बरसता भीगता मौसम
बरसता भीगता मौसम
और दिनों की अपेक्षा रविवार को वह थोड़ी देर तक सोती है। पहाड़ों की खूबसूरत भोर। खुली खिड़की से ठंडी हवा भीतर आ रही थी। मैना और कौए के चिंचियाने के समवेत स्वरों से उसकी नींद खुल गई।
"अब सुबह - सुबह इन्हें क्या परेशानी हो गई?" बुदबुदाते हुए उसने अलसाई आँखों से दीवार पर लगी घड़ी में वक्त देखा। सात पचपन हो रहे थे। एक लम्बी भरपूर अंगड़ाई लेते हुए उसने पिछली रात चैन की नींद देने के लिए उस उपरवाले का शुक्रिया अदा किया।
सुबह के दैनंदिन कार्यों से निबट कर उसने मक्खन- टोस्ट का मनपसंद नाश्ता किया। अपने लिए एक कड़क कॉफ़ी बनाई। महकती, ताज़गी से भरपूर कॉफ़ी का मग लिए वह बाहर लॉन पर आ गई। नाश्ते के बाद मग भर कर कॉफ़ी पीना उसका प्रिय शौक है। जाड़ों की गुलाबी ठण्ड और उस पर धूप की गुनगुनी तापिश। बहुत सुहानी सुबह थी। वह आह्लादित हुई। उसे कोई और विशेष काम नहीं था। इसलिए कॉफी और अपने पसंदीदा लेखक 'चेख़व' के साथ हरे -भरे लॉन में बैठ कर दो -एक घंटे गुजारना चाहती थी। अपने अधूरे लिखे उपन्यास 'हर उम्र का मौसम' को भी पूरा कर देना चाहती थी। तसल्ली से आँखें बंद करके कॉफी पीना, लिखना, पढ़ना या दुनिया जहान की यादों में खो जाना उसे पसंद है। सोचने लगी, ज़िंदगी में सभी कुछ अच्छी तरह चल रहा है। प्रधानाचार्य की कुर्सी पर बैठी है, ऊंची तनख्वाह है, कुछ करीबी प्रिय मित्र हैं। उधर घर पर बड़ा भाई हैं, भाभी है, माँ और छोटा भतीजा है। फिर कहाँ क्या कमी रह गई जो कभी - कभी मित्र लोग उससे आज भी 'मौलसिरी तुम अकेले रहते बोर नहीं होती हो?' जैसे अजीब सवाल पूछ लेते हैं।
‘‘मैं बोर होने के लिए वक्त ही नहीं रखती हूँ।" वह तपाक से कह देती है। सच्चाई भी यही है। सुबह स्कूल में अध्यापिकाएं, विद्यार्थी, मीटिंग आदि देखना। स्कूल की अन्य शाखाओं का निरीक्षण करना फिर लिखना, पढ़ना, फूल पौधों का ध्यान रखना, बागवानी करना, मित्रों से मिलना और भी पता नहीं वह क्या-क्या करती रहती है। वक्त उसके लिए बल्कि कम पड़ जाता है।
मौलसिरी सुंदर कद -काठी और नैन -नक्श की खूबसूरत लड़की है। "देखना मेरी मौली को कोई प्यारा सा खूब प्रेम करने वाला राजकुमार ब्याह के ले जाएगा।" गुरुर से भरी माँ अक्सर कहती है। किन्तु जैसा सोचो जरूरी नहीं वैसा हो ही जाए। वह अपनी सुंदरता से वाकिफ थी। साथ ही ऊँचे ख्वाब भी रखती थी। जीवन में किसी अच्छे बड़े पद पर कार्य करना उसकी प्राथमिकता रही। इसीलिए ज़िंदगी के चालीस वसंत देख चुकी मौलसिरी, माँ पिताजी के लाख समझाने पर भी शादी का मन नहीं बना सकी। यह रिश्ता उसे हमेशा उलझन से भर देता है।
वक्त फिसलता रहा, उसके जीवन में बहुत कुछ बदलता रहा। पिताजी इस संसार से बिना किसी शिकायत के जल्द विदा हो गए और माँ कीर्तन-भजन करती, पोते पोतियों के साथ मन लगाती हुई अपना समय बिताने लगी। भाई अपनी गृहस्थी और काम धंधे में लगे रहते। उसे सभी जगहों से उसके हिस्से का भरपूर स्नेह और सम्मान मिलता रहा। सहज रूप से चलते इस जीवन में उसे कोई परेशानी नहीं थी।
जाड़ों की मीठी धूप से अब उसका बदन गरमाने लगा था। इससे पहले वह 'चेखव' को पढ़ना शुरू करती उसे तीन दिन पहले वसंत से अचानक वर्षों बाद हुई मुलाकात याद आ गई। फिर कल शाम जब दोनों ने फिर से कुछ समय साथ बिताया तो कितना कुछ बीता- गुजरा याद आ गया था। कल से वह बेहद खुश है। एक अनजानी सी खुशी। जैसे वर्षों पूर्व का कोई भूला -भटका अपना मिल गया हो। मोगरे के कई फूल एकसाथ खिल उठे जिससे उसकी सारी कायनात महक उठी। लरजता सुगन्धित हवा का झोंका उसकी साँसों में बस गया। वसंत से मिल कर उसे इतनी खुशी होगी उसने कभी नहीं सोचा था।
गुजरा वक्त कभी किसी का पीछा नहीं छोड़ता। रह -रह कर हमारे आज में उसकी दखलंदाजी चलती रहती है। वह वर्षों पुरानी यादों में खो गई। कितना अच्छा समय था। सभी बेफिक्र और स्वछंद रहा करते थे। तब न कोई तनाव होता था न बड़ी जिम्मेदारियाँ। वह वसंत से कॉलेज के ज़माने में हुई अपनी मुलाकातों को सहेजने लगी।
वसंत और मौलसिरी कानपुर में कालेज के ज़माने के मित्र थे। एक दूसरे को भली-भांति समझते, सुख-दुख बांटते हुए कुछ दूर तक, कुछ देर तक साथ चले थे। साथ चलते हुए थर्ड ईयर के आखिरी दिनों में अपने प्रेम को दर्शाते दबी ज़ुबान में वसंत ने उसके आगे शादी का प्रस्ताव रख दिया था। तब उसे बहुत अटपटा लगा था। अचानक इस तरह एक प्रिय दोस्त ये सब कह देगा वह सोच नहीं सकी। उसने शुरू से तय कर रखा था कि वह विवाह जैसे बंधन में कभी नहीं बंधेगी। वसंत के प्रस्ताव से दोस्ती के रिश्ते थोड़ा उलझते हुए भटकने लग गए। दोनों में दूरी आने लगी। दूरी बेशक उसने खुद बनानी शुरू की थी। वसंत उसका प्यारा दोस्त था। उसके सपने, उसके विचारों से वाकिफ था। फिर उसने ऐसा कैसे सोच लिया?' वह हैरान हुई।
मानती है दोनों एक -दूसरे के साथ वक्त बिताते हैं, राय -मशवरे किया करते हैं, रोज़ मिलते हैं और दुःख -सुख में एक दूसरे का साथ निभाते हैं। परन्तु वसंत अच्छी तरह से यह भी जानता था कि उसने शादी को हमेशा बंधन माना है। "तुम इसे बंधन क्यों मान लेती हो? इस खूबसूरत रिश्ते को समझती क्यों नहीं हो मौली?" उस दिन वसंत ने उसे खूब ससमझाया। परन्तु वह जैसे कुछ समझना ही नहीं चाहती थी। ज़िद की पक्की वह बचपन से रही है। एक दो बार दोनों के बीच चर्चा हुई, वाद -विवाद हुआ, तकरार हुई। फिर कभी किसी की तरफ से शादी का कोई ज़िक्र नहीं हुआ।
शादी के प्रस्ताव की उम्मीद न करती हुई मौलसिरी उस दिन परेशान हुई और उदास भी। 'अभी इस सब का वक्त कहाँ आया था? अभी हमारी उम्र ही क्या है? ज़िंदगी में आगे बढ़ना है, मंजिलें तलाशनी हैं। वसंत के मन में चल क्या रहा था? ऐसे तो हम अपनी मंजिल से भटक जाएंगे। उसको इस मोह से बाहर निकलना होगा।' सोचते हुए उसने वसंत के सामने अपनी मंशा रख दी।
‘‘वसंत तुम जानते हो अव्वल तो मुझे शादी कभी करनी नहीं है। फिर तुम्हारा अभी से शादी के बारे में सोचना क्या जल्दी नहीं है? हम अच्छे दोस्त है। दोस्ती और शादी दो अलग-अलग भाव होते हैं। दोस्ती अहसासों का वह सुन्दर स्वरूप है जिसमें भय, अधिकार, अविश्वास, थोपे गए रिश्ते, लादी गई जिम्मेदारी और बंधन जैसी बे- बुनियादी बातों के लिए कोई जगह नहीं होती है। दोस्ती अपने आप में बहुत ही पाक, पवित्र, स्वतंत्र और स्नेहिल रिश्ता होता है। ऐसे में शादी बीच में कहाँ से आ गई? देख दोस्त यदि ये दोस्ती हमें अपनी मंजिलों से भटका दे तो इससे बुरा कुछ नहीं। हम दोस्ती को ठीक से निभा-समझ नहीं पा रहे हैं। ऐसा करते हैं अभी कुछ वर्ष थोड़ा दूरी पर रहते हैं। उसके बाद उम्र की परपक्वता से बातें समझ आनी शुरू हो जाएंगी। मंजिल तक के सफ़र कुछ हद तक सुलझ जाएंगे। फिर देखते हैं। उम्मीद करती हूँ तुम मुझे गलत नहीं समझोगे।"
“मौली कभी वक्त निकाल कर अपना मन जरूर टटोलना, मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूंगा। वक्त के साथ तुम्हें शादी और साथ की महत्ता की जरुरत महसूस होगी। शादी बेहद सुन्दर रिश्ता होता है।" भावुक होता वसंत उस समय सिर्फ इतना ही कह सका था। उस के बाद कुछ महीने तक उसने मौलसिरी के उत्तर का इंतज़ार किया। मौलसिरी से इसके बाबत घुमा -फिरा कर बात की। परन्तु मौलसिरी की तरफ से न कोई प्रयास हुआ और न उसे कोई भरोसा मिला। थर्ड ईयर समाप्त होते ही मायूस होकर आगे का सफर तय करने और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वह विदेश चला गया।
कुछ वर्ष बाद वहीं पर अच्छे पद पर अफसर हो गया। मौलसिरी का कॉलेज समाप्त होने पर रिश्तेदार, मित्र और संबंधी उसके अकेलेपन और शादी न करने पर लगातार प्रश्न करने लगे। विचलित होकर उसने, उस शहर को छोड़ दिया। वह सुंदर पहाड़ियों की शांत, खूबसूरत वादियों में जाकर बस गई। वही से आगे की शिक्षा ली और जीवन में बढ़ती रही। कुछ वक्त तक अध्यापिका रही। कुछ वर्ष बाद प्रधानाचार्य के पद पर पहुँच कर अपने शांत जीवन को मनमुताबिक जीने लगी।
शुरुआती वर्षों में वह वसंत के साथ बिताए सुखद लम्हों को यदा-कदा याद कर लेती थी। सुख-दुख की कितनी यादें, साथ परीक्षाओं की तैयारियां करना, हँसी-मजाक, सब कुछ याद करके उसके होंठों पर एक शांत, तृप्त मुस्कुराहट आ जाती थी। धीरे-धीरे सब कुछ अतीत की यादों में तब्दील हो गया। वक्त की धूल ने उन यादों को धुंधला कर दिया। दिन वर्षों में बदलते रहे और वर्ष अपनी गिनती बढ़ाते रहे। अपने-अपने सपनों का पीछा करते दोनों खो गए। दो देशों की दूरियां, दिलों की दूरियां बन गईं। दोनों के बीच फिर दोस्ती का रिश्ता भी नहीं रह सका। उसे इस बात का कभी कोई मलाल भी नही रहा।
ज़िंदगी की रफ्तार को पकड़ पाने की कोशिश में दोनों का बहुत कुछ पीछे छूट गया। यादें धूमिल पड़ी, शादी की उम्र पीछे छूटने लगी। भले ही वक्त ने मौलसिरी के चेहरे पर हालातों व उम्र का इतिहास बताती हुई कुछ टेढ़ी-सीधी लकीरे खींच दी थी। परन्तु उम्र और हालात उसके रूप, व्यक्तित्व व सोच को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सके।
तीन रोज पहले की बात है। उस दिन शाम को वह बुक स्टोर में बैठी पत्रिका पढ़ रही थी कि बेहद परिचित सी धीर -गम्भीर आवाज पर चौंकी।
‘‘पाण्डेजी, मौलसिरी दत्ता की नई किताब आई है क्या? अब तो बहुत समय हो गया है। वे तो खूब लिखतीं हैं।"
आश्चर्य चकित होती वह उसे एकटक देखती रह गई। उम्र का थोड़ा भराव लिए शरीर, लम्बा कद, गेहुँआ रंग और सिर पर कुछ सफेदी झलकाते काले बाल जो आज भी माथे पर बेतरतीब बिखरे हुए थे। वक्त के साथ कमजोर होती नजरों को चश्मे का साथ मिल गया था। जिससे उसका उम्र के साथ परिपक्वता लिए व्यक्तित्व थोड़ा और रूआब वाला लग रहा था। पेंट शर्ट व काले लेदर शूज। इन्ही सब के चलते वह कालेज के दिनों में लड़कियों को आकर्षित करता हुआ बातें करने की ढेरों वजह दे जाता था।
“वसंत साहब, आप तो उनके बहुत बड़े प्रशंसक हैं, अब तक की उनकी सारी प्रकाशित किताबें पढ़ चुके हैं। आज सौभाग्य से मैडम यहीं पर हैं। आप उनसे मिल लीजिए और किताब पर उनके औटोग्राफ भी करवा लीजिए।" दुकानदार उसे ‘अनाम रिश्ते’ की नई प्रति थमाते हुए प्रसन्न हुआ। चौंक कर उसने दुकानदार द्वारा किए हुए इशारे पर उस तरफ देखा। मौलसिरी को देख कर भावविह्वल होता खड़ा रह गया। फिर धीरे क़दमों से आकर उसके सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया।
कई वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद दोनों एक दूसरे के सामने बैठे अति प्रसन्न हुए। साथ ही बेहद असहज और हैरान होते दोनों समझ नहीं पा रहे थे क्या बोले? कहाँ से शुरुआत करें? कुछ देर तक दोनों आमने-सामने बैठे चुपचाप खामोशी बुनते रहे। मौन रहकर एक-दूसरे से बहुत सारे सवाल -जवाब करते रहे। अलगाव और दूरियों ने औपचारिकता पैदा कर दी थी।
"कैसी हो, यहाँ पर कब से हो?” वसंत ने खामोशी तोड़ी।
"अच्छी हूँ, पिछले कई वर्षों से यहीं पर हूँ।"
"तुम विदेश से कब आए?"
‘‘दो वर्ष पहले। अब यहीं हूँ।" दोनों चाय पीते हुए औपचारिक बातचीत करते रहे। दोनों के पास पिछला बहुत था साझा करने के लिए। पूछने के लिए और बताने के लिए।
"कभी मन टटोलने की फुरसत नहीं मिली या फिर जरूरत ही नहीं समझी?" वसंत ने बिना भूमिका बांधे, संजीदा हो कर पूछा।
“...‘‘ कुछ न बोल कर मौलसिरी मुस्कुरा दी।
‘‘तुम कभी नहीं बदलोगी। पहले की ही तरह बातों का जवाब न देकर सिर्फ मुस्कुरा कर मेरी बातों को विराम लगा रही हो।"
करीब दो घण्टे बीत गए। अपनी घड़ी की तरफ देखते हुए वसंत ने इजाजत ली। वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। उसी तरह बैठी हुई मौलसिरी की तरफ देखता हुआ बोला। "यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो चलो तुम्हें घर छोड़ दूँगा।"
"मेरे पास गाड़ी है, मैं चली जाऊँगी।" वह भी उठ गई। उसके साथ चलती हुई बाहर तक आ गई। अपनी कार स्टार्ट करने से पहले वह रुकी और वसंत की तरफ देखा। "कभी घर नहीं बुलाओगे? इसी बहाने तुम्हारे परिवार व बच्चों से मिल लूँगी।" उसने अनायास अपने को कहते पाया।
“कल शनिवार है, मेरा अवकाश होता है। सुबह नाश्ते पर तुम्हारा इंतजार करूंगा। आना। मुझे अच्छा लगेगा।" वसंत ने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा और अपना कार्ड उसकी तरफ बढ़ा दिया। कभी-कभी लगता है इंसान कितने भरम में जीता है। मौलसिरी को लगता था वह अपने एकांत से बहुत खुश और संतुष्ट है। परन्तु इतने वर्षों के बाद वसंत से यूँ अचानक हुई मुलाकात उसे अपने जीवन में ताजी हवा के झोंके सी लगी।
अगले दिन सुबह उत्साह से भरी और करीने से सजी मौलसिरी ने अपना वादा पूरा किया। नाश्ते में उसके घर पहुंच गई। वह उस समय लॉन पर टहलता हुआ अपने पौधों को देख रहा था। शुरू से ही उसे फूल, पौधों और बागवानी का बहुत शौक था। उसे इस तरह अपने पौधों को निहारते देख कर वह प्रसन्न हुई। "अब भी तुम अपने इस शौक को पूरा कर लेते हो?”
“इन्ही के बीच रहकर कुछ सुकून के पल जी लेता हूँ।" उसे देख कर वो खुश हुआ।
"तुम्हें तो जाड़ों की कच्ची धूप बहुत पसंद है ना? चलो यहीं लॉन पर बैठकर नाश्ता कर लेते हैं।" उसने भीतर की तरफ आवाज दी। "काका नाश्ता यही लॉन पर ही लगा देना।"
वे दोनों फिर बातों में खो गए। सत्ताईस लम्बे वर्षों का लेखा-जोखा। क्या पाया क्या खोया? इतने वर्षों में क्या-क्या बदला? बहुत कुछ बताना -जानना था। शानदार नाश्ता व गपशप के बीच मालूम नहीं पड़ा समय कब बीत गया। दिल और दिमाग का मेल हो तो साथ खूबसूरत लगता है और समय तेजी से उड़ने लगता है। नाश्ता समाप्त हो गया। बीती -गुजरी बहुत सी बातें भी हो गईं। उसने हाथ पर बंधी घड़ी में वक्त देखा। "बहुत वक्त हो गया, अब मुझे जाना चाहिए। आज छुट्टी है माँ से मिलने भी जाऊँगी। वे मेरे यहाँ कम आ पाती हैं। बीमार रहने लगी हैं न। मुझे ही उनसे मिलने जाना पड़ता है। वैसे भी, उन्हें मुझ से ज्यादा अपने पोतों का मोह है।" वह हँस दी। वसंत भी खड़ा हो गया। उसे हैरानी हुई। 'इतना समय हो गया। अभी तक वसंत के परिवार का कोई सदस्य उससे मिलने नहीं आया, और न ही उसने किसी से मिलवाया।'
‘‘अपने परिवार के अन्य सदस्यों से नहीं मिलवाओगे?" वह संकुचित और उत्सुक हुई।
"क्यों नहीं, आओ।" अजीब सी मुस्कुराहट उसके होंठों पर फ़ैल गई। दोनों घर के भीतर चले गए। सुसज्जित बैठक कमरा देखकर वह प्रसन्न हुई।
"बड़े शौक से सजाया है, किसने किया ये सब?" उसने सराहा।
‘‘...‘‘ वह उसकी तरफ देखता है परन्तु बोला कुछ नहीं। दोनों आगे बढ़ गए। कमरे के कोने में सजे प्राचीन नक्काशीदार किताबों की रैक पर नज़र डालती हुई मौलसिरी वहाँ गई। देखती है उसकी सभी रचनाओं का संग्रह उसमें मौजूद है। 'साथ् तुम्हारा' पुस्तक के सेल्फ के ऊपर लिखा हुआ यह वाक्य पढ़ते ही सहसा उसने अपने दिल में एक मीठी टीस महसूस की।
“ये क्या है वसंत? कब से पढ़ रहे हो मुझे?"
“...‘‘ वह अर्थपूर्ण नज़रों से उसे निर्निमेष देखता रहा। बेहतरीन ढंग से सजे सारे घर को देख कर मौलसिरी खुश हुई। उसकी उत्सुकता बार -बार सिर उठा रही थी।
"बाकी सब लोग कहाँ है? तुम्हारी पत्नी, बच्चे?" झिझकते हुए पूछ बैठी।
"उनका आज तक न खत्म होने वाला इन्तज़ार कर रहा हूँ..." उत्तर का इंतज़ार करती आँखों और उम्मीद से भरे हुए उसने मौलसिरी की तरफ देखा।
"..." स्तब्ध मौलसिरी खामोश रही। दोनों सुस्त क़दमों से मुख्य द्वार की तरफ बढ़ने लगे। कुछ कदमों का रास्ता दोनों को मीलों लम्बा लगने लगा।
"दीदी गर्म कॉफी और ले आऊं?" यशोदा की आवाज़ से वह वर्तमान में वापस आई। उसके हाथ की कॉफी ठंडी हो चुकी थी। पिछला दिन याद करते हुए वह प्रेम और रुमानियत से भर गई। उत्साहित होकर उसने समय गंवाना उचित नहीं समझा। झट वसंत को फोन मिलाया।
"सुनो वसंत कल मिलते हैं? अब और नहीं, पहले ही बहुत देर हो चुकी है…" कह कर उसने झट फोन रख दिया। हृदय
की धड़कनें द्रुत गति से दौड़ने लगीं। यदि वसंत के साथ बिताए पलों के ख़याल से निकल सकी जिसकी गुंजाइश न के बराबर थी, तो धूप में बैठ कर अब वह चैन से चेख़व पढ़ेगी। उसके होंठों पर सुकून भरी, भीगी, भावुक मुस्कान तैरने लगी। मानो तपते रेगिस्तान में बारिश की बूंदें पड़ने लगी हो।