डिप्लोमेटिक चाँद
डिप्लोमेटिक चाँद
नौकरी के सिलसिले में मुझे घर से दूर किसी बड़े शहर में आना पड़ा।शुरुआती दिनों में बड़ा शहर और वहाँ की अजब गजब बातें बड़ी ही मजेदार लगती थी।लेकिन साल दर साल सब कुछ उथला और खोखला सा लगने लगा था।
हर रात बाल्कनी में खड़ी होकर आसमाँ की तरफ देखने का मेरा रोज का शगल था।ऐसी ही एक रात किसी उधेड़बुन में बालकनी से मैं आसमान देखे जा रही थी।
दूर आसमान में चमकता हुआ चाँद अपनी ही मस्ती में बिना किसी रोक टोक से चले जा रहा था।
मैं अपनी सोच से जैसे बाहर निकली।मुझे लगा,ये चाँद भी एकदम तनहा है पर सदियों से अपनी चमकती हुयी शै में तनहाई को छुपाता फिरता है।इसकी चमक को देखकर किसी को भी उसकी इस तनहाई के आलम का अहसास नहीं होता है।साथ में इतना डिप्लोमेटिक है कि ज्यादा ही तन्हाई का अहसास होने पर कही छुप जाता है बिना किसी को इत्तला दिए।और दुनिया अमावस्या कह कर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में मसरूफ हो जाती है.....