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Kavita Nandan

Abstract

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Kavita Nandan

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दंगे के दौरान

दंगे के दौरान

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आज ज़िंदा हूँ। इसीलिए हक़ीक़त बया कर रहा हूँ।

मेरी कार जितनी तेज़ दौड़ा सकता था, सड़क पर भाग रही थी। कई जगह लगा कि नहीं बचेंगे पर बचते चले जा रहे थे और शायद बच भी जाते।

यह पूर्वी दिल्ली की सड़क थी। एफ.एम. रेडियो ने बताया कि दंगाईयों की भीड़ पूर्वी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में फैल रही है। अगर आप इस दिशा में आने वाले हैं तो कतई न आएं क्योंकि भीड़ वहशी दरिंदों की तरह बेकाबू हो चुकी है। इतना सुनते ही अमन वर्मा जो कि मेरे बहुत करीबी दोस्तों में से एक हैं, मेरे परिवार के साथ ही कार में बैठे हुए थे। उन्होंने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा " हाँ ! ....डॉक्टर साहब ! कार रोक दीजिए।" मैंने कहा "इस हालत में आपको अकेले कैसे छोड़ सकता हूँ ?" वह फिर बोले ""आप मुझे उतार दें। यह जगह मेरी पहचान वालों की है।" मैंने कहा "जहाँ जाना चाहते हैं बताइए हम सभी साथ चलते हैं।" उन्होंने कहा "नहीं !" मैंने ब्रेक लगाया। कार को बाएं खड़ा किया। वह झट उतर कर गली में पीपल के पेड़ पर चढ़ गए। गली में सन्नाटा पसरा हुआ था। कहीं कोई नहीं था। उन्होंने क्लाइंबिंग में अवार्ड भी जीता है।

दोनों बच्चे कार की पिछली सीट पर सहमे, एक-दूसरे के गले में हाथ डाले बिलकुल ख़ामोशी से बैठे थे। मैंने उन्हें देखा तो लगा रोने लगेंगे। मैंने कहा "पापा के बहादुर बच्चे कौन ?" दोनों ने आज भी एक साथ कहा "हम।" मगर आज उनकी आवाज़ में कंपा देने वाली थर्राहट थी। मैंने पत्नी की ओर देखा, उसने भी मुझे देखा। पत्नी ने कहा "बच्चों ने अभी दुनिया का चलन नहीं देखा है।" हम चारों ने तेज़ रफ्तार के बावजूद एक डरावनी चीख सुनी। एक आदमी को सड़क की दाहिनी ओर भीड़ लाठी-डंडों से मार रही थी। अचानक मेरा पांव ब्रेक पर इतनी ज़ोर से लगा की कार फिसलती हुई सौ मीटर आगे बढ़ गई। उस आदमी के साथ जो बच्चा था भीड़ के कुछ लोग उसे पेड़ की डाल में उल्टा लटका रहे थे। शायद यही दृश्य देखकर अनैच्छिक रूप से कार का ब्रेक लग गया था

मैंने पत्नी से कहा "कोशिश करता हूँ।" तभी किसी ने रॉड से उसके सिर पर मारा और इस बार बच्चे की चीख हमने सुनी थी। आज तक चार-पांच साल के बच्चे को खेलते-चीखते तो ख़ूब सुना था लेकिन ऐसी दर्दनाक चीख पहली बार सुना। पत्नी ने कलाई दबाया। उसकी आँखें कह रही थीं "सब कुछ गंवाना चाहते हो ?" मैंने देखा बच्चे के बाप का ज़िस्म बिलकुल शांत पड़ा हुआ है। भीड़ आगे गली में मुड़ गई है। लड़के के पास खड़ा आदमी माचिस की तीली को बार-बार चला रहा है पर वह जल नहीं रही है। शायद ठंड से माचिस में नमी आ गई होगी। मैंने कहा "शायद मै बच्चे को बचा लूं। मैं अपने बच्चों से नज़र मिला कर जीना चाहता हूँ। हो सकता है यही अपनी मां का इकलौता सहारा हो।" पत्नी ने अपना हाथ हटा लिया। मैंने कहा लौटते वक्त अगर कोई गड़बड़ हुई तो उस सामने वाली गली में भागूंगा और तुम कार से मत उतरना।

बच्चों को लेकर किसी तरह निकल जाना।मैंने देखा भीड़ ने प्रतिशोध में मेरी कार के नीचे जलता हुआ टायर फेंक दिया है। वह बच्चा मेरी गोद में देख भीड़ मेरी ओर दौड़ रही है। मैं उसी सामने वाली गली में भागा। तीन मोड़ के बाद गली के आखिरी छोर पर एक दीवार थी। अब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। एक भारी भरकम महिला ने आवाज़ दिया "ओए ! दीवार फांद जा। उधर मस्ज़िद में नमाज़ी होंगे।" मैंने कहा "...लेकिन मैं हिन्दू हूँ..।" महिला ने डांटते हुए कहा "बच्चा तो मुसलमान है। जा फांद जा।" सचमुच मेरी जान में जान आ गई। मैंने देखा दीवार के पास लगा नीम का पेड़ है जिसकी डाल दीवार पर है। कंधे पर रखकर बच्चे को डाल पर चढ़ाने में कामयाब हो गया लेकिन वह दीवार से कूदने में डर रहा था। भीड़ मुश्किल से सौ मीटर की दूरी पर थी।

मैंने बच्चे को सीने से लगाकर दीवार से छलांग लगा दिया था। नमाज़ियों की भीड़ ने मुझे सहारा देकर मस्ज़िद के चबूतरे पर लिटा दिया था। मैंने बुज़ुर्ग आदमी से कहा "आप लोग चाहे तो मुझे मार सकते हो....मैं हिन्दू हूँ मगर यह बच्चा मुसलमान ही है। मैं इसके बाप को नहीं बचा सका।" उस बुज़ुर्ग ने मुझे सीने से लगा लिया। उसने कहा "जनाब ! इंसानियत हिन्दुओं में ही नहीं होती, मुसलमानों में भी होती है। दरअसल, हम पहले इंसान ही होते हैं। हिन्दू-मुसलमान तो दुनिया बना देती है। ख़ुदा ने तो इंसान ही बनाया था।" मुझे याद आया कि मैं अपने बीवी-बच्चों को तो....।


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