बसंती की बसंत पंचमी- 2
बसंती की बसंत पंचमी- 2
शहर में घर- घर काम करने वाली इन बाइयों की कहानियां भी अलग- अलग थीं। ये अधिकतर अशिक्षित या कम पढ़ी लिखी होती थीं। ये निर्धन भी होती थीं। किसी पर अपने पूरे परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी होती तो किसी को अपने कम कमाने वाले पति को कुछ सहारा देने की ललक।
किसी को पति की ग़लत आदतों से परिवार और बच्चों को बचाने का तनाव। कोई शराबी, नशेड़ी, काम से जी चुराने वाले वाले निकम्मे पति से परेशान होकर ये रास्ता पकड़ती।
सबकी कहानियां अलग- अलग होती थीं मगर दुःख दर्द सबके एक से। कोई किसी एक घर में ही पूरे दिन चाकरी बजाते हुए खर्च हो जाती तो किसी को एक से निकल कर दूसरे घर में दिन भर चक्कर लगाने पड़ते।
सुबह सवेरे उठ कर पहले अपने घर का काम, बच्चों व पति का रोटी पानी, फिर पराए घर में आकर वहां की तीमारदारी। झाड़ू, बर्तन, पौंछा लगाने से लेकर कपड़े धोने, खाना बनाने, छोटे बच्चे को संभालने तक के काम।
और बदले में कुछ बंधी तनख़ा, कुछ बचा - खुचा खाने को, कभी - कभी कुछ पुराने कपड़े और घर के इस्तेमाल के बाद बची कुछ ऐसी चीजें, जिनसे घर वाले ऊब चुके होते पर फेंकने का मन न होता। ये चीजें मानो बाई के हाथ में आते ही फ़िर दूसरा जन्म पा जाती थीं और उसके बच्चों के नए आकर्षण में फिर काम आने लग जाती थीं।
एक दिन ...(जारी)
