Amit Kumar Mall

Abstract

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Amit Kumar Mall

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द्विपदी/ मुक्तक

द्विपदी/ मुक्तक

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जंगल ला कर सहन में बसा लिया जानवर आकर , मेरे भीतर रहने लगा

पत्थर फेंकना है तो तराशिये ज़रूर,तहज़ीब और कायदे का ये ज़माना है

ज़माने का नया दस्तूर है अमन के लिए जंग लड़ी जाती है

तमाम कहने,सुनने,मशवरो के बीच मैं ऐलान करता हूँ ढूंढना मत मेरे निशान मैने रंग बदल लिया है

हर चेहरे मे ,मैंने इन्सान ढूँढा है मेरा जुर्म संगीन है मुझे सजा दीजिये 

दुनिया के मसायल छोड़ने पर भीचैन से रहने न दिया, दोस्तो की दुआओ

जिन्दगी तेरी चौखट पे महसूस हो रहा है किताबों में जो पढ़ा था वो किसी पागल ने लिखा था !


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