सतविन्द्र कुमार राणा

Inspirational Romance

4.7  

सतविन्द्र कुमार राणा

Inspirational Romance

देख सोणा

देख सोणा

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632


दोनों में प्रतिस्पर्धा रहती थी अव्वल आने की। सतबीर और संगीता, पहली कक्षा से आठवीं तक सहपाठी रहे। पारिवारिक आर्थिक स्थिति के मामले में सतबीर एक दम निर्धन छोटे किसान परिवार का लड़का था और संगीता गाँव के बड़े जमींदार के साले की लड़की। अपनी बुआ के घर रहकर पढ़ाई कर रही थी। ये उन दिनों की बात है, जब देहात में सरकारी विद्यालय ही शिक्षा का एक मात्र केंद्र होते थे। गाँव की हर बिरादरी के बालक वहीं पढ़ने आते थे। पाँचवी कक्षा तक तो वर्दी की भी कोई बाध्यता नहीं होती थी। सतबीर पाँचवीं कक्षा तक पट्टे का पायजामा पहन कर आता था। जिसे इतवार को ही छुट्टी मिलती थी और उसी दिन उसकी धुलाई का उपक्रम किया जाता था, पर उसके रंग पर कोई ज्यादा फर्क न पड़ता था। पढ़ाई के मामले में उसे भले कभी सजा न मिली हो लेकिन इसकी सफाई के मामले में बहनजी उसको गाहे-बगाहे कक्षा में खड़ा कर ही देती थी। प्रार्थना सभा में खड़े होने से बचने के लिए ही शायद वह देरी से स्कूल आता था। आठवीं कक्षा तक उसके पैरों में जूते दिखाई न दिए थे कभी। साधारण चप्पल या नंगे पैर ही विद्यालय आना होता था उसका। जब चप्पल टूट जाती तो कई बार नंगे पैर ही चल पड़ता विद्यालय की ओर, फिर ऐसा गर्मी के दिनों में हो या सर्दी के दिनों में। कभी-कभी तो महिलाओं वाली चप्पल पहने भी चला आता था। नहाने का उपक्रम वह रोज जरूर करता, लेकिन उसके हुलिए से ऐसा प्रतीत कम ही होता था। नहाने का साबुन तो घर में तब ही दिखाई देता था, जब कोई मेहमान उनके घर आया हुआ होता। मेहमान को नहलाने की व्यवस्था के दौरान ही यह दिखाई जो देता था। इसीलिए उसके घर पर इस साबुन को 'पाहुणे आली साबन' ही कहा जाता था। इंसान की फितरत में दिखावे का बड़ा महत्व है। सतबीर के पास दिखावा करने के लिए कुछ था ही नहीं। उससे अनचाहे ही वह दरिद्रता झलक जाती थी, जिसे हर कोई छुपाने का अभिनय करता है। लेकिन समाज में ऐसे लोगों की कमी कभी नहीं रहती जो दूसरों को नीचा दिखा कर भी उन पर एहसान कर जाते हैं। ऐसे ही कुछ पड़ोसी शुभचिंतक थे सतबीर के परिवार के। ये वो लोग थे जो रात की बची हुई सब्जी, अगले दिन दोपहर को सतबीर के घर दे जाते थे, यह कहकर की ज्यादा बन गयी थी, बालक खा लेंगे। सतबीर की भोली माँ बड़ी कृतज्ञता से उसे ग्रहण कर लेती थी और सतबीर व उसके भाई इसे खा लेते थे। यही पड़ोसी अपने बच्चों के अनुपयोगी कपड़े देकर भी सतबीर के परिवार पर बड़ा एहसान कर देते थे। एक बार इसी प्रकार के कपड़ों की जोड़ी सतबीर पहन कर स्कूल में गया। पाँचवीं कक्षा में पहली बार वह अपनी दैनिक पोशाक से अलग कुछ पहन कर गया था। उस दिन संगीता ने पहली बार कहा था, "तू इसे ही कपड़े पहरया कर, देख कितना सोणा लाग रया आज! (तू ऐसे ही कपड़े पहन लिया कर, देख आज कितना सुन्दर लग रहा है।)"

उसको खुद को सुंदर कहलवाना जितना सुख कर लगा, उन कपड़ों का स्पर्श उतना ही चुभा भी था उस समय।

ख़ैर, जब तक वह और बड़ा हुआ तो उसके मन में स्वाभिमान की भावना का भी विकास हुआ। एक दिन जब एक पड़ोसन बासी सब्जी लेकर उनके घर आती दिखी तो वह झट-से घर के अंदर गया। जब उसे अंदाजा हुआ कि वह उनके घर में घुसने ही वाली है तो सतबीर अपनी माँ से थोड़े ऊँचे स्वर में बोला, "माँ ये पड़ोसन जो सब्जी दे कर जावैं, तू के समझै यें ताजी-ताजी ही सब्जी होवैं? यें बासी, जो तीसरे टैम भी बची रह ज्यां, वे दे कै जावैं हैं।"

उसकी आवाज़ सुन कर पड़ोसन ठिठक गयी। सतबीर की माँ बोली, " चलो बासी ही सही। थारी कुछ तो चिंता करैं हैं, बेचारी भली आदमन।"


इस पर सतबीर थोड़ा और ऊँची आवाज़ में बोला, " अगर चिंता करैं तो यें जब बनावैं, उसी टैम क्यूँ नी दे जाती? या काच्ची ही सब्जी दे जाया करैं, बना तो हम खुद लिया करैंगे। अरी भोली माँ, यें वह चीज दे कै जावैं जो कूड़े पर फेकने की होवै और म्हारे ऊपर एहसान धर कै चलती बनैं। हम नमक या चटणी के साथ ही रोटी खा ल्याङ्गे। इतना बासी खाने से हम बीमार भी हो सकैं हैं। अबकी बार कोई भी यूँ सब्जी ले कै आयी तो उस पे से लेते ही कूड़े पे फेंक दूँगा, याद राखिए माँ।"


पड़ोसन को आईना दिख गया था इसलिए वह उल्टे पाँव हो ली। जाते-जाते सब्जी कूड़े पर फेंक गयी। इसके बाद सतबीर के परिवार पर ऐसे एहसान होने बंद हो गए।

संगीता क्योंकि बड़े किसान परिवार से थी इसलिए यह उसकी वेशभूषा से ही परिलक्षित हो जाता था। बहुत कम बोलने वाली, लेकिन पढ़ने में होशियार। सतबीर के प्रति उसके मन में आकर्षण और जलन दोनों भावों का समावेश था। सतबीर जिससे किसी कन्या को आकर्षित कर पाता वैसा एक मात्र गुण उसका पढ़ाई में अव्वल होना ही था। यही कारण था उसके प्रति संगीता के मनोभावों का। उस समय हरियाणा में मिडल कक्षा की बोर्ड परीक्षाएं होती थी। परीक्षा परिणाम में संगीता और सतबीर दोनों ने जिले में क्रमशः पहला और दूसरा स्थान प्राप्त किया। अब संगीता की बुआ का लड़का चार साल का हो चुका था। शादी के कई साल बाद तक उसकी बुआ को कोई बच्चा नहीं हुआ था, इसलिए वह उसे ले आई थी, ताकि घर में मन लगा रहे। लेकिन अब संगीता की परीक्षा खत्म होते ही उसके पिता उसे अपने घर ले गए। नवीं कक्षा में जब दाखिले हुए तो संगीता नहीं आई। जब कक्षा शुरू हुए कई दिन हो गए और संगीता न दिखी तो सतबीर का मन बेचैन होने लगा। उसे अपने अध्यापक से ही वस्तुस्थिति का पता चला। कुछ दिन उसका मन खिन्न तो रहा लेकिन फिर दैनिक कार्यों और पढ़ाई में व्यस्त हो गया। ऐसा ही संगीता के साथ भी हुआ।

चार साल बाद पंडित भगवत दयाल शर्मा मेडिकल इंस्टिट्यूट में सतबीर का पहला दिन था। हरियाणा में करनाल में गाँव गोंदर से उसके पी एम टी परीक्षा में अव्वल स्थान मिलने से जिले भर में उसका चर्चा हुआ, साथ ही साथ हरियाणा के प्रतिष्ठित मेडिकल संस्थान में उसको प्रवेश भी मिल गया। पहले ही दिन डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाली छात्राओं की टोली ने कैंटीन के पास उसे टोका, " नए हो?"

"जी, हाँ।"

उनमें से एक बोली, "तभी तो।"

"मतलब?"

"कॉलेज के कायदे नहीं जानते कुछ।"

"मैं समझा नहीं?"

"अरे! हम सीनियर हैं तेरे। तुझे सीनियर से पोलाइटली पेश आना चाहिए।", एक छात्रा रौब झाड़ते हुए बोली।

"चलो कैंटीन की कुर्सियों पर बैठते हैं, फिर बात करेंगे।", दूसरी ने पहली वाली की ओर इशारा करते हुए कहा।

सब वहाँ जा बैठे। फिर जिस लड़की ने बात शुरू की थी वह बोली, "भई बात सिर्फ इतनी है कि आप को अपना परिचय देना है बस। लेकिन उससे पहले कोई गाना सुनाना पड़ेगा। फिर परिचय।"

लड़कियों की टोली में फँसा हुआ वह असहज हो रहा था। इससे पहले उसका लड़कियों के साथ बात करने का अनुभव भी न के बराबर था। उसने गाना तो कभी बाथरूम में भी नहीं गाया था, अब दसों लड़कियों के सामने तो उसके होठ सिल गए और टाँगें काँपने लगीं। उसकी यह हालत देख पूरी टोली ने ठहाका लगाया। लेकिन उन्हीं में एक लड़की बिल्कुल शांत बैठी थी। उसके हाव-भाव से सतबीर को महसूस हुआ कि और लड़कियों की इस हरकत से वह खुश नहीं थी। वह हौसला बढ़ाते हुए बोली, "यहाँ कोई कॉम्पिटिशन थोड़े है, कोई भी गाना गाओ और परिचय दे दो।" उसकी आवाज़ से सतबीर को वाकई हौसला मिला और वह गाने की कोशिश करने लगा, " तुम्हारे सिवा कुछ ना चाहत करेंगे, के जब तक जियेंगे…।"

उसकी आवाज़ बेसुरी ही थी। क्योंकि उसे गाने का कोई शौक रहा नहीं कभी। कुछ गाने सुन जरूर लेता था।

उसने परिचय दिया और उसे वहाँ से जाने की छूट मिली।

थोड़ी देर बाद एम बी बी एस के नए बैच को संबोधित करने के लिए डीन को हॉल में आना था। वह भी हॉल में जा बैठा। उसे अचंभा हुआ जब उसने लड़कियों की उस टोली को देखा। उसे हौसला देने वाली वह लड़की अब नज़रें झुकाए पूरी टोली के साथ उसी हॉल में दाखिल हो रही थी। बाकी लड़कियों के चेहरे पर सतबीर को देखकर जहाँ शरारती मुस्कान तैर रही थी, वहीं उसके चेहरे से अपराध बोध झलक रहा था और सतबीर को खुद पर हँसी आ रही थी।

डीन ने नए बैच का स्वागत किया, कुछ प्रेरक बातें की, कुछ हिदायतें दी और चले गए। इस पूरे वाकये के दौरान सतबीर की नजरें बार-बार उस लड़की की ओर चली जाती। उसे महसूस हुआ कि वह भी कनखियों से उसकी तरफ झाँक रही थी। हॉल से बाहर आते हुए उसने उस लड़की को रोक ही लिया। 

वह बोली, " दुनिया गोल है और इसमें घूमते-घूमते दोबारा मिल ही जाते हैं कभी न कभी।"

यह आवाज़ बिल्कुल परिचित थी। पर वह अब भी असमंजस में था। पूछने लगा, "मतलब, हम पहले भी मिले हैं कहीं?" वह मुस्कुरायी और बोली, " एक बात कहूँ, तू इसे ही कपड़े पहरया कर, देख सोणा लाग रया आज।"


"संगीता…, तू!"

"अच्छा, आ गयी पहचान में? मैनें तो तुझे देखते ही पहचान लिया था।"

"ओह्ह, मुझे लग तो रही थी तू जानी-पहचानी, पर ध्यान ही न चढ़ रही थी बात और ये इतनी पुरानी बात तेरे ध्यान है अब तक?"

"तेरे भी तो ध्यान है! उन दिनों की तो बहुतेरी बातें याद हैं मेरे।"

"हाँ, तू सब कुछ याद रखने में मेरे से तो आगे ही रही हमेशा।"


कॉलेज के पहले ही दिन दोनों की पुनः पहचान हुई। मित्रता तो बचपन की थी ही। किशोर अवस्था की दहलीज़ पर ही दोनों ने एक-दूसरे के प्रति आकर्षण को महसूस किया था। कहानी तब जहाँ रुकी थी, अब उससे आगे रफ्तार के साथ बढ़ी। अब दोनों में प्रतिस्पर्धा तो थी लेकिन एक-दूसरे के प्रति जो जलन बचपन में महसूस होती थी, उसका स्थान प्रेम ने ले लिया था। सतबीर ने जहाँ मेडिसिन में एम डी की डिग्री हासिल की, वहीं संगीता गाइनिकॉलजिस्ट बनी। 

दोनों के परिजनों की भी सहमति मिली और उन्होंने शादी कर ली।

एक बिटिया के आगमन से उनके घर का आँगन भी हरा-भरा हो गया।

महत्वाकांक्षाएँ जब स्वार्थ सिक्त हो जाती हैं तो समस्याओं को जन्म देती हैं। जब परिवार में कोई व्यक्ति इनके पीछे दौड़ता है, तो पारिवारिक संगठन के लिए खतरा हो जाता है। इससे सामाजिक ताना-बाना प्रभावित होता है। जब कोई राजनेता अथवा राजनैतिक दल ऐसा करता है तो देश में प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। किसी राष्ट्र के द्वारा ऐसा किया जाता है तो विश्व युद्ध या वैश्विक संकट के आसार बनते हैं। ऐसी ही स्वार्थ सिक्त महत्वाकांक्षाएं कभी-कभी महामारी का भी रूप लेकर आती हैं। सतबीर और संगीता की बिटिया अभी तीन वर्ष की ही हुई थी कि एक नई बीमारी का उद्गम चीन में हो गया। जिसका कारण एक ऐसा विषाणु रहा जिसे नावेल कोरोना नाम दिया गया। यह नए किस्म का कोरोना विषाणु है जो इस श्रेणी के अन्य विषाणुओं से भिन्न है। अन्य कोरोना विषाणु जहाँ मानव के अलावा अन्य जीवों में मिलते रहे, यह मानव शरीर पर ही हमला करता था। इसलिए इस विषाणु का यूँ दुनिया के सामने आना भी विवादास्पद ही माना गया।

पूरी दुनिया में कई लाख लोग इसकी चपेट में आए। लाखों की ही जानें गईं। भारत में भी इसका प्रवेश हुआ। यह ऐसा संक्रमण था जो एक व्यक्ति से दूसरे में सम्पर्क में आने से चला जाता। सरकारों ने बहुत-से कठोर कदम उठाए इसे फैलने से रोकने के लिए। लोगों को घरों में ही रहने की हिदायत दी गयी। कर्फ़्यू जैसे हालात हर जगह नज़र आते थे।

इधर सतबीर के कार्यक्षेत्र में भी इस विषाणु के रोगी मिलने की संभावना हुई। सतबीर ने अपनी ड्यूटी कोरोना संक्रमित रोगियों के इलाज के लिए विशेष अस्पताल में लगवा ली। संगीता ने उसे कहा भी कि इसके अलावा भी ड्यूटी दी जा सकती है। इस पर सतबीर का यही कहना था, "यदि सब इससे टलने लगेंगे तो इस रोग के मरीजों के पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा और सरकार बाद में जबरदस्ती भी यह ड्यूटी करवा सकती है डॉक्टरों से, फिर भी तो जाना ही पड़ेगा। अपनी इच्छा से काम में समर्पण की भावना जुड़ जाती है। जिससे मरीजों को भी जल्दी फ़ायदा होता है। तुम्हें तो ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।"


अब संगीता निशब्द थी।


महामारी का प्रकोप अपने चरम तक पहुँचा। इसने पूरी दुनिया को हिला डाला था। भारी सँख्या में लोग मरे। बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने घुटने टेक दिए। लेकिन वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से इस वैश्विक महामारी के लिए कई वेक्सीन ईजाद हो चुके थे। जिससे दुनिया के सामने महामारी की काली छाया में प्रकाश पुंज महसूस होने लगा। वैसे इस महामारी ने लोगों को मानवता और पर्यावरण के प्रति चिंतनशील भी बनाया।

सतबीर के अस्पताल से बहुत से रोगी स्वस्थ होकर जा चुके थे। दुनिया भर में इस रोग के मरीजों की संख्या में कमी आने लगी थी। नए संक्रमणों की संख्या में वृद्धि न के बराबर हो रही थी।

महीनों हो गए थे सतबीर को भी अपने घर जाए। अब वह भी निश्चिंत हो कर घर जाने की सोच रहा था कि अचानक उसे खांसी के साथ, बुखार हो गया। उसे सांस लेने में भारी दिक्कत हो गयी। बड़ी कठिनाई से सांस ले पा रहा था। लग रहा था कि उसके शरीर में ऑक्सीजन की भारी कमी हो रही थी। लक्षणों के मद्देनजर उसे तुरन्त इलाज के लिए दाखिल करना पड़ा। यह खबर संगीता और उसके परिजनों को पहुँचा दी गयी। विडम्बना यह थी कि इस समय किसी भी परिजन को सतबीर को देखने या उससे मिलने की इजाज़त नहीं थी, क्योंकि उनके भी संक्रमित होने का खतरा था। दूसरे ही दिन सतबीर की हालत ज्यादा खराब हो गयी, उसे वेंटिलेटर पर रख दिया गया। संगीता एक कामयाब डॉक्टर थी। कोर्स और प्रैक्टिस के दौरान के अनुभवों से वह वाकिफ़ थी। लेकिन उसका भी हौसला जवाब दे रहा था। वह बच्ची को संभालती और परिजनों को ढाँढस बंधाती, लेकिन खुद अकेले में घुट-घुट कर रोती। बचपन से लेकर अब तक के सारे दृश्य उसकी आँखों में तैरने लगते। उसकी सास जब बेटे को देखकर आने की जिद्द करती तो वह कहती, "माँ, हालाँकि इस बीमारी का इलाज़ संभव हो गया फिर भी संक्रमण से बचना जरूरी है। पूरी दुनिया में कुछ लोगों की लापरवाही की वजह से लाखों लोगों की जानें गईं हैं। मुझे यकीन है कि सतबीर जल्दी ठीक होकर घर आएंगे। आप धीरज रखें।"

बच्ची भी अपने पापा से मिलने के लिए छटपटाती। मन तो संगीता का भी करता सतबीर से मिलकर आने का, लेकिन उसका पेशा ही उसे ऐसा करने से रोक रहा था। 

चौथे दिन सतबीर के हालात सुधरने लगे। इसके चार दिन बाद जाँच में संक्रमण की नकारात्मक रिपोर्ट आई। उसके बाद कुछ टेस्ट निश्चित अंतराल पर हुए, जिनमें भी यही रिपोर्ट आई, और उसे घर जाने की अनुमति मिली।

चौदह दिन तक वह बिल्कुल ठीक हो गया और सोलहवें दिन सुबह नहा-धोकर उसने कपड़े पहने। संगीता ने उसे नाश्ता करवाया। वह खड़ा हुआ तो उसे संगीता एकटक देख रही थी। उसने उसकी ओर गर्दन और भौंहें उचका कर पूछने का संकेत किया तो वह झेंप गयी। 

फिर भीतर गयी और उसकी डॉक्टरी पोशाक उठा लायी। उसकी और बढ़ा ही रही थी कि उसकी सास ने उसे टोका, " बेटा, इतने दिन तो यो लोगों के इलाज़ में लगा रहा। खुद भी बेमार हो गया था। अब ठीक-सा होया तो तू इसको फेर वहीं बेमारी के बीच भेजना चाह रही है?"

सतबीर कुछ बोल पाता इससे पहले ही संगीता बोल पड़ी, "माँ, भगवान की कृपा से यें बिल्कुल ठीक हैं। बहुत से बीमारों को इनकी जरूरत है। वे भी ठीक हो कर अपने घर चले जावेंगे अगर ये उनका ख़याल रखने गए तो।"


सास फिर बोली:

"हाँ ठीक है यो, पर कुछ दिन और आराम तो कर लेना चाहिए इसको। डॉक्टरी तो सारी ही उमर करणी है।"


"डॉक्टरी का काम, भगवान का ही काम है माँ। अगर इस टाइम काम से नजर चुरायी जाएगी तो हमेशा के लिए हम अपनी ही नजरों में गिर जाएंगे। जो मरीज़ अब भी इस बीमारी से जूझ रहे हैं अगर उनको सही इलाज नहीं मिला तो उनकी जान भी जा सकती है। सोचिए वे भी तो किसी न किसी के रिश्तेदार होंगे।"

अब सास को बात समझ आयी और वह अपने कमरे में चली गयी। सतबीर तैयार होकर संगीता के सामने खड़ा था।



वह उसे देखते ही बोली , "एक बात कहूँ?"

उसने सुनने की मुद्रा में उसकी ओर निहारा।

सजल आँखों से वह मुस्कुराते हुए बोली, "तू इसे ही कपड़े पहरया कर, देख सोणा लाग रया आज।"

 वह मुस्कुरा दिया और बोला, " याद है पहली बार तूने यह बात कब कही थी?"

"हाँ, बिल्कुल याद है। पाँचवी कक्षा में गाँव के स्कूल में।"

उसने आश्चर्य और प्रशंसा दोनों को व्यक्त करने के लिए मुँह बिचकाया।

लेकिन अगले ही पल उसकी भी आँखें भर आईं। संगीता को असहज महसूस हुआ तो उसने उसकी ठोड़ी को उंगलियों का सहारा देते हुए पूछा, " क्या हुआ मेरे सोणे को?"


वह भरे गले से बोला, "संगीता उस दिन जो कपड़े मैं पहन कर आया था, वे मेरे नहीं थे। वे हमारी एक पड़ोसन ने अपने बेटे के पुराणे कपड़े मेरी माँ को मुझे पहनाने के लिए दिए थे।"


"अच्छा !"


"हाँ तेरे मुँह से तारीफ़ सुनते ही, वे मुझे मेरे शरीर को काटते हुए महसूस हुए थे। लेकिन..."


"लेकिन क्या ?"


वह उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला, "आज तेरे मुँह से तारीफ़ सुनकर तन को मखमली एहसास हो रहा है।"


वह छेड़ते हुए बोली, "सच! तू इसे ही कपड़े पहरया कर, देख घणा ही सोणा लाग रया आज तो।"

उसने धीमे-से मुस्कुराते हुए संगीता को बाहों में भर लिया।







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