Prabodh Govil

Abstract

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Prabodh Govil

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बसंती की बसंत पंचमी- 11

बसंती की बसंत पंचमी- 11

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धीरे - धीरे श्रीमती कुनकुनवाला का मन बुझने सा लगा। अब चारों तरफ़ लॉकडाउन की चर्चा थी। शहर में जगह जगह कर्फ़्यू, धारा 144 और पुलिस की सख़्ती दिखाई भी देने लगी। सड़कें एकदम वीरान होने लगीं। कहीं कोई परिंदा भी पर मारता न दिखाई देता।अब घर में काम वाली बाई या महरी की कौन कहे, अख़बार वालों, दूधवालों तक का आना - जाना मुश्किल होने लगा। लोगों ने ताज़े फल- सब्ज़ियों तक से दूरी बना ली। चोरी छिपे चौराहों पर जाते और एक साथ ही हफ़्ते- पंद्रह दिन के लिए साग - सब्जी, राशन - पानी लाकर फ़िर से घर में दुबक जाते। घर ऐसे हो गए मानो किसी जिनावर की मांद हो, या चौपाए की खोह! कहीं कोई न दिखाई देता। सब अपने अपने में क़ैद।

नौकरी, व्यापार, हाट बाजार सब एक- एक कर ठप होने लगे। सड़क पर अगर कभी कोई आता - जाता दिखाई भी देता तो केवल पुलिस का वाहन या फ़िर सनसनाती कर्णकटु आवाज़ में किसी अस्पताल की एम्बुलेंस, बस!

स्कूल- कालेज सब बंद हो गए। दफ़्तर- कारखाने भी तालाबंदी के शिकार हो गए।लेकिन इतना सब हो जाने के बावजूद इसका एक उजला पक्ष भी था कि अब घर में सारा काम अकेले ही करने वालों में केवल श्रीमती कुनकुनवाला ही नहीं रह गई थीं बल्कि उनकी सभी सहेलियां अब इसी अवस्था में आ गई थीं। जब शहर में कर्फ्यू लगा हो, किसी घर में किसी भी बाहरी व्यक्ति के आने जाने पर पाबंदी हो तो भला किसी की बाई भला कैसे आ सकती है? तो अब सब धान पांच पंसेरी!



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