Mukta Sahay

Drama

5.0  

Mukta Sahay

Drama

चलो फिर ज़िंदगी जी लें ज़रा...

चलो फिर ज़िंदगी जी लें ज़रा...

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मोहन बाबु को चाय दे कर सरिता जैसे ही आँगन में पड़ी कुर्सी पर बैठी तभी फ़ोन की घंटी बज पड़ी । थोड़ी भन्नाती सी सरिता फ़ोन उठाने को गई। पैंसठ वर्षीय सरिता और सत्तर वर्षीय मोहन बाबु अकेले ही रहते है । बच्चे अपने काम काज के सिलसिले में अलग अलग शहरों में रहते हैं ।


फ़ोन उठाते ही सरिता के चेहरे पर ख़ुशी दौड़ गई । फ़ोन उसके छोटे भाई पंकज का आया था । पंकज भी इसी साल सेवनिवृत्ति हुआ था और वह भी आशा , अपनी पत्नी के साथ , अकेला ही रहता है । उसके बच्चे भी अलग शहरों में रहते है।


सरिता पाँच भाई-बहने है । सभी अपने परिवार में व्यस्त होने के कारण वर्षों आपस में मिल नहीं पाते है बस फ़ोन पर ही बात हो पाती है । सबसे बड़े भाई हैं शेखर और भाभी , फिर सरिता और मोहन बाबू, नीलाम और विनोद बाबू, पंकज और आशा फिर सबसे छोटे ललित और रंजू । सभी भाई बहनों की उम्र साठ के ऊपर या आसपास की है और अकेले ही रहते हैं सभी क्योंकि बच्चे या तो काम के सिलसिले में दूसरे शहरों में है या फिर पढ़ाई के लिए।


एकल परिवार की कमियाँ उम्र के उस पड़ाव पर पता लगती हैं जब आप सेवनिवृत्ति होते हैं और बच्चे साथ नहीं रहते। लोग अपना समय बाग़वानी या समाजसेवा या भजन कीर्तन या देश विदेश की राजनीति या फिर व्यर्थ की सोंचने में व्यतीत करने लगते हैं।


फ़ोन रख कर सरिता ख़ुशी से लगभग भागती हुई मोहन बाबू के पास आई और बताया कि पंकज के साथ बातों बातों में हम दोनो ने सोंचा की क्यों ना सभी भाई बहन साथ में कहीं घूमने चलते है। पिछली बार , लगभग पचास वर्ष पहले हमसभी माँ-बाबूजी के साथ बाहर निकले थे और मज़े करे थे । फिर चलते बड़ा मज़ा आएगा और साथ साथ भी रहेंगे। मोहन बाबू ने कुछ सोंचते हुए कहा ठीक है सभी से बात करनी होगी ।


फिर क्या था, पाँचों भाई बहन के फ़ोन की घंटियाँ बस बजती ही जा रही थी । कोई समस्या बताया तो उसका समाधान निकला जाता । कोई नख़रे दिखता तो उसे मनाया जाता । इनके जज़्बे को देख कर ऐसा लग रहा था की जैसे ये सभी अभी बीस - पचीस के उम्र के हों ।


कहाँ जाना है , कब जाना है , कितने दिनों के लिए जाना है सारे निर्णय लिए गए ।दो महीने बाद जाना था लेकिन इन लोगों की तैयारी देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कल ही जाना हो । अच्छा एक ख़ास बात हुई इन दो महीने में की इन सभी के ब्लड प्रेशर , मधुमेह ,कलेस्ट्रोल , गठिया की शिकायतें कम हो गई थी और सब सामान्य सा हो गया था।


अब आ गया वो समय जब इन्हें अपने गंतव्य पर पहुँचना था यानी अहमदाबाद और रण उत्सव । लगभग पचास सालों के बाद पाँचो भाई बहन साथ में कही घूमने निकले थे । जब सभी भाई बहन साथ मिले तो ऐसा लगा जैसे सभी अपने बचपन में हों और बातें होने लगी “थोड़ा सेहत का ध्यान रख मोटा हो गया है “ “ व्रत कम करो पापड़ हो गई हो “ “ तुम्हारे पसंद की गुझिया लाई हूँ” ” शर्मा वाले से शक्करपारा लाया हूँ” “ पटेल से भूँजा लाई हूँ “ । भाभी और जिज़ाजी के साथ हँसी मज़ाक़ भी शुरू हुआ ।


और फिर शुरू हुआ गुजरात भ्रमण । कभी ऊँट की सवारी , कभी गरबा हो रहा है पारम्परिक वेशभूषा में, तो कभी ढोकला - खाण्डवी के दौर चल रहे हैं और तो और पैरा-मोटरिंग कर आसमान के सैर भी कर आए सभी । इसके बाद अगर कुछ समय बचा तो ख़रीदारी भी की जा रही थी। सुबह कच्छ के उज्जवल रण में और शाम सुनहरी रेत पर ,ऐसे इन लोंगों के दिन कैसे निकल जाते पता ही नहीं चलता। अभी ना किसी के घुटने का दर्द बढ़ता ना किसी का शुगर कम होता । वह बचपन जिसके सुखद पलों को हम सभी फिर से जीने की ख़्वाहिश करते है, इन सभी भाई बहनों ने उम्र के इस मोड़ पर अपने उन पलों को फिर से जिया ।


पंद्रह दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला । इन सभी का ये कार्यक्रम फिर नए जगह घूमने के योजना के साथ समाप्त हुआ । सभी अपने अपने घरों को पहुँच गए ।


लेकिन अब एक बदलाव साथ था ।सभी ख़ुश थे और इस भ्रमण की यादें अगले तीन महीने तक इनके साथ ताज़ा रही जबतक की अगले कार्यक्रम का समय पास आ गया ।अच्छी बात ये रही की अब इस सभी को बहुत सी बीमारियों से राहत मिली और घर में अकेले रहने की तकलीफ़ भी थोड़ी कम हुई ।


इन पाँचों भाई बहनों ने अपने सनक और जुनून से एक मिसाल क़ायम किया इस उम्र के लोगों के लिए । पर ऐसे छोटे छोटे प्रयासों से तकलीफ़े भी घट जाती है और ख़ुशियाँ भी बढ़ती हैं।



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