Dr Lata Agrawal

Drama

2.7  

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सत्य की अग्नि परीक्षा

सत्य की अग्नि परीक्षा

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"अरे भाई कौन हो तुम और शहर से दूर यहाँ जंगल में ...इस झोपड़े में क्या कर रहे हो ? " युधिष्ठिर ने वन में भ्रमण करते हुए एक झोपड़े के बाहर बैठे उदास , लाचार से दिख रहे उस व्यक्ति से पूछा।

 "मैं सत्य हूँ ,आज कल यहीं रहता हूँ । यही मेरा झोपड़ा है ।" 

"आश्चर्य है तुम यहाँ हो ,..तुम्हें लोगों के दिलों में रहना चाहिए...। "

" वहाँ तो धर्मराज , झूठ ने अपना स्थायी निवास बना लिया है और मुझे खोटे सिक्के की तरह बाहर निकाल फैंका है।"

" ओह ! यह तो बुरी खबर है तो तुम समाज में रह सकते हो ।"

"वहाँ सब मुझसे नफरत करते हैं । "

"इसकी कोई वजह होगी। "

"हाँ ! वजह है मैं आईने की भांति लोगों को उनकी सही सूरत दिखाता हूँ। "

"तो उसमें हर्ज क्या है ? यह तो अच्छी बात है। "

"धर्मराज ! आज भ्रष्टाचार, चार सौ बीसी, रिश्वत खोरी आदि के इतने खतरनाक कॉस्मेटिक्स के लेप बाजार में आ गये हैं, जिनके प्रयोग से लोगों के चेहरे इतने भयावह हो गए हैं कि वे अपना चेहरा देखना पसंद नहीं करते । "

"तो कार्यालयों में चले जाओ वहाँ तो तुम्हारा होना बहुत आवश्यक है। "

"गया था धर्मराज ...मगर एक ही पल में उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया।"

"ओह ! तब तो पक्का तुम्हें राजनीति में जाना चाहिए।"

" राजनीति ...! तो अब देश में कहीं बची नहीं । कूटनीति का ही सर्वत्र साम्राज्य है। और कूटनीति को तो सदा ही से मुझसे परहेज रहा है।"

" बड़े आश्चर्य की बात है मैं तो सत्य की पताका लेकर ही स्वर्ग तक पहुंचा था।"

" आप भूल रहे हैं धर्मराज, वह द्वापर युग था आज कलयुग है।"

"तब तो पक्का तुम संचार विभाग (मीडिया) में चले जाओ वहाँ लोग तुम्हें सिर माथे बैठाएंगे । "

 " वहाँ मेरे लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा है धर्मराज।"

"ऐसा क्यों भला...? "

"क्योंकि मैं उन्हें विज्ञापन शुल्क जो नहीं दे पाता।"


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