दिल-ए-नादान
दिल-ए-नादान
जब से ईशा यहाँ आयी थी उसने जी भर चिनार के पेड़ देख लिए थे, उनके साये में बैठी थी, उनकी खुशबू को करीब से महसूस किया था उसने। उसे बहुत भाते थे चिनार के पत्ते, जहाँ भी जाती एक न एक बटोर लाती अपनी डायरी में रखने के लिए। बहुत दिलकश वादियाँ थी, आँखों ही आँखों में कुदरत की मनमोहक ठंडक उसने अपने अन्दर समेट लेनी चाही।
'ईSSSशाSSSSS अपना नाम सुनकर वो अपने आपे में लौटी, छोटी-सी पगडण्डी से कूदती-फांदती वो होटल के सामने की सड़क पर आ गयी।
'बहुत देर हो गयी, अब चला जाए' पास आती हई शर्मीला ने कहा,'सुबह जल्दी निकलना है हमें पहलगाम के लिए, थोडा आराम भी कर लेंगे'।
'ईशा भाभी तो यहाँ आकर एकदम बच्ची बन गयी है, अभी देखा मैंने पहाड़ी में दौड़ती फिर रही थी' विरेंन भाई ने मीठी चुटकी ली।
ईशा झेप गयी, वो इतनी गुम थी खुद में कि भूल ही गयी थी पति परेश और उसके दोस्तों की उपस्तिथि। इन हसींन वादियों ने उसके पैरो में जैसे पंख लगा दिए थे, बहुत पड़ा सुना था ईशा ने कश्मीर की ख़ूबसूरती के बारे में, अक्सर फिल्मो में लव सांग गाते हीरो-हीरोइन के पीछे दिखती बर्फ से ढंकी पहाड़ियों पर उसकी नज़रे ठहर जाती थी और उसके रूमानी ख़यालात मचल उठते। कभी सोचा नहीं था गुजरात से इतनी दूर यहाँ घुमने आएगी और इन वादियों में आज़ाद पंछी की तरह उड़ती फिरेगी, इतना खुश उसने खुद को एक अरसे बाद पाया था। बड़ी देर से वे लोग बस घूम ही रहे थे और अब अँधेरा गहराया तो वापस होटल की तरफ चल पड़े।
शाम से ही पहाड़ो पर हलकी बारिश होने लगी थी, इतनी ऊंचाई पर ठण्ड कुछ और भी बढ़ गयी थी। होटल के अपने नर्म बिस्तर पर करवट बदलती ईशा की नींद आँख-मिचौली खेल रही थी, बगल में सोया परेश गहरी नीद में डूबा था। रात काफी गुज़र चुकी थी, उसने एक और बार घड़ी पर नज़र डाली, वक्त जैसे कट ही नहीं रहा था। हैरत की बात थी कि दिन भर घूमने के बाद भी थकान का नाम-ओ-निशान नहीं था। खयालो का काफिला गुज़रता जा रहा था कि एकाएक दो नीली आंखे जैसे सामने आ गयी, किसी पहाड़ी झील-सा नीला रंग लिए हए रशीद की आंखे जो दो दिनों से उन लोगो का ड्राईवर एवं गाइड बना हुआ था, जिस दिन वे लोग होटल में पहुँचे थे परेश ने घूमने के लिए रशीद की ही गाड़ी बुक कराई थी। किसी विदेशी मॉडल-सा दिखने वाला गोरा चिट्टा रशीद स्वभाव से भी बड़ा मीठा था। उसके बारे में एक और बात उन लोगो की पसंद आयी कि वो पास में ही कहीं रहता था और जब वो बुलाते तब उन लोगो की सेवा में हाज़िर हो जाता था।
इन दो दिनों में ही रशीद ने उन्हें तकरीबन हर घूमने लायक जगह दिखा दी थी, ईशा रशीद से उन जगहों के बारे में बहुत-सी बाते पूछती और रशीद से ली जानकारी अपनी डायरी में लिखती जाती। ईशा को डायरी लिखने का शौक था, उसके हर अच्छे बुरे अनुभव की साक्षी थी उसकी डायरी। बाकि लोग अपने काम से काम रखने वाले लोग थे मगर ईशा के बातूनीपन की वजह से रशीद और ईशा के बीच खूब बाते होती थी और लगभग एक ही उम्र होने की वजह बहुत सी बातो में दोनों की पसंद भी मिलती थी। अक्सर ड्राईवर के ठीक पीछे वाली सीट में बैठी ईशा जब कभी अचानक सामने देखती, शीशे में उसकी और रशीद की नज़रें टकरा जाती, झेंप कर ईशा नज़रे घुमा लेती और रशीद भी कुछ शर्मा जाता। उसके साथ हुई बातों से ईशा को पता चला की रशीद पढ़ा-लिखा था और किसी बेहतर काम की तलाश कर रहा था, छोटी बहन की शादी की ज़िम्मेदारी उसके कंधो पर थी थी जिसके लिए उसे पैसो की ज़रुरत थी। उसकी सादगी भरी बातों से ईशा के दिल में एक हमदर्दी हो गयी थी उसके प्रति, जिसमे दोस्ती की महक भी शामिल थी।
अहमदाबाद के रहने वाले परेश और ईशा की शादी को कम ही अरसा हुआ था, मर्ज़ी के खिलाफ हई इस शादी से ईशा खुश नहीं थी। पारंपरिक विचारो वाले परिवार में पली बड़ी ईशा अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी मगर जब मैनेजमेंट की पढाई के बीच ही घरवालो ने एक खाते-पीते व्यापारी परिवार के लड़के परेश से रिश्ता तय कर दिया तो ईशा के सपने अधूरे ही रह गए थे कुछ कर दिखाने के। किसी ऊँची नौकरी में वो अपनी काबिलियत साबित करना चाहती थी और बहुत झगड़ी थी घरवालो से पर पिता ने बीमार होने का जो ज़बरदस्त नाटक खेला था उस दबाव में आकर ईशा ने हथियार डाल दिए थे, ऊपर से माँ ने भी पिता का ही साथ दिया और ईशा को समझाया कि'तुम्हे कौन सी नौकरी करनी है ससुराल में, व्यापारी परिवार की बहुएं तो बस घर संभालती है,' ईशा को कोफ़्त होती थी इस दकियानूसी सोच पर कि औरते बस घर बनाती है चाहे इसके लिए उनके खुद के सपने क्यों ना बिखर जाए।
शादी के बाद पति परेश के स्वभाव का विरोधाभास भी दोनों के बीच की दिवार बना, दोनों मन से जुड़ ही नहीं पाये थे कभी, एक फासला हमेशा बरकरार रहता जिसे कभी न ईशा भर पायी न ही परेश। जिस मलाल को लेकर ईशा का मन आहत था, परेश ने कभी उस पर प्यार का मरहम तक लगाने की कोशिश नहीं की। घर का एकलौता बेटा परेश अपने पिता साथ खानदानी कारोबार में मसरूफ रहता और सुबह का निकला देर रात ही घर लौट पाता था।
एक बंधे-बंधाये ढ़र्रे पर ज़िन्दगी बिताते परेश और ईशा नदी के दो किनारों जैसे थे, जो साथ चलते तो है मगर कभी करीब नहीं आ पाते। ईशा पैसे की अहमियत समझती थी मगर सिर्फ पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता ज़िन्दगी के लिए, परेश उसके लिए वक्त निकालने की कोई ज़रुरत तक नहीं समझता था, ये और बात थी की दोनों हमबिस्तर तो होते मगर वो मिलन सूखी रेत पर पानी की बूंदों जैसा होता जो ऊपर ही ऊपर सूख जाता है अन्दर तक भिगोता ही नहीं था।
चुलबुली और बातूनी ईशा शादी के बाद उत्साहहीन और संगीन रहने लगी थी, परेश उसकी ख़ामोशी को ही उसकी हर इच्छा समझ लेता था। आम पतियों की तरह परेश उस पर जब-तब रौब नहीं गांठता था, दोनों के बीच कोई खटास या मनमुटाव भी नहीं था मगर वो कशिश भी नहीं थी जो दो दिलो को एक दूजे के लिए धड़काती है।
विरेंन और परेश की दोस्ती पुरानी थी और दोस्त को दोस्त का हाल खूब पता था। विरेंन ने एक दिन परेश को सुझाव दिया कि ईशा के साथ कुछ वक्त अकेले में बिताने के लिए दोनों को घर से कहीं दूर घूम आना चाहिए। ईशा जानती थी विरेंन भाई उनके हितैषी है मगर परेशानी ये थी कि परेश के मन की थाह ईशा अभी तक नहीं लगा पायी थी, जितना तठस्थ परेश उससे रहा ईशा ने भी कोई कदम नहीं उठाया था उस दूरी को मिटाने के लिए। अपने घरवालो की मनमर्जी का बदला एक तरह से वो अपनी शादी से ले रही थी। ये बात उसके मन में घर कर गयी थी कि कहीं न कहीं परेश भी उतना ही दोषी है जितना ईशा के माँ-बाप, वो सबको दिखा देना चाहती थी कि वो खुश नहीं है इस ज़बरदस्ती थोपे गए रिश्ते से।
शादी के बाद कुछ कारोबारी ज़िम्मेदारियों के चलते दोनों कहीं जा नहीं पाए थे और ईशा ने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई थी तो एक तरह से उनका हनीमून कभी हुआ ही नहीं और अब जब अकेले घूम आने की चर्चा हुई तो ईशा को लग रहा था कि परेश और वो जल्दी ही ऊब जायेंगे एक दुसरे के साथ तो उसने विरेन और उसकी पत्नी शर्मीला को साथ चलने का इसरार किया। सबने मिलकर जगह का चुनाव किया और इस तरह वे लोग कश्मीर आ गए।
रात के अँधेरे में हाउस बोटों की रौशनी जब पानी पर पड़ती तो किसी नगीने सी झिलमिलाती झील और भी खूबसूरत लगती, पानी में बनते बिगड़ते रंगीन रौशनी को घंटो निहारती रही ईशा। कदम-कदम पर अपना हुस्न बिछाए बैठी कुदरत ने उसके दिल के तार झनझना दिए। उसकी ख्वहिश होती कि परेश उसके करीब आये, उससे अपने दिल की बात करे, अपने अहम् को कुचल कर वो खुद पहल नहीं करना चाहती थी। उनके पास बेशुमार मौके थे इन खूबसूरत नज़ारों में एक दुसरे के करीब आने के अगर परेश भी यही महसूस करता। वो मन ही मन कुड़ जाती जब परेश और विरेन भाई की कारोबारी बाते शुरू हो जाती थी, शर्मीला और ईशा दोस्त ज़रूर थी मगर दोस्ती उतनी गहरी भी नहीं थी कि ईशा अपना दुखड़ा रोती, ऐसे में वो खुद को और भी तनहा महसूस करती।
बहुत देर तक यूँ ही अकेले बैठे ईशा का मन उब गया तो वो कमरे में आ गयी, परेश वहां नहीं था, शायद जामों का दौर अभी और चलेगा, उकता तक उसने एक किताब खोली फिर झल्ला कर उसे भी बंद कर दिया।
'चलो शर्मीला से गप्पे लडाई जाये' उसने सोचा, शर्मीला और विरेंन भाई बगल के कमरे में ठहरे थे। कमरे के पास पहुँँच कर उसने दरवाजे पर दस्तक दी, कुछ देर इंतज़ार के बाद कोई ज़वाब ना पाकर ईशा उलटे पैर लौट आयी अपने कमरे में और बत्ती बुझा कर उस तन्हाई के अँधेरे में बिस्तर पर निढाल हो गयी, आंसू की गर्म बूँदें तकिया भिगोने लगी, नींद आज भी खफ़ा थी।
दुसरे दिन सुबह जल्दी उठकर सब लोग घुमने निकल पड़े थे, रशीद हमेशा की तरह उन लोगो के बताये समय पर हाज़िर था। रास्ता पैदल चढ़ाई का था, उन पहाड़ी रास्तो को तेज़ कदमो से लांघती-फांदती ईशा जब ऊपर चोटी पर पहुँँच कर किसी उत्साही बच्चे की तरह विजयी भाव से खिलखिलाने लगी तो रशीद ने पानी की बोतल उसे थमाई, ईशा ने ढलान की ओर देखा सब लोग कछुए की चाल से आ रहे थे। चारो तरफ घने जंगलो से घिरी छोटी-सी ये घाटी बहुत लुभावनी लग रही थी, फ्रेम में जड़ी किसी तस्वीर की तरह।
'आप तो बहुत तेज चलती है मैडमजी' रशीद हैरान था उसे देखकर, शहर की कमसिन दिखने वाली ये लड़की कैसे इन पहाड़ी रास्तो पर चल पा रही थी।
ईशा ने अपनी दोनों बाहे हवा लहरा दी, आँखे बंद करके एक गहरी सांस ली, ताज़ी हवा में देवदार और चीड़ की खुश्बू बसी थी।
'तुम किस्मत वाले हो रशीद जो यहाँ रहते हो, इस ख़ूबसूरती के बीच' ईशा मुग्ध स्वर में बोली।
एक मुस्कराहट भरी नज़र फेंकी रशीद ने उस पर, आज से पहले किसी टूरिस्ट ने उससे इतनी घुलमिल कर बाते नहीं की थी। ईशा के सवाल कभी थमते नहीं थे और रशीद को अच्छा लगता था उससे बाते करना। ढलानों पर दौड़ती गुनगुनाती ईशा बड़ी मासूम सी लगती थी।
अब तक बाकी लोग भी ऊपर आ चुके थे, उस सीधी चढ़ाई से परेश, विरेंन और शर्मीला बुरी तरह हाफ़ने लगे थे। थका सा परेश एक बड़े पत्थर पर बैठ गया तो ईशा को ना जाने क्यों हंसी आ गयी, काम में उलझा परेश खुद को चुस्त रखने के लिए कुछ नहीं करता था। विरेन भाई ने कैमरा संभाला और सबकी तस्वीरे लेने लगे, वे लोग अभी मौसम का लुत्फ़ ले ही रहे थे की एकाएक आसमान में बादल घिर आये और देखते ही देखते चमकती धूप में भी झमाझम बारिश शुरू हो गयी, जिसको जहाँ पनाह मिली वही दौड़ पड़ा बारिश से बचने के लिए।
बारिश ने बहुत देर तक रुकने का नाम नहीं लिया तो उन लोगो ने घोड़े किराये पर ले लिए होटल तक वापस लौटने के लिए। पहली बार घोड़े पर बैठी ईशा बहुत घबरा रही थी, बारिश के कारण रास्ता बेहद संकरा और फिसलन भरा हो चला था। बाकि घोड़े न जाने कब उस बारिश में आँखों से ओझल हो गए, रशीद ईशा के घोड़े की लगाम पकडे साथ चल रहा था, ईशा का डर दूर करने के लिए वो घोड़े को धीमी रफ़्तार से ले जा रहा था।
'और धीरे चलो रशीद वर्ना मै गिर जाउंगी' ईशा को डर था कि ज़रूर उसका घोडा इस पतली पगडण्डी में फिसल पड़ेगा और साथ में वो भी गिर जायेगी।
'आप फ़िक्र मत करो मैडम जी आप को कुछ नहीं होगा, धीरे चले तो बहुत देर हो जाएगी' रशीद दिन-रात इन रास्तो का अभ्यस्त था, उसने घोड़े की लगाम खीच कर थोडा तेज़ किया ही था कि वही हुआ जिसका ईशा को डर था। घोडा ज़रा सा लड़खड़ा गया और ईशा संतुलन खोकर उसकी पीठ से फिसली, एक चीख उसके मुह से निकल पड़ी। रशीद ने लपक कर उसे थाम लिया और दोनों ही गीली जमीन पर गिर पड़े। ईशा के घने बालो ने रशीद का चेहरा ढांप लिया, दोनों इतने पास थे की उनकी साँसे आपस में टकराने लगी। रशीद के स्पर्श उसे ऐसा लगा जैसे बिजली का तार छु गया हो, रशीद की बलिष्ट बाहों ने उसे घेरा हुआ था, उस अजीब सी हालत में दोनों की आँखे मिली तो ईशा के तन बदन में जैसे आग लग गयी थी। चिकन की कुर्ती भीग कर उसके बदन पर चिपक गयी थी, मारे शर्म के ईशा का चेहरा लाल हो उठा, उसकी पलके झुकी जा रही थी, उसने पूरी चेष्ठा से खुद को अलग करने की कोशिश की, दोनों को उस फिसलन भरी डगर पर वक्त लग गया सँभलने में।
पूरे रास्ते दोनों खामोश रहे, उस एक पल ने उनकी सहज दोस्ती को जैसे चुनौती दे दी थी। बेखुदी में ईशा को कुछ याद नहीं रहा कि कब वो होटल पहुँची, गेट से अन्दर आते ही उसने देखा परेश, विरेन भाई और शर्मीला होटल की लाबी में बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे थे।
परेश लपक के उसके पास आया, ईशा के कपड़ो में मिट्टी लगी थी, उसने बताया कि वो घोड़े से फिसल गयी थी तो परेश एकदम चिंतित हो उठा, शर्मीला और विरेन को भी फ़िक्र हो गयी। ईशा ने जब तीनो को आश्वस्त किया कि वो एकदम ठीक है और उसे कुछ नहीं हुआ तो सबको तसल्ली हुयी।
शावर की गर्म बौछार में भीगती बड़ी देर तक वो अपने बालो से मिट्टी छुड़ाती रही, जितना ही वो खुद को सयंत करने की कोशिश करती उतनी ही और बैचेन हो जाती, आज की घटना रह रह कर विचलित कर रही थी। आँखे बंद करते ही रशीद का चेहरा उसके सामने आ जाता, उन बाहों की गिरफ्त अभी तक उसे महसूस हो रही थी, ऐसा क्यों हो रहा था उसके साथ वो समझ नहीं पा रही थी, पहले तो कभी उसे ये अहसास नहीं हुआ था तब भी नहीं जब परेश रात के अँधेरे में बिस्तर पर उसे टटोलता।
परेश ने उसके लिए सूप का आर्डर दे दिया था और खाना भी कमरे में ही मंगवा लिया था।
'ईशा अभी घर से फ़ोन आया था जब तुम लौटी नहीं थी, मुझे कल वापस जाना होगा' परेश ने खाना खाते हए बताया।
'अचानक इस तरह क्यों, हम तो दो दिन बाद जाने वाले है न?' ईशा ने पुछा
'तुम नहीं बस मै जाऊंगा, कुछ ज़रूरी काम आ गया है बिज़नस का और मेरा जाना ज़रूरी है, मगर तुम फ़िक्र मत करो मैंने सब एडवांस बुकिंग करवाई है, कल सुबह हम लोग श्रीनगर जा रहे है जहाँ से मैं एअरपोर्ट चला जाऊँगा।
'तो फिर मै वहां अकेली क्या करुँगी, दो दिन बाद चलेंगे तो क्या फर्क पड़ेगा? ईशा को ये बात अटपटी लग रही थी कि दोनों साथ में छुट्टिया बिताने आये थे और अब इस तरह परेश अकेला वापस जा रहा है।
'अगर मै कल नहीं पंहुचा तो बहुत नुक्सान हो जाएगा, ये डील हमारे बिज़नस लिए बहुत ज़रूरी है। देखो, तुम समझने की कोशिश करो वैसे भी तुम कुछ दिन और रुकना चाहती थी, घूमना चाहती थी और फिर तुम अकेली नहीं हो, विरेंन और शर्मीला भाभी तुम्हारे साथ है, तब तक घुमो फिरो, यहाँ काफी कुछ है देखने के लिए' परेश ने बात ख़त्म की।
परेश के स्वभाव की यही खासियत थी कि वो दिल का बहुत उदार था। बड़े इत्मीनान से खाना खाते हए परेश को देखकर ईशा को उसके प्रति अपनी बेरुखी कहीं कचोट रही थी। बेशक वो चाहता तो ईशा को अपने साथ चलने के लिए मजबूर कर सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
ये ईशा की ही ज़िद थी कि कुछ दिन और रुका जाए जिसे परेश ने मान भी लिया था, वजह क्या थी उसे समझ नहीं आ रहा था पर अब परेश का इस तरह बीच में ही उसे अकेला यहाँ छोड कर जाना भी उसे अच्छा नहीं लग रहा था। एक शाल लपेट कर ईशा कमरे से सटी बालकनी में आ गयी, ठंडी हवा ने बदन को सिहरा दिया, होटल के बाहर की सड़क पर इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे, होटल में रुके हए टूरिस्ट दिन भर की थकान के बाद आराम कर रहे थे, चारो तरफ नीरवता पसरी थी।
ईशा का ध्यान गेट के पास टिमटिमाती रौशनी पर गया, ये उनकी गाड़ी थी जो उन लोगो ने किराये पर ली थी। सुबह उन्हें जल्दी निकलना था तो रशीद ने गाड़ी वही खड़ी कर दी थी, उस अँधेरे में भी ईशा ने रशीद की आंखे पहचान ली, वो ईशा को ही देख रहा था और उसने हाथ से कुछ इशारा किया।
परेश टीवी पर खबरे देखने में व्यस्त था, ईशा कमरे से निकल कर लाबी से बाहर गेट पर आयी।
'क्या बात है? ईशा उसके पास आयी, उसके लहज़े में संकोच था, कितनी नादान थी वो रशीद के एक इशारे पर दौड़ी चली आयी।
रशीद करीब आया और अपनी अपनी जीन्स की जेब से कुछ निकाल कर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया।
होटल के गेट से आती रौशनी में ईशा ने देखा, उसके कान का एक झुमका था, अनायास हाथ कान पर चला गया, एक झुमका गायब था। जब वो घोड़े से फिसली तब गिर गया होगा, मगर एक मामूली झुमकी के लिए रशीद इतनी देर से क्यों उसका इंतज़ार कर रहा था, अब तक तो उसे चला जाना चाहिए था। ईशा ने रशीद की तरफ देखा जो ना जाने कब से टकटकी लगाये उसे ही देख रहा था।
'ये तुम सुबह भी दे सकते थे' ना चाहते हए भी उसकी आवाज़ में तल्खी आ गयी।
'मुझे लगा आप इसे ढूंढ रही होंगी' रशीद बोला और पलटकर तेज़ कदमो से सड़क के उस पार चला गया।
नींद फिर से आँख मिचोली खेलने लगी थी उसके साथ, उसने अपनी तरफ के साइड लैंप को जला कर डायरी निकाल ली और बड़ी देर तक कुछ लिखती रही। जब लिखना बंद किया तो ख्यालो ने आ घेरा उसे शादी के दिन से अब तक परेश के साथ बिताये लम्हे याद आने लगे। परेश उसकी ख़ुशी का ध्यान रखता था ये बात उसने जान कर भी कभी मानी नहीं, उसके अहम् ने एक पत्नी को समर्पण कभी करने नहीं दिया, परेश ने कभी उस पर अपनी इच्छा नहीं थोपी थी और ईशा इस बात से और भी परेशान हो जाती, आखिर वो किस बात का बदला ले परेश से। उसके सपनो के बारे में उसने परेश को तो कभी बताया ही नहीं था तो उसे कैसे मालूम होता कि ईशा क्यों खफा है ज़िन्दगी से, आज उसके अन्दर ये परिवर्तन अचनाक कैसे आ गया था। परेश के लिए उसके दिल में कोमल भावनाए जाग गयी थी जो अब तक निष्ठुर सो रही थी। जो रिश्ता सूखे ठूंठ सा था, वहीँ से एक कोपल फूट निकली थी आज।
सुबह के ना जाने किस पहर में ईशा को नींद आ गयी और वो बेसुध सो रही थी जब परेश उसे बार बार जगाने की कोशिश कर रहा था। हड़बड़ी में उठकर ईशा जल्दी से तैयार होकर सबके साथ गाड़ी में जा बैठी।
तेज़ रफ़्तार से गाड़ी भाग रही थी, दिलकश नज़ारे पीछे छूटते जा रहे थे, ईशा जितनी बार सामने की तरफ देखती, दो नीली आंखे उसे ही देख रही होती, ये हर बार इत्तेफ़ाक नहीं हो सकता था। सब खामोश थे, रेडियो पर एक रोमांटिक गाना बज रहा था, 'प्यार कर लिया तो क्या...प्यार है खता नहीं...। किशोर कुमार की नशीली आवाज़ में गाने के बोल और भी मुखर हो उठे। रशीद ने जानबूझकर वॉल्यूम बड़ा दिया था और एक बार फिर शीशे में दोनों की आँखे मिली, सबकी नज़रो से बेखबर।
ईशा का दिल जैसे चोर बन गया था, उसे खुद पर ही शर्म आने लगी। परेश को अभी निकलना था अहमदाबाद के लिए, अभी दो दिन और ईशा को यही रहना था और इन दो दिनों में वो इसी तरह रशीद की गाड़ी में घूमते रहेंगे। बार बार एक ख्याल उसके दिल में चुभ रहा था कि ये कुछ गलत हो रहा है। बीती शाम की बाते ईशा भूली नहीं थी और रात को जब वो रशीद से मिली थी तो उसकी आँखों में अपने लिए जो कुछ भी महसूस किया था, उसे यकीन था इन दो दिनों का साथ उस आग को और भड़का देगा। अचनाक उसे परेश की ज़रुरत मह्सूस होने लगी, वो परेश की पत्नी है और किसी को भी हक़ नहीं है उसके बारे में इस तरह सोचने का। उसने अपना सर झटक कर इन ख्यालो को भी झटक देना चाहा। नहीं, इन सब बातो का उसके लिए कोई मतलब नहीं है, माना की उसके और परेश के बीच प्यार नहीं था मगर किसी और के लिए भी वो अपने दिल को इस तरह नादान नहीं बनने देगी, हरगिज़ नहीं' उसने खुद को ही यकीन दिलाया।
एअरपोर्ट पहुँच कर जब सब गाड़ी से उतरे तो ईशा ने परेश के साथ ही अपना बैग भी उतरवा लिया।
'तुम क्यों अपना सामान निकाल रही हो? परेश ने उसे चौंक कर देखा।
'मैं आपके साथ ही आ रही हूँ, टिकट तो मिल जाएगी न'
उसके इस अचानक लिए फैसले से विरेन और शर्मीला भी चौक गए, कल तक तो वो बहुत उतावली हो रही थी यहाँ कुछ और दिन बिताने के लिए।
'ईशा भाभी परेश भाई के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती, आज पता चला इनके दिल का हाल, किस्मत वाले हो परेश भाई' शर्मीला ने ईशा को और परेश को छेड़ा।
परेश भी एक सुखद आश्चर्य से भर उठा, क्या सच में ईशा के दिल में उसके लिए प्यार छुपा था?
धूप का चश्मा आँखों पर लगा ईशा ने आखों के कोनो से देखा, रशीद गाड़ी के बाहर खड़ा उन लोगो का इंतज़ार कर रहा था, अपनी नीली आँखों से निहारता हुआ।
फ्लाइट का वक्त हो चला था, दोनों गेट की ओर बढ़ने लगे तो शर्मीला और विरेंन ने हाथ हिलाकर उन्हें विदाई दी।
ईशा ने मुड कर देखा, रशीद के चेहरे पर हैरानी और उदासी थी मगर ईशा का दिल शांत था फिर अचानक उसे कुछ याद आया, वो पलटी और रशीद के पास आयी।
'आप जा रही हो, आपने बताया नहीं? कुछ आहत से स्वर में रशीद ने पूछा।
अपना हैंडबैग खोल कर उसने एक लिफाफा निकाल कर रशीद की तरफ बड़ा दिया, सवालिया नज़रो से रशीद ने उसे देखा।
'तुम्हारी बहन की शादी में तो मै आ नहीं पाऊँगी तो मेरी तरफ से ये उसके लिए है' रशीद ने इनकार किया तो ईशा ने बड़े अधिकार से उसका हाथ पकड़ कर लिफाफा हाथ में थमा दिया।
एक आखिरी बार फिर दो जोड़ी आँखे मिली, और एक प्यारी मुस्कराहट के साथ ईशा ने विदा ली।