बस अब और नहीं
बस अब और नहीं
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वह दौर था जब पढ़ाई ने तो भूत बना रखा था और हॉस्टल के खाने ने मैस वाले भैया जी को हमारा दुश्मन।
मां के हाथ का खाना क्या होता है... इसका पूरा ज्ञान तो मैस की टेबल पर ही हुआ।
जिस खाने को घर पर इतरा इतरा कर खाती थी... वह हॉस्टल में परंपरागत परवल आलू देखकर अपनी याद दिलाता और बस हम सब लड़की के मुंह से आवाज निकलती ," भैया जी... थोक में लाए परवल खत्म हो गए हो तो कल कुछ और भी बना लेना।"
बेचारे मैस वाले भैया उस टाइम हामी भरते... और अगले ही दिन रसीली की जगह सूखे परवल आलू पेश करते थे और कहते ,"देखो सब्जी दूसरी आ गई।"
एक दिन वही सब्जी सूखी और अगले दिन रसीली बनाकर उसे नई-नई सब्जियों का नाम देना उन्हें बखूबी आता था।
बस जैसे तैसे वह खाना निपटाया जाता और रूम में आकर मैगी बनाकर खाया जाता ... यह अलग बात है कि बाद में मैंने मैगी ना खाने का ज्ञान अपने बेटे को खूब बांटा है।
यह तो सभी के साथ होता होगा कि अपनी बुरी आदतें अपनी संतान में जाते देखकर हर कोई दार्शनिक बन जाता है और ज्ञान बांचकर उससे उसको दूर रखने की भरसक कोशिश करता है।
खैर मैं वापस आती हूं अपने संस्मरण पर... जब मैस का खाते-खाते दिमाग खराब हो चुका था तो अचानक मेरी रूममेट, जिसके कजन भैया उसी शहर में रहते थे उनके यहां से उनके बेटे के जन्मदिन का बुलावा आया.... बस ऐसा लगा जैसे लॉटरी लग गई थी।
उस समय बच्चे आजकल के मुकाबले बाहर जाकर कम खाते थे... बाहर जाकर हमें बस ढोकले डोसा खाना ही आया था तो पूड़ी कचौड़ी के लिए मन तरस गया था, ऐसे में आया दावत का ऑफर किसी वरदान से कम नहीं लग रहा था। उस पर मेरे रूममेट ने कहा था कि उसकी भाभी छत्तीस तरह के पकवान बनाना जानती थी तो बस बेसब्री से और शुभ दिन का इंतजार होने लगा।
मैं मेरी रूममेट और तीन अन्य सहेलियां नियत दिन मेरी रूममेट के भाई के घर खाने को विराजमान थीं।
बात सही बताई थी उसने... खाने की टेबल पकवानों से भरी पड़ी थी ...भैया पुराने विचारधारा के थे... बैठकर आलती पालती कर परंपरागत भोजन करा रहे थे... बस केक काटने की भतीजे राजा की देर थी और हम पांचों विराजमान हो गए आसन पर।
जितने स्वाद ले ले के हम खा रहे थे उससे ज्यादा भाभी और उनके तीनों पुत्र हमें उत्साह से खिला रहे थे।
खाना सच में स्वादिष्ट था.... स्वाद स्वाद में इतना खा लिया कि अब कमबखत पेट दुश्मन बन रहा था.... छोटा भतीजा.."एक पूरी और ले लो बुआ", कहकर दो रखे जा रहा था।
इतना खा लिया था कि हम पांचों से आसन से उठ कर तखत पर बैठना मुश्किल था ... दसियों पकवान बने थे और खाए भी पर भूल गए मीठा तो खाया ही नहीं था।
थोड़ी देर गेम खेलने के बाद जब भाभी जी रसगुल्ले और खीर लेकर आई तो सबके मुंह से निकला बस अब और नहीं तो वह वाली फीलिंग आ रही थी 'हाथ तो आया पर मुंह को न लगा'।
मीठा ना खाने पर हम लोग मायूस हुए जा रहे थे खैर भला हो हमारी रूममेट का चलते वक्त उसने एक-एक पैकेट रसगुल्ला और खीर का पैक करा लिया था।
सच में वह पकवान प्रसंग तो आज भी याद आ जाता है और मन को गुदगुदा जाता है कि कैसे उस समय हम इमेज सोशल बिहेवियर की परवाह किए बगैर कतई बालमन थे और रूममेट की भाभी के यहां भी ऐसे खाए आए थे जैसे कि अपने घर खाते हैं।