ठहरा हुआ समय
ठहरा हुआ समय
"क्या जमाना आ गया है!"
स्वभाविक शिकायती अंदाज़ में बस की सीट पर बगल में बैठा वृद्ध बारू राम बड़बड़ाया।
"क्या हो गया बाबा? जमाने से क्या शिकायत हो गई अब?"
नवीन ने चुटकी ली।
"बेटा! मैं आजकल के समय की बात कर रहा हूँ।"
"जी, समझ गया सब।" नवीन ने रूखा-सा जवाब दिया और चुप बैठ गया।
यह बात बारू राम को न पची और वह बोल उठा, " हम चिट्ठी-पत्री से भी पहले के ज़माने देख चुके हैं।"
"तो?"
"कई-कई दिन में सन्देश मिलते थे।"
"आज तो सेकंड्स में सन्देश यहाँ से अमरीका पहुँच जाता है।"
"जानता हूँ। हम पैदल, बैलगाड़ीयाँ साइकिल पर ज़्यादातर सफ़र किया करते।"
"अब तो घर-घर बाइक है, कार भी है ही, और आदमी की औक़ात हो तो क्या समुद्र, क्या ज़मीन और क्या हवा, अंतरिक्ष में भी घूम कर आ सके है।"
"पता है बेटा, यह भी। पहले आदमी बहुत मेहनत किया करते।"
"अब तो मशीनों और कंप्यूटर ने सारे काम आसान कर दिए। बहुतेरे काम तो कई की जगह एक ही आदमी कर लेता है। बहुत समय बच जाता है।"
नवीन ने तंज कसा।
"फिर भी लोगों के पास समय नहीं। है न।"
बारू राम ने भी पलटवार किया।
"आप जानते हो कि आपके जमाने से काम कितने आसान हो गए हैं।"
"हाँ, हो गए आसान। पर, जीना तो उतना ही मुश्किल हो लिया।"
"तरक्की का सफ़र आगे बढ़ते रहना ही ठीक है। इसमें ही सबका भला है।"
"पर यह भला तब ही हो जब, तरक्की के चक्कर में बुरे काम का सहारा न लिया जाए। कुदरत का भी ख़याल रखा जाए। और..."
"और क्या बाबा?"
"हर मानस हर दूसरे जीव को अपने जैसा समझे।"
"बात तो आपकी सही है बाबा। पर...."
अब नवीन बात पर अटक गया।
"बात पूरी करो बेटा।"
"इस मामले में जमाना नहीं बदला बाबा।"
"मतलब?"
उसकी नज़र नवीन पर गड़ गयी।
"बाबा! आज भी कुछ लोग समाज के झंडा-बरदार हैं। तकनीक नई हो गयी पर ख़याल वे हीं पुराने।"
"साफ़-साफ़ कहो।"
"जाति-मज़हब के नाम पर दंगे आज भी हो जाते हैं।"
बारू राम अब चुप था। बस चली जा रही थी।