द साइलेंट लव
द साइलेंट लव


वैसे तो आजकल इस शीर्षक , हां शायद इसे शीर्षक ही कहना उचित होगा क्योंकि, आजकल ऐसी स्थितियाँ शायद ही पनपती हैं । क्योंकि वर्तमान जीवन अब ऐसा नहीं रहा जैसा कि पहले सुनने को मिलता था कि"सादा जीवन उच्च विचार "वैसे अगर वर्तमान को देखें तो, पहली दर्जा का बच्चा भी फ़ोटो नोटबुक में लिए फिरता है और अगर पूछो की बाबू किसकी है ? तो बोलता है """वो मेली सीत पातनर है ""
इसलिए इस बदलते दौर में अगर अब के जेनरेशन को बताएं कि हम लोगों के दौर में स्थिति कैसी थी।तो ये बताना उनके लिए सर दर्द देने से कम नहीं होगा । फिर भी हमारे कुछ योद्धा , हां योद्धा ही कहें तो ही बेहतर होगा क्योंकि हर जेनरेशन की अंतदृष्टि अलग होती है उनके सोचने विचारने की छमता और कला अलग अलग होती है , इसलिए उनको बताना मतलब युद्ध में भाग लेना कहना गलत नहीं होगा । फिर भी कुछ लोग बताते ही रहते हैं।
वैसे इस शीर्षक से कई लोगों की घटनाएं जुड़ी भी होंगी । जिन्हें अगर मेरे तर्जुबों से
देखें तो कहीं न कहीं , जहां तक हर कोई या हर अनकहा रिश्ता , सिर्फ इस प्रश्न में उलझकर इस शीर्षक का शिकार हो ही जाता है कि प्यार या सेल्फ रेस्पेक्ट,जबकि इन पहलुओं में दूर दूर तक कोई रिश्ता ही नहीं है ।
वैसे आजतक मैं इन लोगों को नहीं समझ पाया जो हर बात पर कहते फिरते है कि "" यार अपनी भी कुछ सेल्फ रेस्पेक्ट है ""वैसे अगर दूसरे लहजे में इसे सीधा सीधा बोले तो कहीं न कहीं इसका ताल्लुकात ईगो ,जिसको पहले लोग घमंड कहते थे जैसे कि "" पता नहीं किस चीज का इसमें घमंड भरा हुआ है ।
अगर बात सेल्फ रेस्पेक्ट की करें तो वो भी रखना जरूरी है , लेकिन खुद का गला घोटकर वो भी बस अपने ईगो और तेवर की खातिर, ये कहाँ की बुद्धिमानी है ,ये तो हमेशा गलत ही होगा ।
ये तो रहीं पुरानी बातें ।लेकिन अगर एक नजर से देखें तो, कोई भी अगर अपने दिल की बात किसी के समक्ष नहीं रख पाता है तो ,उसका सिर्फ एक मात्र सटीक कारण हो सकता है ,वो होता है समाज
लेकिन ऐसी बाधाओं का अगर हम शिकार होते है तो कहीं न कहीं धीरे धीरे हम गुलामों के पंक्ति में सर्वोपरि नजर आने लगते हैं । लिहाज़ा मैं भी इस।गुलामी की जंजीर से जकड़कर इस शीर्षक का कुछ यूं शिकार हुआ ।
उसका नाम था सृष्टि । वैसे तो उसके लिए ये शब्द , आम ही था । लेकिन मेरे लिए तो ये शब्द मेरी जिंदगी का अर्थ देने लगे थे । उसकी धड़कनों में ,मैं खुद की धड़कनों को बड़ी चुपके से सुनने लगा था । उसकी हर मुस्कान के पीछे की वज़ह ,मैं खुद को मानने लगा था। और सही भी था , आखिर क्यों न मानूँ । जब दो दिलों की धड़कनें एक हो जाएं और सांसों को अलग रहना पड़े तो ये लाजमी सा हो जाता है । अगर उसके नाम का सही और सटीक अर्थ ही देखते थे , फिर भी मैं खुद को उसी में पाता था ,सृष्टि मतलब दुनिया जिसमें मैं था ,हूँ ,और रहूंगा भी । कहते हैं जब प्यार पहला हो तो परवान चढ़ ही जाता है । खैर ये क्या था पता नहीं । लिहाज़ा हम दोनों भी एक दूसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने की चाहत रखने लगे थे। वो देर रात तक चैटिंग ,वो बातों बातों में उसका गुस्सा हो जाना,वो मेरा मनाना उसका फिर से रूठना, मेरा फिर से मनाना ।ये सब जैसे हम दोनों को और पास आने के झरोखे से लगते थे। लिहाज़ा वो रूठती रही और मैं मनाता रहा और हम दोनों एक दूसरे के और करीब आते गए।
उसकी मिसाल भी कुछ यूं थी कि जब वो मुड़कर देखती थी तो अक्सर उसके बालों के दो चार लट उसके चेहरे पर आ ही जाते थे जैसे वो भी मानों उसको चूमने के लिए आ गिरे हों । तब वो भी अपने सिर को कुछ यूं झटककर उन्हें ऊपर करती थी जैसे कि कोई सरिता जब मुहाने से निकलती है तो बहुत ही नटखट स्वरूप में रहती है । उसके दाहिने तरफ गाल में एक तिल का निशान था। जो मुझे तिल कम लेकिन दरबान ज्यादा लगते थे ।
डिंपल या यूं कहें ऐसे गड्ढे जिसमें हर कोई गिर ही जाता है ,क्यों? ठीक उसी तरह जब वो हंसती थी तो उसके चेहरे पर भी दो छोटे छोटे गड्ढे बन ही जाते थे और उन गड्ढों में मैं हमेशा डूब ही जाता था और आजीवन डूबा भी रहना चाहता था ।उस वक़्त की मुस्कान मुझे चाँद के उस दिन की याद दिलाती थी जब चाँद अपने पूर्ण स्वरूप में रहता है और उसकी खूबसूरती तीसरे आसमान पर होती है ।
लेकिन फिर भी मैं उसकी तुलना चाँद से न करके सूरज से करना चाहूंगा क्योंकि चाँद भी इतना खूबसूरत होने के बावजूद भी उसमें दाग है । उसके चेहरे की चमक के सामने मुझे चाँद भी मटमैला सा नजर आता था । उसके छुवन से तो मेरे शरीर का एक एक रुवां ऐसे उत्तेजित हो जाता था जैसे की कोई बिजली लग गयी हो ।और मेरे बॉडी का टेम्परेचर उसके बॉडी टेम्परेचर से हमेशा ज्यादा ही रहता था । और बारिश की बूंदें उसके जिस्म पर उसे चूमते हुये यूँ गुज़रती थीं जैसे कि मानों उन्हें अपनी नदी मिल गयी हो ।और वो उसके आलिंगन में आकर खुद को किसी समुद्र पर न्योछावर कर देना चाहती हों । उसके भीगे हुए लटकते लटों को देखकर बादल भी मदहोश होकर शोर मचाने लगते थे ।और बिजलियां भी तरंगित होने लगती थीं ।
उसके हुस्न को देखकर मैं भी कुछ यूँ लिखा करता था कि,
"" दुपट्टा भी उसके हुस्न पर, कुछ यूँ लिपटता है
सर्प हो जैसे वो किसी चंदन की डाल का । ""
ऐसे ऐसे दिन गुज़रते गए हम और भी करीब आते गए । वो कहते हैं न कि भगवान जब भी देता है तो छप्पर फाड़ के देता है बस कुछ ऐसे ही मेरी जिंदगी में खुशियों की बौछार हो रही थी, जिंसमें सिर्फ मैं और वो दोनो एक दूसरे की बाहों में उन खुशियों को जी रहे थे ।पर एक दिन ऐसा हुआ जो मेरी जिंदगी का सबसे खामोश पल था । मैं उस वक़्त बहुत कुछ कहना चाह रहा था लेकिन मेरे अल्फाजों ने मेरे होठों को इजाजत नहीं दी और मैं खामोश रह गया । वो दिन था, नए सेशन का पहला दिन, सब लोग क्लास में आये ।
और सब कुछ अच्छे से हो रहा था सभी लोग पहले दिन को एन्जॉय कर रहे थे सिवाय सृष्टि के ।
उस दिन पता नहीं क्यूँ वह बहुत ही डरी सहमी सी कोने मैं बैठी हुई थी ।,सिर को डेस्क पर रखे हुए । मैं उसे बार बार देखकर बहुत ही परेशान हो रहा था ।
अचानक सृष्टि क्लासरूम से बाहर निकलकर, होस्टल की तरफ दौड़ती हुई चली गयी ।उस वक़्त मैं बहुत परेशान सा हो गया था । लेकिन कुछ समय बाद वापस लौटकर आयी तो क्लास के बॉयज हूटिंग करने लगे ।इसे आंखों के सामने होता देख भी ,मैं कुछ नहीं कर पाया ।आखिर कर भी क्या सकता था सब एक तरफ थे और मैं अकेला एक तरफ। इसलिए आंखों में आंसू लेकर बैठ गया। और खुद को कोसने लगा ।
उस वक़्त मैं खूब फूट फूटकर रोना चाहता था लेकिन उस वक़्त भी मुझ पर ,समाज हावी था और समाज का वह विचार हावी था कि पुरुष कभी रोते नहीं हैं उन्हें गहरा से गहरा जख्म मिलने पर वो उसे छुपा ले जाते हैं । इसलिए मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया ।फिर अचानक उसी में से किसी ने बोला "" पीरियड आया होगा""उस वक़्त मेरे दिल की धड़कने जैसे रुक सी गयी हों
और समाज के विचारों की नकारते हुए मेरे आंखों से आंसु टप टप टप करके गिरने पर मजबूर हो गए ।
फिर मैंने अपनी रुमाल निकाली ,और आंसुओ को पोछ कर उसकी की तरफ देखा तो वो भी रो रही थी उस वक़्त मैं खुद को कन्ट्रोल नहीं कर पा रहा था लेकिन फिर समाज के विचारों की मानते हुए खुद को समझाकर किसी तरह कन्ट्रोल किया । और दोबारा देखा तो सृष्टि मुझे बाहर बुला रही थी ।
उस वक़्त मेरे हाथ पावँ बहुत तेजी से कांप रहे थे लेकिन मैं किसी तरह उन पर कन्ट्रोल कर रहा था । और किसी तरह हिम्मत बांधकर उसके पीछे पीछे गया तो वो सीढ़ी के नीचे रुकी ,
फिर मैं भी अपने कांपते पैरों को किसी तरह रोककर खड़ा हुआ ।खड़ा होते ही उसका रोते हुए प्रश्न था कि
'''''क्या लड़की होना गुनाह है? ""
ये प्रश्न मानो मेरे दिल को छलनी कर गया हो और मैं खुद को यहां रोक नहीं पाया मेरे आंखों से आंसुओ की ,धारा चल पड़ी ।उसके इस सवाल पर मैं सब कुछ कहते हुए भी कुछ नहीं कह पा रहा था । उस दिन मैं , पूरे स्त्री समाज की ख़ूबियों को चिल्ला चिल्लाकर कहना चाहता था ।लेकिन मेरे आंसू शायद उसके जवाब पहले ही दे चुके थे और मैं उन आंसुओ के आगे खामोश रहा गया । लेकिन शायद उसको, उसके सवाल का जवाब मिल गया था और वह रोती हुई होस्टल की तरफ भाग गई ।
मैं भी किसी तरह खुद को संभालता हुआ होस्टल आया और बेड पर पहुंचकर खूब रोया ।रात भर
,वैसे ही बेड पर पड़ा रहा । पड़े पड़े सुबह हो गयी ।हर सुबह की तरह आज भी सारे क्रिया कलाप वैसे ही हुए, लेकिन आज चहरे पर वो खुशी की लकीर और क्लास जाने इच्छा फीकी पड़ रही थी ।इसलिए मैं क्लास नहीं गया और पूरा दिन उसके ही बारे में सोचता रहा ।क्लास खत्म हुई तो सभी लोगों ने बताया कि आज सृष्टि नहीं आई थी ।और पता लागया, तो पता चला कि वो घर जा चुकी थी । मुझे भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए मैंने भी घर जाने का फैसला किया । और घर चला गया ।
अब हम लोगों की बात फेसबुक पर होंने लगी थी । घर आकर धीरे धीरे सब कुछ नॉर्मल हो गया था ।
वैसे ही देर रात चैटिंग और उसका बातों बातों पर रूठना और मेरा मानाना फिर से जारी हो गया । और हम दोनों एक दूसरे की पर्सनल बातों को शेयर करने लगे । वैसे इतने समय में हम लोगों को इतनी तो मैच्यूरिटी आ ही गयी थी कि हम लोग एक दूसरे के जज्बातों को समझने लगे थे ।अब बारी थी हम लोगों की , फिर से स्कूल की तरफ प्रस्थान करने को । इसलिए हम लोग निश्चय करके एक ही दिन स्कूल चल दिए । स्कूल पहुंचने के बाद हम लोगों की मुलाकात केवल क्लास टाइम में ही, हो पाती थी ।
किसी ने क्या खूब ही कहा है दूरियां मोहब्बत को और बढ़ाती हैं । ठीक उसी प्रकार ये दूरियां हमें और भी पास लाती गईं ।और अब उसके भी लबों की छेड़खानियाँ साफ साफ झलकने लगी थी । उसका मेरे रोल न.पर हँसना और मेरे ज़िक्र पर फिर खामोश हो जाना ये लक्षड़ अब कहीं न कहीं उसके इक़रार को साफ साफ दिखाने लगे थे । लेकिन सवाल ये था कि अब शुरुआत कौन करे। क्योंकि हर कोई यही चाहता है कि शुरुआत उनकी तरफ से हो । और इसी कशमकश में जिंदगी के वो हसीन पल बीत जातें हैं इसी पर किसी ने क्या खूब कहा है कि
""इज़हार कर देना , वरना एक खामोशी उम्र भर का इंतज़ार बन जाती है ""
ऐसे ऐसे हम लोग भी एक दूसरे के इंतज़ार में रहने लगे और धीरे धीरे समय बीतता गया । कहते हैं समय धीरे धीरे रिश्तों की मिठास को कम कर देता है । लेकिन फिर भी किसी न किसी तरह रिश्तों का बंधन उन्हें बांधकर रखता है । लेकिन यहां तो इस रिश्ते का कोई नाम ही नहीं था । इसलिए ऐसा कोई बंधन था ही नहीं जो हमें वक़्त के साथ भी बांधकर रखे ।
अब सबको स्कूल से अपने जिंदगी के सफ़र पर जाने का वक़्त था ।क्योंकि हम लोगों का ये लास्ट ईयर ही चल रहा था ।लिहाजा हम दोनों का अब प्रत्येक दिन कशमकश में गुज़रने लगा कि अब इज़हार कर देना चाहिए ।लेकिन ऐसे ऐसे में दिन बीत गए और आज घर जाने का समय था ।दोनों गेट पर साथ में निकले वो मुझे इक आस की नज़र से देखती रही और मैं उसे देखता रहा । उस वक़्त मुझे लग रहा था कि मैं अपनी जिंदगी के सफर पर नहीं बल्कि अपने जिंदगी से बहुत दूर जा रहा हूँ । अंत में उसने मुस्कुरा कहा कि अलविदा !
लेकिन उसकी आंखों में आज आंसु थे । मैं आज भी चाह रहा था कि चिल्लाकर बोल दूं कि तुम्हारी आँखों का इज़हार में पढ़ सकता हूँ ;अलविदा यूँ मुस्कुराकर नहीं कहते । लेकिन मैं आज भी खामोश ही रह गया मेरे आंसूं मेरे लफ़्ज़ों पर हावी हो गए ।और वो मुझसे बहुत दूर, दूर ,दूर बहुत दूर चली गयी । कुछ दिनों बाद बाद हमें ये एहसास होने लगा कि हम खुद को खो चुके हैं । और अब चाहकर भी, एक दूसरे को नहीं पा सकते क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी ।बहुत देर!
अंत में हमने खुद को इस समजरूपी जंजीर में जकड़ा हुआ पाया । और हम दोनों के रिश्तों को जमाने ने आज खुद ही नाम दे दिया ""द साइलेंट लव"" ।