सत्य की अग्नि परीक्षा
सत्य की अग्नि परीक्षा
"अरे भाई कौन हो तुम और शहर से दूर यहाँ जंगल में ...इस झोपड़े में क्या कर रहे हो ? " युधिष्ठिर ने वन में भ्रमण करते हुए एक झोपड़े के बाहर बैठे उदास , लाचार से दिख रहे उस व्यक्ति से पूछा।
"मैं सत्य हूँ ,आज कल यहीं रहता हूँ । यही मेरा झोपड़ा है ।"
"आश्चर्य है तुम यहाँ हो ,..तुम्हें लोगों के दिलों में रहना चाहिए...। "
" वहाँ तो धर्मराज , झूठ ने अपना स्थायी निवास बना लिया है और मुझे खोटे सिक्के की तरह बाहर निकाल फैंका है।"
" ओह ! यह तो बुरी खबर है तो तुम समाज में रह सकते हो ।"
"वहाँ सब मुझसे नफरत करते हैं । "
"इसकी कोई वजह होगी। "
"हाँ ! वजह है मैं आईने की भांति लोगों को उनकी सही सूरत दिखाता हूँ। "
"तो उसमें हर्ज क्या है ? यह तो अच्छी बात है। "
"धर्मराज ! आज भ्रष्टाचार, चार सौ बीसी, रिश्वत खोरी आदि के इतने खतरनाक कॉस्मेटिक्स के लेप बाजार में आ गये हैं, जिनके प्रयोग से लोगों के चेहरे इतने भयावह हो गए हैं कि वे अपना चेहरा देखना पसंद नहीं करते । "
"तो कार्यालयों में चले जाओ वहाँ तो तुम्हारा होना बहुत आवश्यक है। "
"गया था धर्मराज ...मगर एक ही पल में उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया।"
"ओह ! तब तो पक्का तुम्हें राजनीति में जाना चाहिए।"
" राजनीति ...! तो अब देश में कहीं बची नहीं । कूटनीति का ही सर्वत्र साम्राज्य है। और कूटनीति को तो सदा ही से मुझसे परहेज रहा है।"
" बड़े आश्चर्य की बात है मैं तो सत्य की पताका लेकर ही स्वर्ग तक पहुंचा था।"
" आप भूल रहे हैं धर्मराज, वह द्वापर युग था आज कलयुग है।"
"तब तो पक्का तुम संचार विभाग (मीडिया) में चले जाओ वहाँ लोग तुम्हें सिर माथे बैठाएंगे । "
" वहाँ मेरे लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा है धर्मराज।"
"ऐसा क्यों भला...? "
"क्योंकि मैं उन्हें विज्ञापन शुल्क जो नहीं दे पाता।"