चन्द्र-प्रभा--भाग(२०)
चन्द्र-प्रभा--भाग(२०)
नागदेवता, नागरानी और जलकुम्भी के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था तभी वाटिका में किसी के आने की आहट सुनाई दी, रानी जलकुम्भी बोली, लगता है कोई आ रहा है, कदाचित अम्बालिका ही होगी, वही इसी समय हमें एक बार अवश्य देखने आती है कि अभी भी हम बंधक या नहीं, तब नागदेवता बोले तो यही समय है नागरानी आप अम्बिका का रूप लीजिए और मैं सर्प का और दोनों ने यही किया।
तभी अम्बालिका ने प्रवेश किया और वाटिका में अम्बिका को पहले से उपस्थित देख कर बोली___
तुम और यहाँ, जलकुम्भी से तुम्हें कौन सा कार्य आ पड़ा जो तुम वाटिका चलीं आईं।
क्यों, अब मुझे कुछ भी कार्य करने के लिए तुम्हारी आज्ञा लेनी पड़ेगी क्या? अम्बिका बनी नागरानी बोली।
नहीं मेरा ये तात्पर्य नहीं है, तुम अधिकांशतः यहाँ आती नहीं हो इसलिए पूछा, अम्बालिका बोली।
अम्बालिका! ये मत भूलो कि मैं तुम्हारी बड़ी बहन हूँ और मुझ पर इतना शासन करना छोड़ दो, माना कि तुम्हें मुझसे अधिक जादू आता किन्तु इसका तात्पर्य ये नहीं है कि तुम यहाँ की सर्वेसर्वा हो गई, अम्बिका बनी नागरानी ने कहा।
नहीं, अम्बिका! भला मैं ऐसा क्यों सोचूँगी, तुम्हारे विषय में, आखिर तुम मेरी बड़ी बहन हो, अम्बालिका बोल।
इसलिए तो कह रहीं हो कि सावधान हो जाओं, ऐसा ना हो कि मेरा मस्तिष्क कभी उलट जाए और मैं कोई ऐसा कार्य कर बैठूँ, जो मुझे नहीं करना चाहिए, अम्बिका बनी नागरानी बोली।
ये आज तुम्हें क्या हो गया अम्बिका! कैसी बातें कर रहीं हो, तुम कभी ऐसी तो नहीं थी, अम्बालिका बोली।
हाँ! तुम मुझे विवश कर रही हो, ऐसी बातें करने के लिए, तुम्हें क्या लगा कि तुम सदैव मेरा अपमान करती रहोगी और मैं सहन करती रहूँगी, अब ऐसा नहीं होगा, अम्बिका बनी नागरानी इतना कहकर वाटिका से चली गई और आगें जाकर उसने इधर उधर देखा जब उसे विश्वास हो गया कि कोई नहीं है तो कोने में जाकर सर्प रूपधारण करके छुप गई, जब उसने अम्बालिका को वाटिका से वापस आते देखा तो पुनः वाटिका पहुँच गई, उधर नागदेवता और रानी जलकुम्भी के मध्य वार्तालाप चल रहा था, नागरानी भी वहीं पहुँच गई और बोलीं कैसा रहा मेरा अभिनय?
बहुत ही सुन्दर नागरानी! अम्बालिका का मुँख तो देखते ही बनता था, क्रोध से लाल था, जलकुम्भी बोली।
अभी देखिए मैं अब अवसर मिलने पर अम्बिका के समक्ष अम्बालिका बनकर जाऊँगी और उसे कुछ ऐसे चुभने वाले वाक्य बोलूँगी कि अम्बिका क्रोध से अपने मस्तिष्क का संतुलन खो बैठे, तब आनन्द आएगा, दोनों बहनों के मध्य जब मतभेद होगा, नागरानी बोली।
परन्तु नागरानी ये कार्य सावधानीपूर्वक करना होगा, नादेवता बोले।
चिंतित ना हों नागदेवता मैं इस बात का ध्यान रखूँगी, नागरानी बोली।
अच्छा! अब आप लोग यहीं ठहरेंगें या यहाँ से प्रस्थान करेंगें, जलकुम्भी ने पूछा।
जी, अभी हम यहाँ से प्रस्थान करेंगें, कल रात्रि पुनः आएंगे परन्तु इस बार कुछ योजनाएं बनाकर आएंगे कि शीघ्र ही हम राजा अपार को मुक्त कराने में सफल हो जाएं, नागदेवता बोलें।
बहुत बहुत धन्यवाद आप दोनों का , मैं भी कब से यही चाहती हूँ, नागरानी बोली।
आप चिंता ना करें, इस बार कोई ना कोई प्रयास अवश्य होगा कि राजा अपने पूर्व रूप में आ जाएं, नागदेवता बोले।
जी, आप लोगों के सानिध्य से आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी है नहीं तो मुझे तो अपना जीवन अमावस की काली रात्रि लगने लगा था, रानी जलकुम्भी बोली।
ऐसा ना कहें महारानी रात्रि के पश्चात ही सबेरा आता है, अब आपके जीवन से सारा अँधेरा हटने वाला है अब केवल चहुँ ओर प्रकाश ही प्रकाश होगा, नागदेवता बोले।
जी, रानी अब हमें आज्ञा दें और इतना कहकर नागरानी और नागदेवता चले गए।
और कुछ समय के पश्चात वो दोनों उस स्थान भी पहुँच गए और उन्होंने शीशमहल मे घटा वृत्तांत सबको सुनाया और सब हँस पड़े, इधर नागदेवता ने सबसे कहा कि हमें महाराज अपारशक्ति को उनके पूर्व रूप में लाने का कोई ना कोई उपाय करना होगा, यदि हम महाराज अपारशक्ति को शीशमहल से यहाँ लाने में सफल हुए तो हमारी शक्तियाँ कुछ और बढ़ जाएंगी, परन्तु इसका कोई उपाय नहीं सूझ रहा, हम दोनों शीशमहल मे और नहीं रुक सकते थे, भय था कि कहीं अम्बालिका को हमारे विषय में कुछ ज्ञात ना हो जाए, अभी तो हम सरलता से रानी से मिल आते हैं, किन्तु यदि अम्बालिका को कुछ ज्ञात हो गया तो ये भी नही हो पाएगा, नागदेवता बोले।
आप ठीक कह रहे हैं नागदेवता! परन्तु महाराज को वहाँ से निकालने का तात्पर्य है कि अपने प्राण संकट में डालना, विभूतिनाथ जी बोले।
हम ऐसा क्यों ना करें कि सर्वप्रथम कोई स्वर्णमहल में जाकर प्राँगण से गिद्ध की अस्थियाँ ले आए और यदि हम उन अस्थियों का कुछ भाग महाराज के ऊपर डाले तो हो सकता है कि अम्बालिका का जादू टूट जाएं और महाराज अपने पूर्व रूप में आ जाएं, भालचन्द्र बोला।
और यदि हम महाराज को ले भी आएं तो अम्बालिका को जब वहाँ महाराज अपार का काठ का पुतला नहीं मिलेगा तो वो तो सच्चाई शीघ्र ही जान जाएंगी, वैद्यनाथ जी बोले।
परन्तु, यदि हम वैसा ही दिखने वाला काठ का पुतला उस स्थान पर रखकर महाराज को ले आएं तब कदाचित अम्बालिका को कदापि संदेह नहीं होगा, भालचन्द्र बोला।
उपाय तो बहुत अच्छा है, परन्तु इसमे अत्यधिक संकट है और ये कार्य करेगा कौन?विभूतिनाथ जी बोले।
मैं करूँगा ये कार्य, भालचन्द्र बोला।
चूँकि मैने महाराज को देखा है और काठ का पुतला बने महाराज को भी इसलिए काठ का पुतला तो मैं ही तैयार कर लूँगा और वैसे भी मैं इस कला में बहुत निपुण हुआ करता था, वैद्यनाथ जी बोले।
ये तो बहुत अच्छी बात कही आपने, नागदेवता बोले।
सर्वप्रथम मुझे एक रात शीशमहल जाना होगा, महाराज के पुतले को लाने और नकली पुतले को उसी स्थान पर रखकर आना होगा, उसके उपरांत मुझे दूसरी रात्रि स्वर्णमहल जाकर गिद्ध की अस्थियाँ लानी होगी, तभी हम अस्थियों का कुछ भाग महाराज के ऊपर डालकर उन्हें उनके पूर्व रूप में ले आएंगे।
परन्तु भालचन्द्र! शीशमहल में तुम प्रवेश कैसे करोगें?नागदेवता ने पूछा।
यही उपाय तो सूझ नहीं रहा, भालचन्द्र बोला।
इसका का भी उपाय है राजकुमार! और मैं वो उपाय बताता हूँ, विभूतिनाथ जी बोले।
वो उपाय क्या है बाबा! भालचन्द्र ने पूछा।
वो उपाय ये हैं कि मौनी अमावस्या के दिन सभी जादूगरनियाँ और जादूगर भी मौन रहकर रात्रि के समय अपने गुरु की समाधि पर कुछ तंत्र विद्या करते हैं ताकि उनका ज्ञान बना रहें और अम्बिका, अम्बालिका भी अवश्य जाती होंगीं अपने दादा की समाधि पर , यही अच्छा अवसर रहेगा, परन्तु इसके लिए अभी तुम्हें पाँच दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, पाँच दिन के उपरांत मौनी अमावस्या है, विभूतिनाथ जी बोले।
उपाय तो अच्छा है किन्तु पाँच दिन प्रतीक्षा, चलो कोई बात नहीं तब तक सहस्त्रबाहु भी स्वस्थ हो जाएगा, भालचन्द्र बोला।
और मुझे भी तो समय मिल जाएगा, काठ का पुतला बनाने के लिए, किन्तु पहले हमें धरती के नीचे इसे बनाने की उचित ब्यवस्था करनी होगी, कहीं अम्बालिका ना देख ले, वैद्यनाथ जी बोले।
हाँ, चलिए ! कल प्रातःमैं ही इसका प्रारम्भ करता हूँ, भालचन्द्र बोला।
ठीक है राजकुमार, वैद्यनाथ जी बोले।
और एक नई योजना बनाकर सभी सोने चले गए,
प्रातः हुई भालचन्द्र ने सबसे पहले उठकर तलघर बनाने का कार्य करने की सोची, कुछ सैनिकों की सहायता से कुछ ही समय में तलघर बन गया, जहाँ सरलता से वैद्यनाथ जी अपना कार्य कर सकते थे, वहाँ उचित प्रकाश की भी ब्यवस्था की गई थी।
वैद्यनाथ जी बोले, मुझे उत्तम प्रकार की लकड़ी चाहिए इस कार्य के लिए, तभी पुतला भी उत्तम बनेगा।
तो ठीक है, मैं उत्तम प्रकार की लकड़ी ले आता हूँ, भालचन्द्र बोला।
नहीं राजकुमार! ये कार्य मुझे ही करना होगा, मैं वन की ओर चला जाता हूँ, मैं ही ढूंढ़ कर लाता हूँ, पुतला बनाने के लिए लकड़ी, आप यहीं ठहरें, वैद्यनाथ जी बोले।
वैद्यनाथ जी ऐसा कहकर वन की ओर निकल गए, बहुत खोजने के उपरांत एक उत्तम वृक्ष का तना वैद्यनाथ जी को मिल गया, उन्होंने ये सोचकर उस तने को नहीं काटा कि उसे अकेले वन से लेकर जाना उनके लिए सम्भव नही है क्योंकि कुछ भारी प्रतीत हो रहा है, वो कुछ क्षण वहीं बैठे रहे, कुछ सोचकर उठे और उस स्थान की ओर चल पड़े जहाँ सब ठहरें हुए थे।
परन्तु वृक्ष के भीतर से उन्हें किसी ने पुकारा____
ठहरो बाबा! मेरी सहायता करो।
वैद्यनाथ जी ने इधर उधर देखा किन्तु उन्हें कोई भी नहीं दिखा और वो पुनः वापस जाने लगे....
किन्तु पुनः उन्हें किसी ने पुकारा और वो बोला......
बाबा! इधर मैं वृक्ष के तने के भीतर से बोल रहा हूँ, कृपया मेरी सहायता करें, एक जादूगरनी है जिसका नाम अम्बालिका है उसने मुझे इस तने में बंधक बनाकर रखा है, उसने ऐसा इसलिए किया कि मुझे उसका रहस्य ज्ञात हो गया था, तने में बंधक बने उस व्यक्ति ने कहा।
कहीं तुम झूठ तो नहीं कह रहें, ये तुम्हारा कोई षणयन्त्र तो नहीं, वैद्यनाथ जी बोले।
नहीं बाबा! मै सत्य कह रहा हूँ, मुझे वो रहस्य ज्ञात है तभी अम्बालिका ने मेरे संग ऐसा व्यवहार किया, तने में बंधक व्यक्ति बोला।
अच्छा, पहले वो रहस्य बताओ तभी मैं तुम्हें मुक्त करूँगा, वैद्यनाथ जी बोले।
अच्छा, तो सुनिए, मैं आपको वो रहस्य बताता हूँ, स्वर्णमहल में अम्बालिका ने जो मूर्तियाँ बनवा रखीं हैं, उनमें से एक में उसकी आत्मा बंधक है, किन्तु यदि सही मूर्ति ना तोड़ी गई तो मूर्ति तोड़ने वाले की मृत्यु हो जाएंगी, तने मे बंधक व्यक्ति बोला।
ये रहस्य तो मुझे भी ज्ञात है, इसमें नया क्या है? वैद्यनाथ जी बोले।
जी इसके आगें भी तो सुनिए, वो मूर्तियाँ गोलाकर आकृति में हैं, इसलिए ऐसा है कि कोई भी उसे देखें और भ्रमित हो जाए कि वो मूर्ति कौन सी है जिसमे अम्बालिका की आत्मा बंधक है, जो पहली मूर्ति है उसी में अम्बालिका की आत्मा बंधक है, पहली और अंतिम मूर्ति के मध्य सभी मूर्तियों की अपेक्षा अन्तर है, पहली मूर्ति और सभी मूर्तियों की आँखों में अन्तर है, पहली मूर्ति की आँखे ही केवल आकाश को देख रहीं हैं और सभी मूर्तियाँ धरती की ओर देख रहीं हैं, यही रहस्य हैं, उस तने में बंधक व्यक्ति ने कहा।
किन्तु, तुम्हें ये रहस्य कैसे ज्ञात है?वैद्यनाथ जी ने पूछा।
क्योंकि, मैने ही उन सभी मूर्तियों का निर्माण किया था, मैं प्रसिद्ध मूर्तिकार हुआ करता था, अम्बालिका ने मूर्तियों का निर्माण करवाकर मुझे इस तने में बंधक बना दिया और मैं वर्षों से किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कोई आए और इस तने को काटकर मुझे मुक्त करें, तने में बंधक व्यक्ति ने कहा।
और इतना सुनकर वैद्यनाथ जी ने वृक्ष के तने को काटकर उसे मुक्त कर दिया और उन्हें पुतला बनाने के लिए अच्छी लकड़ी भी मिल गई।
वो व्यक्ति तने से निकला और उसने वैद्यनाथ जी का आभार प्रकट किया, उसने अपना नाम छत्रसाल बताया, वैद्यनाथ जी को उस पर विश्वास हो गया कि वो सत्य कह रहा है और दोनों उस तने के भाग को उठाकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ चलें।
वहाँ पहुँचकर वैद्यनाथ जी ने अम्बालिका की आत्मा मूर्ति मे बंधक होने की सूचना दी और उस व्यक्ति के विषय में भी बताया, परन्तु सब बोले कि इस पर कैसे विश्वास करें हो सकता है कि ये झूठ कह रहा हो।
तब भालचन्द्र से उससे सारे प्रश्न पुनः पूछे और उसका मुँख देखकर लग रहा था कि वो सत्य कह रहा है।
तब छत्रसाल बोला यदि आपके प्रश्नों के सभी उत्तर मिल गए हों तो क्या मैं अपने परिवार से मिलने जा सकता हूँ।
भालचन्द्र बोला, क्यों नहीं अवश्य, मैं आपको आपके परिवार के पास छोड़कर आता हूँ, छत्रसाल ने सबको धन्यवाद दिया और भालचन्द्र के संग घोड़े पर चल पड़ा किन्तु वहाँ पहुँच कर ज्ञात हुआ कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य को अम्बालिका ने जीवित नहीं छोड़ा और वो पुनः भालचन्द्र के संग लौट आया और उसने कहा कि मैं भी आप सब की सहायता करूँगा, मैं एक मूर्तिकार हूँ और राजा अपार का पुतला मैं ठीक से बना सकता हूँ क्योंकि मैं ने भी राजा को देखा था, मैं और वैद्यनाथ जी दोनों ही मिलकर इस कार्य को पूर्ण करेंगें।
क्रमशः
