बुलबुल

बुलबुल

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यात्रियों से ठसाठस भरी बस में मेरी निगाह अपने लिए थोड़ी सी जगह  तलाश रही थी। शायद कहीं टिकने भर की जगह मिल जाय। ताकि बार बार लगे वाले ब्रेक और उससे होने वाली उलझनों से बच सकूँ। हम महिलाओं की समान अधिकारों की लड़ाई ने पुरुषों के मन में हमारे प्रति प्रतिद्वंद्विता का भाव जो भर दिया है अतः उनसे सहानुभूति की उम्मीद रखना व्यर्थ है कि कोई सज्जन उठकर मुझे आपनी जगह दे दे। ऐसे ही तर्कों से खुद को समझा रही थी कि तभी एक आवाज़ कानों में टकराई-

"दीदी यहाँ आ जाइये। "

मैं झट से सीट की ओर बढ़ी तथा पट से अपने लिए स्थान सुनिश्चित कर लिया। फिर सभ्यता के नाते सोचा मानवता पूर्ण व्यवहार के लिए उस इंसान को धन्यवाद कह दूं।

"धन्यवाद! " कहते हुए जैसे ही मेरी नज़र इस आवाज़ की दिशा में मुड़ी मैं भौंचक्की रह गई।

"एं...! यह क्या...? ,यह तो किन्नर है!हाय कहाँ फंस गई! अब क्या करूँ...?"

एक पल पहले जो जगह मिलने की ख़ुशी थी कोफ़्त में बदल गई। पूरे शरीर में भय और संकोच की फुरफुरी भर गई आस पास चोर निगाहों से देखने लगी जैसे मुझसे कोई अपराध हो गया। फिर मन ही मन बस ड्राईवर को कोसने लगी, क्यों जगह न होकर भी झूठा दिलासा देकर सवारी बैठा लेते हैं, कम से कम महिलाओं का तो ध्यान रखना चाहिए। मैं मन ही मन सोच रही थी लोग मुझे ही घूर रहे हैं, मैं  हंसी की पात्र बनकर रह गई। मनोविज्ञान ने काम करना शुरू कर दिया। अब समझ आया यहां यह एक सीट कैसे खाली रह गई? एक पल को लगा उठ जाऊं... मगर फिर अन्य परेशानी का ख्याल आया।

दरअसल मैं भी गलत नहीं थी किन्नर की जो छवि हमारे मन में बैठी है वह बहुत अच्छी नहीं, लोगो की गाढ़ी कमाई को पल में ऐंठ लेते हैं। बेटी हुई तो 5001, बेटा हुआ तो 21000 एक बार को सर्राफ़ मोल भाव कर ले मगर इनसे कोई उम्मीद रखना फिजूल है। ज़्यादा कुछ कहने पर लहंगा उठाकर अपने श्रापित जीवन की झांकी दिखाने में इन्हें कोई झिझक नहीं।

किसके यहां सन्तान का जन्म हुआ? किसके यहां ब्याह?कौन कितना कमाता है? इनका सूचना तंत्र बड़ी मुस्तैदी से कम करता है। कभी सोचती थी तालियां ठोक लोगों का दिल दुखा पैसे ऐंठने से बेहतर है सरकार इन्हें कोई गुप्तचर विभाग सौंप दे।

बिंदु, हेलन, जयश्री टी, कटरीना  सभी को मत देती उफ! उनकी वो अदाएं, मर्दों से उनकी छेड़छाड़ की बेहयाई भी शर्मिंदा जो जाये और जब उनकी मुद्राएं तांडव में बदल जाएँ तो बद्दुआ और गाली से कान भी हथियार डाल दें ऐसे किन्नर के इतने निकट बैठना ज़िन्दगी का पहला अनुभव था। इससे पहले तो वे मेरे लिए विचित्र प्राणी ही रहे, यही समाज में देखा और सुना था।

सोचा पुरुषों के धक्के खाने से बेहतर है यहीं बैठी रहूँ। मन से आवाज़ आई ये कैसा संकोच ले बैठी हो, पढ़ी लिखी हो...क्या फर्क पड़ता है तुम्हारे पड़ोस में कोई स्त्री है, पुरुष है या कोई किन्नर, और फिर स्त्री पुरुष से भरी इस बस में किसने तुम्हारी परेशानियों को समझा? जिसे तुम किन्नर समझ उपेक्षित कर रही हो उसमें अपेक्षाकृत कहीं अधिक मानवता है। अब तक मेरे प्रश्नों ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। खुद पर ग्लानि होने लगी। अपने बिखरते आत्मविश्वास को समेटते हुए उसकी और देखा अब तक शायद उसने मेरी उलझन को भांप लिया था सो वह खिड़की के बाहर देखकर होंठो में कोई गीत गनुगुनाने लगी। मानो मेरी उपेक्षा की पीड़ा को भुलाने की कोशिश कर रही हो। अपनी आवाज़ में आत्मीयता लाते हुए मैंने पूछा-

"कहाँ जा रही हो?"

"आपको मुझसे बात करने में कोई एतराज़ तो नहीं...मेरे प्रश्न के जवाब में उसका प्रश्न था।"

मुझे लगा मुझपर व्यंग्य किया, खुद को संयत कर बोली "जानती हूँ, तो क्या हुआ?"

आत्म प्रेरणा ने मुझे संबल प्रदान किया अब मेरे मन में कोई भी भय या संकोच नहीं था बल्कि उसके प्रति जिज्ञासा थी। "कहाँ जा रही हो"

"शिवपुरी। दीदी वाकई आपको कोई एतराज़ नहीं?"

"एतराज क्यों  होगा भला तुम भी तो औरों की तरह इंसान ही हो...इंसान की बस सोच अच्छी होनी चाहिए क्या फर्क पड़ता है कि वह स्त्री हो...पुरुष...या...।"

मेरे इतना कहते ही उसके भीतर घुमड़ रही पीड़ा धीरे-धीरे बाहर आने लगी।

"मैंने सोचा आप भी औरों की तरह मुंह फेर लेंगी। लोग पता नहीं हमसे क्यों परहेज करते हैं। आख़िर! हमको भी उसी ठाकुर ने बनाया है। हम भी किसी की बहन, बेटी हो सकती हैं मगर नहीं समाज में हमें सिर्फ हिजड़े के नाम से जाना जाता है।"

कुछ समय पहले तक मैं भी उसी समाज का हिस्सा थी। भला हो मेरी अंतरात्मा ने मुझे इस अपराधबोध से बचा लिया। तभी जोरदार झटके के साथ बस रुकी ड्राईवर ने ब्रेक लगाया था शायद... बस किसी महिला के लिए रोकी थी कंडक्टर कह रहा था "आइये मैडम! अंदर बहुत जगह है।"

कंडक्टर की बात सुन मैं तो आस पास जगह तलाशने लगी मगर वह ताली ठोकते हुए बोली "आय -हाय! देखो तो बस में ज़रा भी जुगे नई है फिर भी मुआ भरेई जा रिया है। बेचारी औरत जात आफत उठाये उससे उसको क्या...बड़ा आया जगह देगा। हरामी कहीं का! इन नासमिटों ! को तो नंगा कर पुट्ठे पर इत्ते डंडे मारो की सब भूल जाये।"

बात तो सही कही थी उसने मगर अंदाज जरा किन्नराना था।

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"बुलबुल नाम है मेरा दीदी। "

मुझे लगा मैं बुलबुल का विश्वास जीतने में कामयाब हो गई हूँ। "कहाँ की रहने वाली हो बुलबुल? मेरा मतलब तुम्हारे माता पिता कोई घर तो होगा।"  

दर्द की स्याही में डूबे उसके शब्द मुझे उससे जोड़ते जा रहे थे। वह (गले में हाथ रखते हुए बोली) बोली "सच्ची के रयी दीदी मैं अच्छे खानदान से हूँ।"

"गुना के ठाकुर परिवार से...पांच भाइयों का बड़ा परिवार है।"

हमारी बातों में व्यवधान हुआ बुलबुल की रिंगटोन बज उठी 'कजरारे कजरारे.....।'

"हाँ! शबीना बोल" 

"........…....."

"अये दा! मैं बस मैं बैठ गई री, तू सुब्बे फोन काय को नई उठाई। "

"…....."

 "चल अब मैं मंगल को आके तेरे से बात करती रख अब।"

"बुलबुल तुम इन लोगों के बीच कैसे आई?"

"घर में ही दाई के हाथों मेरा जन्म हुआ। पैसे से उसका मुंह तो बंद कर दिया। दो साल तक तो माँ ने किसी को पता नहीं चलने दिया, वो मुझे अपनी निगरानी में रखती। उसने रिश्तेदारों में जाना छोड़ दिया। मगर किस्मत...पड़ोस वाले को जाने कैसे खबर लग गई उसने उन लोगों को खबर कर दी।"

उसकी आवाज़ में दर्द की गहराई मैं महसूस कर पा रही थी। वहीं मेरी जिज्ञासा चरम पर थी।

"फिर? "

"फिर क्या? आ गई इन लोगों के बीच। शुरू में दिन रात रोती थी"

"क्या तुम्हारे माता पिता ने नहीं रोक तुम्हें ले जाने से?"

"माँ तो माँ होती है, बहुत रोई, भाई तब सभी छोटे थे। हाँ बाप को ज़रूर ठाकुरों वाली नाक प्यारी थी। फिर कोई भी क्या करता उनको तो अधिकार मिला हुआ है।"

"क्या यहाँ भी किसी को दया नहीं आई, एक मासूम बच्ची को माँ बाप से जुदा कर।"

"यहां आकर न दया मर जाती है, उलटे रोने पर गन्दी गलियां मिलती हैं।"

"क्या घर वालों ने फिर कोई खोज खबर नहीं ली तुम्हारी?"

"बस माँ आई दो-तीन बार उसकी यहाँ बेज्जती होती थी, धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया अब सब भूल गए। माँ तो रही नहीं बापू है मगर बीमार, गई थी देखने।"

मैं देख रही थी रास्ते में जितने भी धार्मिक स्थल आये बुलबुल वहां श्रद्धा से सर झुकना नहीं भूली।

"क्या तुम यहां खुश हो?"

"ऐसे माहौल में भला कौन खुश रह सकता है जहां कहने सुनने को कोई अपना न हो। सच्ची के रई दीदी! भगवान ऐसा जीवन किसी को न दे बहुत तकलीफ होती है।"

बस फिर रुकी कोई स्टॉप आया शायद। बाहर तीन पुरुष खड़े थे उनकी निगाह बुलबुल को देख वहीं टिक गई। कुछ देर पहले संजीदा हो अपना दर्द बयां कर रही बुलबुल तालियां ठोक बोल पड़ी "ऐय बाबूजी! ऐसे मति न देखो मैं तुम्हारे कोई काम की नहीं।"

वे तीनों झेंपकर दूसरी और देखने लगे, मैंने भी अपनी नज़रें झुका ली। बस ने फिर रफ्तार पकड़ी और बातों ने भी।

"तुम्हारा तो कोई स्थायी रोज़गार नहीं फिर कैसे चल पाता है खर्च?"

"पैसा तो बहुत है दीदी बस कोई खर्चने वाला नहीं है।"

"कैसे भाई! हमारे यहां तो दो लोग मिलकर कमाते हैं तब भी घर की रस्सा-कशी चलती रहती है।"

"वह एक-एक कर सारे नेग गिनाने लगी बेटी होने पर..., बेटा होने पर..., फिर किसी सेठ, मंत्री या किसी बड़े आदमी से ज़्यादा भी मिल जाता है।"

"रिश्तों की कमी तो महसूस होती होगी?"

"रिश्तों का सुख नसीब में नहीं, एक भाई बनाया था, एक दिन बहुत सा रुपया लेकर भाग गया नासमिटा। फिर एक गरीब लड़की को पढ़ाया उसकी शादी में पैसा खर्च किया सोचा घर बस जायेगा तो दुआ देगी।"

"तो"

"शादी होकर वह भी अपने घर की हो गई। कभी याद नहीं करती। अब सोच लिया जो करना है अपनी कोम के लिए करना है। इस अभिशापित जीवन से उन्हें मुक्ति दिलाना है।"

हाँ सचमुच अभिशापित ही तो है यह जीवन, दिखने में खूबसूरत व्यक्तित्व, उतनी सुंदर मन की भावना, धर्म-कर्म के प्रति अटूट आस्था, नारी सुलभ मन, पुरुषों-सी दबंगता सभी कुछ तो है अगर नहीं है तो भौतिक सुख से जुड़ी वो इंद्रिय... क्या समाज की नागरिकता पाने के लिए इतना पर्याप्त नहीं? शरीर में डेढ़ दो इंच की बुनावट कम भी रह जाये तो कौन कयामत हो जायेगी।

फिर मानव समाज ने तो उसे धोखा ही दिया।

"इस लिए दीदी मैंने अपने समाज की पांच बेटियां गोद ली हैं। चाहती हूँ इन्हें घर-घर जाकर तालियों की थाप पर न नाचना पड़े। ये अपनी अलग पहचान बनाएं, घर मास्टरजी आते हैं पढ़ाने। देखना दीदी! इन्हें अवसर मिला तो ये सीमा पर भी अपना हुनर बताएंगी। आप आना दीदी देखना मेरा आंगन बेटियों की किलकारी से कितना आबाद है।"

"अवसर मिला तो मैं ज़रूर आऊँगी बुलबुल तुम्हारी बेटियों से मिलने।"

बातों का सिलसिला जारी था मगर गन्तव्य पर बस पहुंच चुकी थी।

"अच्छा बुलबुल चलती हूँ, तुमसे बातें कर बहुत अच्छा लगा। अपनी बेटियों को मेरा प्यार देना। दुआ करूंगी वे तुम्हारे हर सपने को साकार करें।"

मेरा इतना कहते उसका चेहरा गर्व से चमक उठा।

"दीदी! आप कितनी अच्छी हैं, भगवान सलामत रखे आपको, तुम्हारे बच्चे जुग-जुग जियें, सुख पाएं सच्ची! दिल से के रई।" कहते हुए वो मेरी बलाएं ले रही थी। बस में सबका ध्यान हमारी और था मगर अब मुझे कोई भय कोई संकोच नहीं था।


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