धुँध
धुँध


जिंदगी जब नाकामयाबियों से भरी हो तो जरा आस-पास नजरें उठाकर तो देखना, देखना और सोचकर बताना क्या कोई तुम्हें ढूंढ रहा है ? नहीं ना ! सच्चाई यही है, सब जानते हैं पर उस वक़्त कैसा महसूस होता है ये सब बयाँ नहीं कर सकते । ये कहानी एक सच्ची घटना पे आधारित है , बस स्थान और पात्रों के नाम निजता को ध्यान में रखते हुए बदल दिए गये हैं । ये कहानी है उस लड़के की जिसकी तारीफें करते लोग थकते नहीं थे, उसमें सबको ओज और तेज नज़र आता था , कल्पानायें सबकी ऐसी विराट मानो वो किसी महान कार्य के लिए बना हो , पर जैसे ही वक़्त ने समय के साथ करवट ली , जैसे ही वो बालक धीरे-धीरे दिशाविहीन हो चला , न जाने किस हेतु की सिद्धि के लिए वो बना था और ना जाने कहाँ किस ओर निकल पड़ा, वो सुहावनी सी भीड़ छटने लगी , बोल बदलने लगे, जिन हृदयों में प्रेम की अनुभूति बिना जताए सहज ही महसूस हो जाती थी वो अब दूर से ही परायेपन में लिपटी धड़कनों का आभास करवाने लगे थे । समय की धार में सब सवार हो मदमस्त हुए चले जा रहे थे और साथ लेने की मंशा तो दूर, उस पंछी के बराबर भी सरोकार का भाव नहीं बचा था उनमें जिसने नदी में डूबते चींटीं को पत्ते का सहारा दिया था । सामान्य रूप से ये कहानी किसी दुःख या व्यथा को प्रकट करने के उद्देश्य से नहीं लिखा जा रहा है, अपितु वर्तमान में प्रेम का स्वरुप कैसे आर्थिक और सामाजिक बल के हिसाब से बदलता रहता है, ये कहानी बस इन्ही अनुभवों को साझा करने हेतु लिखा जा रहा है ताकि जो कहीं लोग इस मोह में उलझे हुए हों की अरे "उनकी मुझसे प्रीती तो अतुल्य है, सारे स्वार्थों और परिश्थितिओं के पार है" उनकी भावनाओं पे परा ये प्रेम रुपी छलावा का चादर हटे, और वो भी इस यथास्थिति को जान पाएं, और समझें , की दिन फिरेंगे, तो वो औंधे मुंह गिरेंगे।।