ैर किसी उपमा उपमान के अपनी अबाध गति से आगे बढ़ती रही। वह भी उसी तरह जी रही थी जिस तरह मैं और संस्थान में काम करने वाले मेरे अन्य साथी। हमें बार बार यह अहसास दिलाया जाता था कि यह कार्पोरेट जगत है और हमें केवल अपने संस्थान की बेहतरी के लिये काम करना है। सिर्फ मुनाफा कमाना हमारे जीवन का अंतिम उद्देश्य होना चाहिये। हमें ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करना है ताकि वे हमारे प्रोडक्ट खरीदें और अपने जीवन को खुशहाल बना सकें।

यह उन दिनों की बात है जब बाज़ारवाद जैसे नये शब्द का ईज़ाद हुआ था और मल्टीनेशनल कम्पनियाँ धीरे धीरे सब कुछ अपनी गिरफ़्त में ले रही थीं। इनमें मानवीय सम्बन्ध, सहजता, आपसी रिश्ते, प्रेम, आस्था और ईमानदारी सब कुछ था। इधर नदियाँ और जंगल बेचे जाने लगे थे और साँस लेने पर भी टैक्स लगने की शुरुआत होने वाली थी।

वैलेंटाइन डे का इस देश में प्रवेश ऐसे ही समय में हुआ था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यह पर्व यहाँ लेकर आई थीं और युवा वर्ग में यह काफी लोकप्रिय हो  चुका था। ऐसा माना जाता था कि प्रेमी इस दिन एक दूसरे से अपने मन की बातें कह देते थे। हालांकि इस पर्व के यहाँ प्रवेश के साथ ही संस्कृति और धर्म के तथाकथित रक्षकों द्वारा इस का विरोध शुरू हो चुका था और वात्सायन और खजुराहो शिल्प के इस देश में प्रेम के विरोध में हिंसा अपने तेवर दिखा रही थी।

प्रेम में देह की उपस्थिति अब अनिवार्य मानी जाने लगी थी और इज़हार के तरीकों में भी बदलाव अ चुका था। नायिका द्वारा पाँव के अंगूठे से ज़मीन कुरेदने और नायक द्वारा दाँत से तिनका चबाये जाने का राजकपूर युग कब का समाप्त हो  चुका था और किताबों में प्रेम पत्र रख कर भेजने का प्रचलन भी लगभग समाप्ति पर था।

उस समय मोबाइल का युग आ चुका था और त्योहारों पर नेटवर्क कम्पनियाँ एस एम एस आदि के ज़रिये अनाप - शनाप पैसा कमाने लगी थीं। होली और ईद जैसे त्योहारों पर भी अब लोग एक दूसरे के घर जाना टालने लगे थे और दीवाली पर मुँह मीठा कराने के बजाय एस एम एस भेज कर संतुष्ट हो लेते थे। सामूहिकता धीरे धीरे व्यक्तिगतता में तब्दील होने लगी थी और उसका उपयोग केवल दंगे के समय भीड़ जुटाने के लिए रह गया था। भीड़ का पागलपन कब बढ़ जाये कहा नहीं जा सकता था।

मुझे वैलेंटाइन डे पर किसी को मैसेज करने की ज़रूरत नहीं थी इसलिये कि मैं प्रेम के पर्व को किसी विशेष दिन में बंधा हुआ नहीं देख सकता था। टी.वी. पर बॉटम लाइन में आने वाले बेसिर-पैर के सन्देशों को पढ़ते हुए प्रेम के बाज़ारीकरण पर मुझे कोफ्त होती थी। मुझे लग रहा था कि इसके जवाब में प्रेम पर कोई कविता लिखनी चाहिये लेकिन भेजने के लिये उसका एक सौ साठ अक्षरों या कैरेक्टर की सीमा में होना ज़रूरी था। बहुत दिनों से कहानी का एक प्लॉट मन में कुलबुला रहा था... मैने उसे मोबाइल पर लिखने की कोशिश की।

उसका प्रेमी बजरंग दल में था।

वह विरोध जुलूस से चुपचाप बाहर निकला

और उसे एक लाल गुलाब दे आया

लौटकर फिर जुलूस में शामिल हुआ और नारा लगाया

वैलेंटाइन डे ज़िन्दाबाद।

मैने स्क्रीन पर शब्द गिने, अरे वाह! यह तो पूरा एस एम एस बन गया। मैने महसूस किया जिस तरह कविता लिख देने के बाद उसे किसी पत्रिका के सम्पादक को भेज देने का मन होता है वैसे ही मैसेज लिखने के बाद भी होता है। अब इसे मेरे प्रिय पात्र के पास भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन इस चुहलबाज़ी में एक चुटकुलानुमा एस एम एस और तैयार हो गया ...

गधा : तुम मेरी वैलेंटाइन बनोगी?

गधी : सॉरी ..डीयर ,घोड़ा पहले ही यह ऑफर दे चुका है।

गधा : ओह! तो वह भी टीवी पर हिंदी धारावाहिक देखता है।

यह जोक भी मैने उसे भेज दिया। पता नहीं क्यों प्रेम पर किसी प्रकार की गम्भीर टिप्पणी या कोई आदर्श वाक्य जैसा कुछ भेजने का मन नहीं हुआ। शायद इसलिये भी कि उसने प्रेम किताबों में नहीं पढ़ा था। उसने प्रेम को जिया था। गुलाब की पाँखुरी जैसे कोमल प्रेम से लेकर चट्टान जैसे कठोर प्रेम तक को उसने महसूस किया था। उसका प्रेमी सिर्फ उसके ख्वाबों में नहीं आता था बल्कि वह एक जीता-जागता सच था और उसने उसकी ज़िन्दगी को एक नया अर्थ दिया था।

हालांकि मैने उससे उसके अतीत के बारे में कभी नहीं पूछा था। जानना ज़रूर चाहा था लेकिन उसने कभी मेरी जिज्ञासा को गम्भीरता से नहीं लिया। मैने भी इतना संयम बरता कि वह इस बात को लेकर कभी परेशान न हो कि मैं उसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा हूँ।

मुझे लगा की कि वह कभी मेरी भावनाओं को समझ नहीं पायेगी। वह अपनी ज़िन्दगी में इतनी मसरूफ़ और खुश थी कि उसे ज़रूरत भी नहीं थी इस बात की। मैं भी सोचता कि आखिर क्या हो जायेगा  उसके अतीत के बारे में जान लेने से। क्या कभी उसके अतीत के किसी सुख या दुख में उसका साथ दे पाऊंगा? शायद नहीं .. तो फिर केवल जानकर ही क्या हो जायेगा।

लेकिन यह लेखक नाम का प्राणी चैन से कहाँ रह सकता है। एक दिन मैं एक डायरी खरीद लाया और रात भर जाग कर उसमें उसके लिये कुछ सवाल लिखता रहा। लिखते हुए ऐसा लगता रहा कि उससे एक तरफा बातें कर रहा हूँ। यह खुशफ़हमी मेरे मन में जन्म ले चुकी थी कि मैं उसे सवाल लिख कर भेजूंगा और वह मुझे उनके जवाब लिख कर भेज देगी। शायद पढ़े-लिखे लोगों के बीच इसी तरह संवाद होता है। मेरे सुबह के एस एम एस का मजमून यही होना था ...

मैने उल्लू की तरह जागकर

तुम्हारे लिये सवाल लिखे हैं रात भर

और अब मनुष्य की तरह जागकर

नौकरी करूंगा दिन भर

मैं भी कितना उल्लू हूँ ना?

मुझे याद आया मनोज रूपड़ा मेरी उल्लू वाली कविता पढ़-पढ़ कर बहुत हँसता था। मुझे लगा शायद उसे भी यह पढ़ कर हँसी आये।

जब मैंने उस से उन सवालों के जवाब माँगे तो उसने कहा... कि वह लिख नहीं सकती, हाँ पढ़ना उसे अच्छा लगता है। उसकी बात सुनकर मैं निराश नहीं हुआ। आजकल तो लोगों को पढ़ना भी अच्छा नहीं लगता वह कम से कम पढ़ती तो है। उस रात मैने फिर उसे एक एस एम एस किया ..” अच्छा लगता है पढ़ना तो आज सिर्फ पढ़ो, पढ़ो अपने बचपन की किताब, पढ़ो अपने मन की किताब, सोचो कि क्यों तुम इतनी अच्छी हो.. क्या अब भी पहले जैसी बच्ची हो? “बच्ची तो खैर वह कतई नहीं थी, हाँ एक बच्ची की माँ ज़रूर थी। कभी कभी किसी ऐंगल से उसका चेहरा बिलकुल उसकी बेटी की तरह दिखाई देता था, इतना मासूम कि उसके पीछे शरारतें छुपे होने का भ्रम होता था।

उन दिनों उसकी बेटी को सर्दी - जुकाम हुआ था और इस बात की चिंता उसके चेहरे पर साफ दिखाई देती थी। संयुक्त परिवार में रहने के बावजूद उसके लिये डॉक्टरों के पास दौड़ना, उसके लिये दवा लाना यह उसकी ही ज़िम्मेदारी थी। मैं उसकी परेशानियाँ समझ सकता था। उसकी खुशी में बेटी की खाँसी किस तरह आड़े आ रही थी यह भी मैं जानता था। मैंने उसे लिखा…

खुशी को हुई खाँसी

मम्मी को हुई फाँसी

खुशी दवा पीने से डरती है?

मम्मी बोतल लिये पीछे पीछे फिरती है

एक दिन खुशी की खाँसी हो गई ठीक

तो मम्मी को मिली सीख...

कविता लिखने के बाद मैंने तालियाँ बजाईं और बच्चों की तरह खुश हो गया। मुझे इस बात की खुशी हुई कि मैं बच्चों के लिये भी कविताएं लिख सकता हूँ। इस धुन में मैने कुछ और कविताएं भी लिखी। हालांकि यह मेरा स्थायी स्वर नहीं था सो यह सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चला।

इधर बसंत आ गया था। सुबह सुबह सैर के लिये निकलो तो पत्तों की ढेर सारी लाशें पेड़ों के नीचे दिखाई देतीं। डाल से टूटे पीले पत्ते से दुख यहाँ - वहाँ बिखरे दिखाई देते। संवेदनशील लोगों के लिये हर मौसम का एक अर्थ होता है। फिज़ां में बसी खुशबू उनके हावभाव और चर्या को संचालित करती है। हवाओं की तीव्रता, उष्णता और ठंडक बार बार अतीत से उनका साक्षात्कार करवाती है। फरवरी मार्च की हवाएँ मुझे हमेशा पढ़ाई-लिखाई और परीक्षा के दिनों की याद दिलाती हैं। मार्च के माह में लगभग उसी भाव से मैं अपने संस्थान में नौकरी करता था ।

अभी हवाएँ उतनी गर्म नहीं हुई थीं कि मुँह पर कपड़ा लपेटकर आना पड़े। लेकिन मैं उसे देखता था कि वह हर हमेशा अपने चेहरे को ढाँक कर ही आती थी शायद गाड़ी चलाते हुए अपने चेहरे को धूप, धूल और हवाओं से बचाने के लिये। दफ्तर पहुंचकर जब वह अपना नकाब उतारती तो उसी पुराने बिम्ब में लगता जैसे चाँद बदली से  निकल आया हो। काम खत्म कर वापस घर जाते हुए वह फिर अपने चेहरे को ढँक लेती। उस वक़्त उस से कोई भी संवाद करना मुश्किल होता। यद्यपि उसकी आँखें खुली रहती थी जिनमें उसके घर - परिवार की चिंता साफ दिखाई देती थी।

उसकी आँखों की बनावट कुछ ऐसी थी कि उनमें हमेशा लाल डोरे तैरते हुए दिखाई देते। शुरू में तो मुझे लगता था कि शायद वह रात में ठीक से सोई नहीं है लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। हर व्यक्ति की देह में कुछ विशेषताएँ होती हैं। हम अपनी ही देह कहाँ ठीक से देख पाते हैं। आईने में भी यदि हम अपनी देह को अनावृत देखें तो पृष्ठ भाग छूट जाता है। यह तो केवल देह के बाहरी रूप की बात है भीतर देखना तो नामुमकिन है। और इस भीतर के भी भीतर अर्थात अपने मस्तिष्क में झाँक पाना तो बिलकुल असम्भव। यह उस देह के साथ घटित होता है जो देह जन्म से लेकर अंतिम साँस तक हमारी कहलाती है। जो देह हमारी नहीं है उसके बारे में तो जानना बहुत ही मुश्किल। कभी पढ़ा था कि जो व्यक्ति अपने आप से प्रेम नहीं कर सकता वह अन्य से भी प्रेम नहीं कर सकता। हाँ मुझे उस वक़्त भी अपने आप से बहुत प्रेम था।

सुरेश मुझे फ्रायडियन कहता था। उसका कहना था कि तुम अपने आप से इतना ज़्यादा प्रेम करते हो कि किसी और से कर ही नहीं सकते। उसकी नज़रों में मैं देहवादी था लेकिन यह मेरे लिये अच्छी बात थी जो बार बार मुझे उस स्थिति से उबार लेती थी जो अपने प्रिय से दूर हो जाने के बाद होती है। किसी से बिछड़ने के बाद भी मैं फिर अपनी ही दुनिया में मगन हो जाता।

रोज़ शाम को घर जाते हुए जब उसका चेहरा नकाब के भीतर गुम हो जाता वह मुझे कोई और ही लगने लगती। मैं यह जानने के लिये कि वह वही है उससे बात करता, वह कपड़े को ठुड्डी तक लाकर बात करने लगती तब मैं मन ही मन कहता हाँ यह तो वही है। जब भी वह ढँके हुए मुँह से मेरी बात का जवाब देने की कोशिश करती मैं उसकी आवाज़ में उसका चेहरा तलाशने की कोशिश करता इसलिये कि कई बार आवाज़ ही मनुष्य के चेहरे की पहचान होती है। हम फोन पर किसी से बात करते हुए उसकी आवाज़ में ही उसका चेहरा देखते हैं। मैं भी अक्सर फोन पर किसी की आवाज़ सुनते हुए अपनी आँखें बन्द कर लेता हूँ इस तरह उसका चेहरा देखने में मदद मिलती है।

लेकिन धूप और हवाएँ हमारी तरह यह महसूस नहीं कर सकतीं, कितना भी खूबसूरत चेहरा हो पल भर में बिगाड़ देती हैं। मुझे पता था वह इन्हीं से बचने के लिये नकाब में अपना चेहरा छिपाती है। मैं रोज़ उसे इसी तरह देखता रहा और फिर एक दिन उसे एस एम एस किया ..

वह रोज़ नकाब पहनकर आती थी

धूप और हवाएँ छूना चाहती थीं उसके गाल

उसे पता थी उनकी बदतमीजियाँ

वह उन्हें भीतर ही भीतर मुँह चिढ़ा देती

और वे देख नहीं पातीं।

मुझे लगता धूप और हवाओं की बदतमीजियाँ तो फिर भी इंसानों की बदतमीजियों से बेहतर हैं। मनुष्य तो जितना ज़्यादा सभ्य होता जा रहा है उतना ही ज़्यादा बदतमीज़। मैं उससे पूछना चाहता था वह बदतमीज़ पुरुषों को किस तरह मुँह चिढ़ाकर जवाब देती है। पूछता तो शायद यही जवाब मिलता “एक बार बदतमीजी करके तो देखिये।” खैर मैं इतना बदतमीज़ तो हो भी नहीं सकता कि उसका अभिनय करूँ। कालेज के दिनों में मेरे मित्र लड़कियों को छेड़ने का दुस्साहस कर लेते थे और मैं सबसे पीछे रहता था। बाद में वे मेरी हँसी भी उड़ाते थे लेकिन मैं उनकी हरकतों का पुरज़ोर विरोध भी करता था। अंत में वे मुझे कुछ असभ्य से विशेषण प्रदान कर चुप हो जाते।

स्त्रियों के प्रति ऐसे लोगों की सोच में परिवर्तन आना तब तक सम्भव नहीं होता जब तक उनकी बेटियाँ बड़ी नहीं हो जातीं। हालांकि ऐसे लोग बहुत व्यावहारिक भी होते हैं, जीवन में वे जो चाहते हैं उसे किसी भी नैतिक अनैतिक तरीके से हासिल कर लेते हैं, उनका सुख का संसार उनका अपना बनाया हुआ होता है, अपने जीवन की परिभाषा वे खुद गढ़ते हैं।

मुझे नहीं पता उन दिनों के मेरे वे मित्र अब कहाँ हैं। उन दिनों भी वे मित्र कहाँ थे... बस कुछ समय का साथ था। जैसे साथ स्थायी नहीं होता वैसे मित्रता भी कहाँ स्थायी होती है। सच पूछो तो जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता, न पहचान न दोस्ती न प्यार।

फिर भी कुछ लोग स्मृतियों में स्थायी रहते हैं। मुझे याद है भोपाल में श्यामला हिल्स पर मैं और गिरीश वड़तकर प्रेम की लान्ड्री में घंटों बैठा करते थे... गिरीश गाता था... ” वो जो खत तूने मुहब्बत में लिखे थे मुझको... जब तलक जिन्दा हूँ इनको न जला पाऊंगा... अब तो ये खत ही मेरे जीने का सहारा हैं ..।” मैं कभी किसी के खत नहीं जला पाया। आज भी वे तमाम खत जो मेरे दोस्तों ने मुझे लिखे थे फाइलों में सुरक्षित हैं। मुझे नहीं पता मेरे खत उनके पास सुरक्षित होंगे या नहीं... वैसे भी इतनी व्यस्त ज़िन्दगी में इन चीज़ों की परवाह किसे है।

लेकिन इन एस एम एस का क्या किया जा सकता था... इन्हें तो डिलीट करना ही होता था, कमबख़्त मेमोरी की समस्या। हाँ जो एस एम एस मुझे अच्छे लगते हैं उन्हें आज भी कागज़ पर ज़रूर उतार लेता हूँ। फिर भी यह यांत्रिक ही हैं ना। इनमें न खतों की तरह खुशबू है न अक्षरों को छूकर अपने यार को छू लेने का अहसास।

और अब तो एस एम एस भी पुराने ज़माने की बात हो चली है इतना वक़्त नहीं किसी के पास की मोबाइल की बटनों पर उंगलियाँ चलाये। अब तो सीधे बात हो जाती है फोन पर और कम्प्यूटर पर जिसमें चित्र भी दिखाई देता है। लेकिन तस्वीर तो तस्वीर होती है उसमें नहीं होता किसी दुपट्टे के सरसराने का अहसास, किसी जिस्म से आती भीनी भीनी खुशबू। आँख से आँसू ढलके तो कोई हाथ आगे नहीं आता उन्हें पोंछने के लिये, कन्धा दिखाई तो देता है लेकिन उस पर सर रख कर रोया नहीं जा सकता। न हाथ मिलाने का सुख न गले मिलने का। यही अंतर है इस आभासीय दुनिया और यथार्थ में।

पहले ही बहुत अकेला था आदमी, इस तकनीक ने उसे और भी अकेला कर दिया है सब सिमटते जा रहे हैं अपने भीतर कहीं न कहीं। लेकिन मुझ जैसे लोग अभी भी रातों को जागते हैं और अपनी आँखें बन्द करके उन अहसासों को जीते हैं जो सचमुच कभी जीवंत थे। इसलिये कि अहसास अभी भी शब्दों में व्यक्त किये जाते हैं, शब्द कागज़ पर उतारे जाते हैं और किताबों में आ जाते हैं। फिर किताबें दूर दूर तक पहुंचती हैं और वे शब्द उन लोगों की ज़िन्दगी में पहुंचते हैं जिनके लिये वे लिखे गये थे। बस इतनी सी बात से आप लोगों की समझ में आ गया होगा कि हम लोग कविता कहानी क्यों लिखते हैं।

बरसों तक इसी तरह एस एम एस में शब्द लिख कर मैं उसे भेजता रहा और फिर एक दिन यह सिलसिला थम गया। उसका तबादला सुदूर दक्षिण में कहीं हो गया था। मैं भी उन दिनों शहर में नहीं था, लम्बी छुट्टियों से लौटकर आया तो पता चला। फिर बहुत दिनों बाद उससे सम्पर्क हुआ। कुछ समय तक यह सम्पर्क बना रहा, एक-दो बार बातचीत भी हुई। फिर अचानक एक दिन मेरे मोबाइल ने उसके नम्बर पर मैसेज भेजने से इंकार कर दिया।  वह शायद वहाँ से कहीं और चली गई थी और उसने अपना नया नम्बर मुझे देना उचित नहीं समझा होगा। मैंने भी कोशिश नहीं की उसका नया नंबर जानने की । बस यह कहानी यहीं ख़त्म हो गई।

आप कहीं इस कहानी के किसी सुखांत चक्कर में तो नहीं थे? अगर ऐसा है तो मैं आप से क्षमा चाहता हूँ। ऐसा कुछ भी हमारे बीच नहीं था जो इस कहानी को किसी खूबसूरत मोड़ तक लाता। ना वह मुझसे प्यार करती थी ना मैं उससे। यह तो सिर्फ तकनीक की इस सुविधा का कमाल था जिसकी वजह से हमारे सम्बन्ध प्रेम संबंधों की तरह दिखाई देने लगे थे। अगर मैं दीवानों की तरह उसे प्यार करता तो उसे ढूँढने नहीं निकल पड़ता।

हालांकि उससे सम्बन्ध समाप्त हो जाना और वक़्त की बहती नदी में उसका गुम हो जाना भी मेरे लिये एक आघात की तरह ही था। आभासी दुनिया में भी मनुष्य ही रहते हैं और उनके बीच प्रेम तो आखिर होता ही है। लेकिन मुझे पता था इस दुनिया में ऐसी कहानियाँ घटित होती रहती हैं और मेरी कहानी का यह अंत बिलकुल भी नया नहीं है। इसे न सुखांत कहा जा सकता है न दुखांत। वैसे भी इस तरह अचानक बीच में ही कहानी का खत्म हो जाना आजकल कहानी कला में शामिल हो गया है। आप से भी निवेदन है कि कहानी के इस अंत को लेकर कोई तर्क न करें कि यह ऐसा भी तो हो सकता था या वैसा भी तो हो सकता था। आप भी इसे कुछ इस तरह ही लीजिये जैसा कि सचमुच में ऐसा ही घटित हुआ हो।

बहरहाल मैने भी अब एस एम एस भेजना बन्द कर दिया है और इंटरनेट का शौक पाल लिया है। ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप्प आदि पर नये मित्रों की तलाश में हूँ, मैने अपना ब्लॉग भी बना लिया है। एक कहानी ख़त्म हो गई तो क्या हुआ... हर कहानी का अंत एक नई कहानी की शुरुआत होता है।

 

 

 

                                       

 

 

 

 

 

 

 

                        

 

 

 

 

 

                      

 

 

 

 

 

 

 

 


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