डायन
डायन
शनिचरी को ब्याह कर आये अभी एक महिना भी नहीं हुआ था कि रोजी रोटी की फ़िराक में उसे रघु के संग मालिक के घर काम पर जाना पड़ा। कहने को महार जाति की थी शनिचरी मगर रूप रंग ऐसा पाया था कि जमीदारिन को भी मात दे रही थी। रोज सुबह से दोनों प्राणी जमींदार के घर हाजिरी लगाते, रघु तो खेत में चला जाता मगर गोबर पूजा करने शनिचरी को दो घंटा जमींदार के घर ही रुकना पड़ता। नई ब्याहता शनिचरी हाथों में लाल चूड़ी खनकाती, पैरों में पायल छनकाती अपने काम में तल्लीन थी, नहीं जानती थी कोई उस पर नजर रखे हैं।
आज जमीदारनी शादी में गई हुई थी , जमींदार ने आवाज़ लगाई,
“री शनिचरी ! यहाँ कू आ।” शरमाई –सकुचाई शनिचरी घूंघट ओढ़े मालिक के सामने खड़ी हो गई।
“अरी दूर क्यों बैठी है ...तनक पास आ, तेरी गोरी कलाई गोबर उठाय... बड़ी नाइंसाफी है।” कहते हुए जमींदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। शनिचरी ने हाथ झटकते हुए कहा,
“माई बाप हो तो ...माई बाप की तरह रहो मालिक ...हमें ऐसी -वैसी ना समझियो, अब ऐसी हरकत की तो मालकिन से केह दे हैं।” कहते हुए शनिचरी काम छोड़ बाहर निकल गई। जमींदार को ये अपनी शान में गुस्ताखी लगी ...एक औरत वह भी हमारी गुलाम.. इतनी ऐंठ , ऊपर से धमकी दे गई मालकिन को कह देगी। उधर शनिचरी ने मुंह फेरा और गाय की पड़िया जाने कैसे मर गई। जमींदार की आँख चौड़ गई। उसने पूरे गाँव में मुनादी फेर दी रघु की लुगाई डायन है, मेरे देखते देखते पड़िया को खा गई ....गाँव वालों ने खेत में काम करते रघु को घसीटते हुए लाये ,
“घर में डायन पाले है ...निकाल बाहर उसको।” रघु को कुछ समझ नहीं आया, उसने पूछना चाहा मगर उसकी आवाज़ नक्कार खाने में तूती की आवाज़ साबित हुई। शनिचरी को गाँव के बाहर बनी डायनों की बस्ती में छोड़ दिया गया जहाँ पहले से ही गाँव की कुछ बहुएं थीं जो डायन करार दी गई थी।
शनिचरी जान गई थी इस गाँव में डायनों की बस्ती कैसे बनी।
लघुकथा सामंती व्यवस्था में दलित नारियों के उत्पीड़न को दर्शाती है। प्राचीन समय मे यह घटनाएं अमूमन देखने मे आती थी। आज भले ही इनका स्वरूप बदल गया मगर ये घटनाएं आज भी जारी हैं कहीं राजनीति के क्षेत्र में कहीं दफ्तरों में अफसरों द्वारा अपने मातहत कार्य कर रही महिलाओं के साथ।
