दोस्ती : एक प्यारा बंधन

दोस्ती : एक प्यारा बंधन

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मैं और ऋषभ बचपन के दोस्त है। हमारा घर भी एक दूसरे के घर के पास था। हम दोनों एक ही स्कूल एक ही क्लास में साथ मे पढ़े है। ऋषभ मिडल क्लास फैमिली से बिलोंग करता था और मैं एक रिच फैमिली से। मेरी फैमिली को कभी हमारी दोस्ती पसन्द नही आई, हम दोनों हर चीज़ बांटते थे। मैं पढ़ाई में बहुत कमजोर था तो ऋषभ मुझे पढ़ाता था। उसके हर साल अच्छे नंबर आते थे और मैं बस पास हो जाता था। मेरी माँ तो फिर भी उसे चाहती थी क्योंकि वो बहुत ही अच्छा था। पर घर के बाकी लोगो को वो बिल्कुल भी पसंद नही था, खास कर मेरे पापा को। उसे देखते ही वो बहुत गुस्सा हो जाते थे, पर फिर भी ऋषभ उनसे मुस्कुरा के ही मिलता था।

ऋषभ की माँ बहुत ही टेस्टी खाना बनाती थी। मैं रोज़ उसी का टिफ़िन खाता था। मेरी हर मुश्किल घड़ी में उसने मेरा साथ दिया। मुझे अच्छे से याद है जब मेरी माँ बीमार पड़ी थी तो रात भर वो मेरे साथ ही जागता था और कुछ देर बाद मुझे सुला कर खुद मेरी माँ की देखभाल करता था। उसी की मेहनत से मेरी माँ जल्दी ही स्वस्थ हो गई थी। जब जब मुझे उसकी जरूरत पड़ी तब तब उसने मेरा साथ दिया।

हम रोज़ मिलते थे, घंटो बाते किया करते थे, साथ खेलते थे, साथ खाते थे। फिर स्कूल खत्म होते ही मेरा दाखिला एक बड़े कॉलेज में हो गया और पैसो की कमी के कारण उसने एक छोटे कॉलेज में एडमिशन ले लिया। फिर हमारा मिलना थोड़ा कम हो गया, मैं अपने नए दोस्तो में बिजी हो गया, वो जब भी घर आता मैं बिजी ही मिलता।

धीरे धीरे हमारा मिलना कम हो गया। मुझे अब उससे मिलने में कोई रुचि नही थी, अब मुझे अपने नए दोस्त ही अच्छे लगते थे। हाँ मेरी माँ जरूर उसे याद करती थी। कुछ दिनों से मेरी तबियत ठीक नही रहती थी, मुझे कुछ खाने का मन नही करता था, उल्टियां होती थी। साँस लेने में भी तकलीफ हो रही थी। डॉक्टर से चेक उप करवाया तो पता चला कि मेरे लंग्स खराब हो गए है मुझे जब तक हॉस्पिटल में रहना पड़ेगा जब तक कोई लंग्स डोनेट न करे। माँ पापा का तो रो रो के बुरा हाल था। पता नही कैसे हमारे बेटे के साथ ये सब हो गया, बहुत दुखी थे दोनो। वो दोनों भी अपनी बीमारियों के कारण मुझे लंग नही दे सकते थे। उन्होंने मेरे दोस्तों से संपर्क किया पर सभी ने मन कर दिया। यह तक कि कोई मुझे देखने हॉस्पिटल तक नही आये। पता नही कैसे ऋषभ को मेरे बारे में पता चल गया वो तुरंत भागते हुए हॉस्पिटल आ गया और मुझे देखते ही गुस्सा करने लगा।


"तूने मुझे इतना पराया कर दिया कि बताना तक ठीक नही समझा। मैं तो तुझे अपना बेस्ट फ्रेंड मानता था, मुझे लगा हम दोनों के बीच कुछ नही छिपा है। लेकिन तूने मुझे गलत साबित कर दिया" और इतना कह कर वो रोने लगा। उसे रोता देख हम सभी भी रोने लगे। उसने कहा तू चिंता मत कर अब मैं आ गया हूँ। सब ठीक हो जाएगा। फिर उसने डॉक्टर से उसका चेकअप करने को कहा और कहा कि जितना जल्दी हो सके आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिये, अपने दोस्त को लंग मैं दूंगा। इतना सुनते ही मेरे पापा ओर माँ रोने लगे। मेरे पापा ने उससे माफी मांगी और कहा "सही मायने में तो तू ही इसका सच्चा दोस्त है। मैं ही तेरी दोस्ती को पहचान नही पाया माफ कर दे बेटा मुझे"


उसने पापा के हाथ पकड़ के उन्हें गले लगा लिया। सब ठीक था दूसरे दिन मेरा आपरेशन भी हो गया, वो भी सफल और सफल होता भी क्यो नही एक सच्चे दोस्त का साथ जो था मेरे साथ। कुछ दिनों के बाद हम दोनों सकुशल घर आ गए। मेरे पूरे परिवार ने उसे अपना दूसरा बेटा माना। सच मे एक सच्चा दोस्त किस्मत वालो को मिलता है और बहुत बेवकूफ होते हैं वो लोग जो ऐसे हीरो को खोते है। मैं बहुत खुशनसीब हूँ की मुझे ऋषभ जैसा दोस्त मिला और अगर मैं जिंदा भी हूँ तो उसी की बदौलत। थैंक यू दोस्त, तेरी हर चीज़ के लिये जो तूने मेरे लिए किया। मैं कभी नही भूल सकता वो सब। थैंक यू और एक बार ज़िन्दगी भर के लिए तूने मुझे अपना कर्ज़दार बना दिया।


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