चाय-कॉफी
चाय-कॉफी
फोन की घंटी आठवीं बार बज रही थी। मैं अपने ऑफिस के केबिन में अपनी चेयर पर बैठा फोन को घूर रहा था। सोच रहा था, फोन को उठाकर खिड़की से नीचे फेंक दूँ। फिर से फोन पर कॉल आया, नहीं उठाना चाहता …जानता हूँ किसका फोन है… मैंने टेबल पर रखे लैंडलाइन को उठाया और ऑफिस किचन में कॉल किया और अपने लिए एक कप कॉफी मंगवाई …जब भी गुस्से में होता हूँ एक कप कॉफी पी लेता हूँ। कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है लेकिन कुछ तो होता है कॉफी में शायद …जब तक कॉफी आती है मैं आपको अपने बारे में बता देता हूँ ...मेरा नाम अंकित शर्मा है, मिडिल क्लास फैमिली से ताल्लुक रखता हूँ। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब है। माँ-बाप गांव में रहते हैं मेरे बड़े भाई “दिलीप” के साथ और यहां शहर में, मैं और मेरी दो साल पुरानी बीवी “सुलेखा” ….फिर से फोन कि घंटी बजी …नहीं उठाऊंगा ...फिर केबिन की बेल बजी, मैंने कहा- “यस कम इन”। ऑफिस का चपरासी था। वह अंदर आया और टेबल पर कॉफी रखकर चला गया ...ब्लैक कॉफी बिना चीनी, मुझे ऐसी ही कॉफी पसंद है। सुलेखा इसे गरम काला पानी कहती है, वह भी कड़वा …आज से करीब तीन साल पहले हम दोनों पहली बार हमारे ऑफिस एरिया में बने हुए एक छोटे से कॉफी हाउस में ही मिले थे। लंच ब्रेक के बाद अक्सर वहाँ मुलाकात हो जाती थी, पहले दो महीने तो बस एक दूसरे को देखने में ही निकल गए। उसके बाद कभी “हेलो” कभी “गुड मॉर्निंग” कभी “गुड इवनिंग” कभी कॉफी हाउस में और कभी बिल्डिंग की लिफ्ट में ...इसी बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर उसका ऑफिस था और चौथी पर मेरा। एक दिन उसी कॉफी हाउस में मैं अपनी कॉफी लेकर खिड़की की तरफ बैठा था, जहां से पूरा आईटी एरिया दिखाई देता था, ज़्यादातर लोग एक दूसरे को जानते ही थे, कुछ चेहरे नए दिखाई देते और कुछ पुराने, उस दिन धूप बहुत थी, सर्दी के मौसम में अच्छी लगती है। धूप उस खिड़की को चीरकर मेरे कॉफी कप को और गरम कर रही थी, इतने में सुलेखा वहाँ आई। उसने बैठने के लिए यहां- वहाँ नज़र दौड़ाई पर पूरे कॉफी हाउस में एक ही कुर्सी खाली थी जो बिलकुल मेरे साथ वाली थी। उसने उस खाली पड़ी कुर्सी की तरफ देखा फिर मेरी तरफ देखा। मैंने उस कुर्सी को बिलकुल सामने की तरफ रख दिया और सुलेखा से कहा- “आप यहां बैठ सकती हैं”, उसके खूबसूरत से चेहरे पर हलकी सी मुस्कान आई और वह मेरे सामने आकर बैठ गई। ठण्ड होने की वजह से उसने एक सफ़ेद रंग का जैकेट पहना हुआ था। अपने हाथों को उसने उसी जैकेट की पॉकेट में छिपा रखा था। उसके हसीन से चेहरे पर ऐसी लाली छाई थी मानो किसी ने बर्फ पर गुलाब की पंखुड़ियां सजा दी हों। उसने वेटर को बुलाया और अपने लिए चाय मंगवाई ….उसने मेरे कप की तरफ देखा और कहा- “इस काले गरम पानी को इतना भी मत पिया कीजिये” …मैंने कहा “आई लव ब्लैक कॉफी” …उसकी तरफ से जवाब आया “कॉफी से आपको अनिद्रा, तनाव, बेचैनी, दिल की बीमारी, उल्टी, सिर दर्द वगैरह हो सकता है ...इतने में वेटर आया और उसके सामने चाय का कप रखकर चला गया। उसने अपने एक हाथ को जैकेट से आज़ाद किया और चाय का कप उठाकर उसका एक घूँट लिया ….मैंने अपनी ख़ामोशी को तोड़ा और कहा- “चाय से आपको इसोफेगल कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर या ऑस्टियोफ्लोरोसिस हो सकता है” ...यह सुनकर उसका चाय का कप “टेबल” और “होंठों ” के बीच ही ठहर गया। बस फिर क्या था कॉफी और चाय के बीच दोस्ती हुई फिर प्यार फिर शादी ….मैं हमेशा यह सोचता था की जब तक दोस्ती थी “बहुत अच्छा रिलेशन” था, प्यार होने के बाद “अच्छा रिलेशन” रह गया, और शादी के बाद सिर्फ “रिलेशन” रह गया।
वक़्त गुजरने के साथ-साथ “बातों” की जगह “सवालों” ने ले लीं और “ख़ुशी” की जगह “जवाबों” ने ….ऐसा नहीं था कि प्यार मर चुका था, प्यार ज़िंदा था लेकिन “कोमा” में पड़े किसी मरीज़ की तरह था। रिश्ते में फीकापन कब आना शुरू होता है पता नहीं चलता, लेकिन कड़वाहट जब आने लगती है तब ज़रूर पता चलता है …बहुत बड़ी-बड़ी बातों को लेकर हमारे बीच रंजिशें पैदा नहीं हुई। बातें छोटी ही थीं जो बड़ी बन गईं। गलती कभी मेरी तरफ से होती, कभी सुलेखा की तरफ से, लेकिन क्या एक रिश्ते में गलती करना कोई अपराध है? मैंने उसकी कई गल्तियों को नज़रअंदाज़ किया, बर्दाश्त किया और कभी-कभी जवाब भी दिया। कभी ऑफिस को लेकर इश्यूज, कभी घर को लेकर, कभी मेरे माँ-बाप को लेकर, कभी उसके माँ-बाप को लेकर, कभी खाने को लेकर, कभी बाहर जाने को लेकर, कभी बड़ी बात को लेकर, कभी किसी छोटी सी बात को लेकर और कभी बिना किसी बात को लेकर ….जब वह मुझसे नाराज़ होती तो वह बात नहीं करती, न ही मेरा फोन उठाती। जब मैं गुस्से में होता तब मैं बात नहीं करता, जितनी भी नाराजगी हो, गुस्सा हो, हमारे बीच बात न हो, पर कुछ था जो एक दूसरे को जोड़े रखता था। ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं उसके बिना एक दिन भी रहा हूँ और वह मेरे बिना कभी रही हो। मुझे लगता था कि ऐसे रिश्ते में शायद किसी एक का ख़ामोश रहना बहुत ज़रूरी है ...पर मैं यह नहीं जानता था कि सुलेखा हमेशा के लिए ही खामोश होने वाली है …सुलेखा को "लंग कैंसर" है। लास्ट स्टेज, पिछले एक हफ्ते से हॉस्पिटल में है। न कुछ बोलती है न समझती है। कल रात मैं उसके बिस्तर के पास बैठा, उसका हाथ पकड़ा और कहा- “इतनी भी क्या नाराजगी?” …कोई जवाब नहीं मिला, फिर मैंने कहा- “सुनो, मैंने ब्लैक कॉफी पीना छोड़ दिया है ...” उसके शरीर में कोई हलचल नहीं हुई, मैंने कहा- “हमेशा मैं सोचता था कि हमारा रिलेशन अब पहले जैसा नहीं रहा, सोचता था कि किसी दिन सब छोड़ कर चला जाऊंगा। गलत था मैं। जितनी बार भी तुम्हें नाराज़ किया उसके लिए सॉरी, पर अब कोई जवाब तो दो,,चाहे डाँट दो” …मैं उसका हाथ पकड़े सिर्फ जवाब का इंतज़ार करता रहा …… डॉक्टर्स ने कहा की सुलेखा की शायद आखरी रात हो। डॉक्टर्स को कौन समझाए कि यह उसकी आखरी रात नहीं हो सकती, अगर वह नहीं रही तो मुझसे शिकायतें कौन करेगा? कौन मुझे बार-बार फोन करके पूछेगा की मैं घर कब पहुँच रहा हूँ? कौन मेरे ऑफिस से आते ही हज़ारों सवाल मेरे सामने रखेगा? कौन नाराज़ होगा मुझसे? और किसको मनाऊंगा मैं? …डॉक्टर्स बिना किसी जवाब के चले गए ...मैं रात को घर नहीं गया। ऑफिस आ गया, अपने केबिन में …
फोन की घंटी फिर बजी …..सुबह से हॉस्पिटल से फोन आ रहा है …..जानता हूँ क्या कहना चाहते हैं …
नहीं उठाऊंगा ...