बसंती की बसंत पंचमी - 9
बसंती की बसंत पंचमी - 9
हद हो गई। श्रीमती कुनकुनवाला को इसमें कोई षडयंत्र सा दिखाई दे रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक एक करके उनकी सारी सहेलियों को बाई मिलती जा रही है, और उन्हें लाख खोजने पर भी अभी तक कोई काम वाली नहीं मिली थी।
जब भी उनकी मित्र मंडली की कोई सदस्य फ़ोन करके उन्हें बताती कि उसे एक नई बाई काम करने वाली मिल गई है तो वो ख़ुश होने के बदले अपनी सहेली पर ही गुस्सा हो जाती थीं। मानो सहेली ने कहीं से उनकी बाई को बहला- फुसलाकर या कोई लालच देकर उनसे छीन लिया हो।
वो कई बार पति से कह चुकी थीं, कई बार पड़ोसी लोगों से चिरौरी कर चुकी थीं। और तो और, वो अपने बेटों तक से अनुनय विनय करतीं कि कोई काम वाली या फिर काम करने वाला लड़का ही ढूंढ लाएं। पर घरेलू नौकर क्या बाज़ार में बिकते हैं या मंडी में मिलते हैं जो वो पकड़ लाएं?
बेटों से ऐसे जवाब सुनकर श्रीमती कुनकुनवाला खीज कर रह जाती थीं।
कितने ही दिन हो गए थे उन्हें अपने हाथ से बर्तन रगड़ते और झाड़ू पोंछा करते हुए। वो तो अब भूल ही गई थीं कि कभी उनके आदेश निर्देश पर नाचने वाली महरी उनके पास थी। केवल जबान हिलाने की देर थी कि उनके सब काम पलक झपकते ही हो जाते थे और उनका पूरा ध्यान सहेलियों से फ़ोन पर घंटों गप्पें लड़ाने का ही था।
अब तो ऐसा लगने लगा था मानो वो खुद बिना वेतन की कोई नौकरानी हैं जिन पर इतने सारे लोगों के काम करने की ज़िम्मेदारी है। उन्होंने फ़ोन को तो एक तरह से उठा कर ही रख दिया था कि कहीं उनकी बाई वान सहेलियां उन्हें अपनी अपनी काम वालियों के किस्से सुना कर जलील न करें।
फ़ोन की घंटी बजती और...(जारी)