चिपको आंदोलन
चिपको आंदोलन
लोग यह मानते हैं कि "चिपको आंदोलन" के प्रणेता सुंदर लाल बहुगुणा थे। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। वस्तुतः इस आंदोलन की प्रणेता थीं अमृता देवी विश्नोई। राजस्थान राज्य के जोधपुर शहर से मात्र 26 किलोमीटर दूर एक गांव है खेजड़ली। चूंकि इस गांव में उस समय खेजड़ी के वृक्ष बहुतायत में थे इसलिए इस गांव का नाम खेजड़ी वृक्ष के नाम पर खेजड़ली पड़ गया।
ज्यादातर लोग "खेजड़ी" वृक्ष के बारे में नहीं जानते हैं उनके लिये मैं बता दूं कि राजस्थान के लिए यह वृक्ष "कल्पवृक्ष" माना जाता है। दूर तक फैले हुये मरुस्थल में केवल खेजड़ी वृक्ष ने ही पर्यावरण संरक्षण का कार्य किया। बाकी तो और कुछ वनस्पति के नाम पर होता नहीं था। ले देकर कैर का झाड़ और खेजड़ी का पेड़। खेजड़ी को "कल्पवृक्ष" ऐसे ही नहीं कहते , इसके पीछे भी एक बहुत बड़ा विज्ञान है।
दरअसल खेजड़ी वृक्ष मरुस्थल में मिलने वाला एकमात्र वृक्ष है इससे मरुस्थल में ऑक्सीजन मिल जाती है अन्यथा और कोई वनस्पति यहां होती नहीं थी। खेजड़ी की फली जिसे "सांगरी" कहते हैं जो प्रसिद्ध "कैर सांगरी" की सब्जी का एक महत्वपूर्ण घटक है , यहां खूब होती है। तो इस सांगरी से खाने के लिए सब्जी बन जाती है। इसकी पत्तियां गाय, भैंस, ऊंट, बकरी सबके चारे का काम करती हैं। इससे जमीन को नाइट्रोजन मिलती है। चूल्हा जलाने को व घर के दरवाजे खिड़कियों के लिए लकड़ी मिल जाती है। ऑक्सीजन का स्रोत तो यह है ही। इतना महत्वपूर्ण वृक्ष होने के कारण ही राजस्थान में इसे "कल्पवृक्ष" का नाम दिया गया है।
बात सन 1730 की है। राजस्थान में तब अलग अलग रियासतें थीं। वैसे तो सब राजा महाराजा मुगलों के अधीन थे मगर रियासतें भी अपना राज मुगलों की अधीनता में चला रही थीं। तब जोधपुर रियासत के राजा थे अभय सिंह।
उनको अपने महल के लिए लकड़ियों की जरूरत पड़ गई।
उनके कारिन्दे सैनिकों के साथ खेजड़ली गांव पहुंचे खेजड़ी के पेड़ काटने के लिए। खेजड़ली गांव में "विश्नोई" संप्रदाय बहुतायत में था। विश्नोई मतलब 20 9 यानि 29। इस संप्रदाय के 29 नियम थे। इन 29 नियमों को मानने वाले विश्नोई कहलाते थे। किसी भी धर्म, जाति का व्यक्ति इन नियमों को अपनाकर विश्नोई बन सकता था। मगर अब ऐसा नहीं है। अब तो जन्म से जाति का निर्धारण होता है।
खेजड़ली गांव में रहती थीं अमृता देवी विश्नोई। उन्होंने खेजड़ी वृक्ष की महिमा जानकर "वृक्ष बचाओ" आंदोलन चला रखा था। इस आंदोलन के अंतर्गत किसी को भी वृक्ष काटने नहीं दिया जाता था। जो भी कोई वृक्ष काटने आगे बढ़ता , उनका कोई कार्यकर्ता उस वृक्ष से चिपक जाता और उसे वृक्ष काटने नहीं दिया जाता था। इसे "चिपको आंदोलन" कहते हैं।
जब जोधपुर महाराज के सैनिक लकड़ियों के लिये खेजड़ली गांव पहुंचे तो अमृता देवी विश्नोई ने वृक्ष काटने का विरोध किया। पूरा गांव अमृता देवी विश्नोई के पीछे खड़ा हो गया। अमृता देवी विश्नोई का नारा था
सिर सांटे रूख बचे, तो भी सस्ता जाण
मतलब कि अगर सिर कटने से एक पेड़ बचता है तो भी यह सौदा सस्ता है। इस तरह अमृता देवी विश्नोई और उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी और भागू के साथ पूरा गांव एकत्रित हो गया।
सैनिकों को तो राजा का भय था इसलिए वे वृक्ष काटने को उद्यत हुये। इधर अमृता देवी, उसकी तीनों पुत्रियां और गांव वाले पेड़ों से चिपक गये। फिर शुरू हुआ नृशंसता का दौर। जिस कुल्हाड़ी से पेड़ काटे जाने थे उससे उन लोगों के सिर काटे गये। अमृता देवी , उनकी तीनों पुत्रियों समेत कुल 363 लोग शहीद हुये थे उस दिन। यह महा नरसंहार था। पर्यावरण संरक्षण के लिए इतना बड़ा बलिदान विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलेगा। कोई ग्रेटा थनबर्ग एक भाषण देकर चीख चीखकर "हाऊ डेयर यू" बोलकर महान पर्यावरणविद बन जाती है और कोई अमृता देवी अपनी तीन पुत्रियों के साथ बलिदान दे देती हैं। पर अफसोस की बात है कि लोग अमृता देवी जैसी अमर बलिदानियों का नाम तक नहीं जानते। वह दिन भाद्र माह के शुक्ल पक्ष का दसवीं का दिन था। आज उस दिवस को "बलिदान दिवस" के रूप में मनाते हैं। मेरा मानना है कि उस दिवस को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण के लिए जब तक ऐसा जज्बा नहीं होगा , पर्यावरण संरक्षण कागजों, गोष्ठियों और नारों में दिखाई और सुनाई देगा। वृक्ष लगाने से भी बड़ा काम है लगे हुये वृक्षों की रक्षा करना।
