एक बेटी का पिता
एक बेटी का पिता
वैसे कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में ं रहते हैं पर कुछ पिछड़े रिवाज और दकियानूसी सोच हमें ं आज भी नई सदी में ं परिवर्तित नहीं होने देती। आज हम दुनिया बराबरी वाली की कल्पना करते है पर क्या सच में दुनिया बराबरी वाली कभी बन पाएगी?? आज की कहानी बिल्कुल सत्य घटना है जिसकी साक्षी मैं खुद हूं।
आज में री छोटी बहन की शादी है। पिछले छः महीने जब से बहन का रिश्ता पक्का हुआ था पापा ने एक पल का भी चैन नहीं लिया था। मेरी शादी के बाद से ही पहले तो यही चिंता की छोटी को भी अच्छा लड़का मिल जाये, बिना दहेज की मांग वाला। आज के समय में अच्छा लड़का तो सपना सा ही है, खुशकिस्मती से पापा को एक अच्छा लड़का मिल भी गया। पर समाज में दिखावे का जो चलन है उसके हिसाब का तो ख़र्चा चाहिए ही फिर उसके लिए चाहे रिश्तेदारों से मांगना पड़े या फिर बैंक से कर्ज लेना पड़े जिसे चुकाने के लिए शायद बची हुई उम्र भी कम पड़ जाए।
बैंक से कर्ज लेकर पापा ने जैसे तैसे पैसों की जुगाड़ कर ली। पैसों की जुगाड़ के बाद भी शादी की उलझनों की चिंता में.पापा महीनों से रात को सो भी नहीं पा रहे थे।
शादी का दिन भी आ गया। शादी में इतना खर्चा करने पर भी पापा ने अपने लिये शादी में पहनने के लिए पुराने कपड़े ही चुने क्योंकि उनके हिसाब से उनके कपड़े कौन देखेगा। घर में तरह तरह के पकवान बने पर पापा कुछ खा नहीं सकते थे। उनका व्रत है न... कन्यादान जो करना है। हार्ट के मरीज भी हैं और अपनी दवाई लेना तो भूल ही गए। किसी तरह मैने और बहन ने दूध और केले के साथ दवाई खिला कर ही संतुष्टि ली।
शाम होने लगी और पापा की घबराहट बढ़ रही थी रह रह कर माथे पर फरवरी के महीने में भी पसीना आ रहा था। बारात द्वार पर आ चुकी थी और शादी स्थल लाइट्स से जगमगा रहा था। जैसे जैसे डीजे की आवाज तेज आनी शुरू हुई। घबराहट भी बढ़नी शुरू हो गई जैसे उनका जीवन का ये आखिरी इम्तेहान हो और अगर कोई कमी रह गई तो उसकी भरपाई मुश्किल है।
आखिर बारात आ गई। पापा हाथ जोड़े द्वार पर फूल माला के साथ उनका स्वागत कर रहे थे। बारातियो की संख्या देखकर पापा घबरा गए थे। धीरे से अपने घर और रिश्तेदारों के बीच गए और सबसे निवेदन किया कि बारात के खाने के बाद ही खाने जाए इज्जत का सवाल है बाराति तय संख्या से कुछ ज्यादा ही जान पड़ते हैं ,घर के लोग तो जरूर समझ गए पर रिश्तेदार...! वो कहां समझने वाले होते हैं। लिफाफा दिया है तो बाद में क्यों खाये। फिर भी खाने का कार्यक्रम अच्छी तरह से हो गया।
इसी बीच खबर आई कि बारातियों को बैठने के लिए कुर्सियां कम पड़ गई हैं। बारात में आये कुछ लोग व्यवस्था को लेकर हंगामा करने लगे। उनके अनुसार पापा ने उनका आदर सत्कार ठीक से नहीं किया। क्योंकि वो लड़के वाले है इसलिये कुर्सियों का कम पड़ना उनका अपमान है। बेचारे पापा हाथ जोड़े जोड़े उनके सामने फिर रहे थे।
उनकी उस दशा को जब भी याद करती हूं आज भी आँसू आ जाते है। कोई भी लड़की अपने पिता को किसी के भी सामने गिड़गिड़ाते हुए नहीं देखना चाहेंगी। उस दिन मुझे पहली बार खुद के लड़की होने का दुख हुआ काश मैं लड़का होती तो उन्हें ये दिन न देखना पड़ता। वो लड़के वाले हैं इसलिए नखरे दिखाना अपना गौरव समझते हैं और मेरे पापा को बेटी का पिता होने की सजा मिल रही थी जो उन्हें सबके सामने माफी मांगनी पड़ी।
उन्हें हाथ जोड़े देख रिश्तेदारों में भी खुसर फुसर होने लगी थी सब अपनी अपनी बातें बना रहे थे। कोई कहता इतना खर्चा किया है तो थोड़ी कुर्सियां और माँगवानी चाहिए थी तो कोई कहता मैरिज गार्डन में इतनी शानदार शादी कर रहे थोड़ा कम ज्यादा तो होता रहता है इतनी सी बात में इतने हंगामें की क्या जरूरत।
किसी तरह बारातियों को शांत कर आगे का कार्यक्रम शुरू हो पाया। भले ही उस समय पापा की आंखों से आँसू बाहर न आये हो पर उनका मन कितना रोया ये मैं अच्छी तरह देख पा रही थी।
कन्यादान के समय माँ पापा दोनो ही रोये जा रहे थे। जिस बेटी को खुद से कभी दूर नहीं होने दिया उसे एक पल में किसी अनजान को कैसे सौप दे..? जिन्हें अभी कुछ महीनों पहले से ही जानते हैं कैसे..? कैसे वो अपनी इच्छाएं अपनी खाव्हिशे उन अजनबियों को बता पाएगी.? इसी कशमकश में उन्होंने बहते हुए आंसुओ की धारा में बेटी का कन्यादान भी कर दिया।
और अब सबसे मुश्किल घड़ी आने वाली थी। घर के सब लोग पापा को ढूंढ रहे थे और वो एक कोने में अपने आंसुओ को छुपाये बैठे थे। विदाई की घड़ी आ चुकी थी। बेटी को देखते ही वो खुद को रोक नहीं पाए और बाप बेटी बहुत देर तक गले लग कर रोते रहे.... उस समय पापा रो रो कर एक ही बात बोल रहे थे कि वो दुनिया के रिवाज के आगे कितना मजबूर हैं ..... जो अपनी बेटी को अपने साथ नहीं रख सकते उसके रहने के लिए उन्हें नया घर ढूंढ़ना पड़ा। रो रो कर बेटी से माफी मांग रहे थे।
बेटी की विदाई हुई मानो सब खत्म, मन से भी और धन से भी। बेटी के साथ घर की रौनक और चहल पहल भी विदा हो चुकी थी। मेरी शादी के बाद मुझे लगता था कि शादी में सबसे मुश्किल लड़की के लिए होती है। पर आज एक रात के बाद मैंने पापा की हालत और मनोदशा को जिस तरह पल पल महसूस किया है, अब लगता है कि कितनी गलत थी मैं.....सबसे मुश्किल तो ये उन माँ बाप के लिए है जिनकी बेटी भी गई, घर की दौलत भी गई, बारातियों के हंगामें के कारण इज्जत भी गई और शायद हिस्से में आया तो सिर्फ कर्ज जो उन्होंने बेटी की शादी के लिये लिया है। साथ ही वो दुख, वो चिंता, वो तड़प, वो एहसास जिसे कोई नहीं समझ सकता। क्योंकि अगर कोई मुझसे कहे कि अपने बेटे को एक दिन के लिये खुद से दूर रहने के लिये तो शायद मैं न कर पाऊ और वो बेटी के माँ बाप क्या क्या कर जाते हैें।
दोस्तो हम शायद विदाई के रिवाज को तो नहीं बदल सकते पर लड़का होने के गुरुर को तो मिटा ही सकते है। अरे! लड़के वाले हो तो क्या हुआ तुम से ज्यादा अमीर तो वो बेटी का बाप है जिसकी चौखट पर तुम अपना घर सवांरने के लिए लक्ष्मी लेने आये हो। तुम श्रेष्ठ कैसे हो जाते हो...? महान तो वो है जिसने तुम्हारा घर सवांरने के लिए अपना घर उजाड़ दिया। में रे इस लेख को लिखने का एक ही उद्देश्य है कि चाहे लड़के के पिता हो या लड़की का दोनो ही समान बराबरी रखते है इसलिए लड़की के पिता को कभी नीचा न दिखाए वो भी आपकी ही तरह बराबरी का हक रखता है।
