आलमपनाह

आलमपनाह

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"क्या हाल बना दिया है घाव का। गेंग्रीन हो जाएगा तो पूरी टांग काटनी पड़ेगी। काट दूँ टांग अम्मा?" डॉक्टर आलम परेशान हो कर बोले। अम्मा ने घबरा कर हाथ जोड़ दिए और आँसू बहाने लगी। वह दुखी और चिंतित होते हुए फिर कहने लगे। "एक तो तुम लोग मर्ज को वक्त रहते दिखाते नहीं हो ऊपर से फिर मिटटी, गोबर…पता नहीं क्या -क्या लेप देते हो। कौन समझा देता है तुम्हें ये सब ? मेरी बात ध्यान से क्यों नहीं सुनते हो?
 "क्यों रे सतेन्द्र माँ का इतना भी ख्याल नहीं रख सकते? फिर जब मर्ज बढ़ जाएगा, बड़ा ईलाज करना पड़ेगा तब तुम लोग अपनी गरीबी का रोना लेकर बैठ जाओगे।" वह उसके बेटे को भी डपट देते हैं। अपनी बारी का इंतज़ार करते वहाँ खड़े तमाम मरीजों की तरफ मुखातिब होकर डॉक्टर आलम चिंतित होते रोष के साथ बोले। "मैं तुम लोगों के लिए यहाँ पर आता हूँ, मुफ्त दवाइयाँ देता हूँ, ईलाज करता हूँ, सलाह देता हूँ, फिर भी तुम लोगों को मेरी बात समझ में क्यों नहीं आती? गल-गल कर मरना मंजूर है पर मेरी बात पर ध्यान नहीं देना हुआ। अब ऐसा ही रहा तो मैं आगे से तुम लोगों के गाँव में कभी नहीं आऊँगा। घास -मिट्टी लगाओ , झाड़ -पूछ करो, टोटके करो, मरो -जिओ जो मर्जी वो करो।" चिंता और दुख उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा था। 
डॉक्टर आलम शहर के नेकदिल और मशहूर डॉक्टर थे। महीने में दो बार उन दूर -दराजों के गाँवों में अपने सहयोगियों के साथ कैम्प लगाते थे जहाँ पर अस्पतालों की सुविधाएँ नहीं होतीं है। वहाँ लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक कराते थे। वे जब भी इस गाँव में आते थे उस दस-बारह वर्ष के लड़के पर उनकी नज़र जरूर अटक जाती थ। वह चुस्ती और निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य में हाथ बंटाता था। कभी-कभी डॉक्टरों को खाना परोसते हुए भी दिखता था। वह जब भी उसे देखते उन्हें अपना बचपन याद आने लगता था। उन्होंने गांव के कम्पाउंडर से पूछा।  
"वो लड़का कौन है?"
"श्री नाम है डॉक्टर साहब उसका। श्रीधर, बहुत अच्छा लड़का है। यहीं गाँव में ही रहता है। यहाँ अपनी बीमार माँ को लेकर आता है।"
"यहाँ बुलाओ उसे।" उसकी सेवा भाव और मेहनत से खुश होकर वे उसे बुलवाते हैं।  
" श्री....... ओ...श्रीधर.....इधर आ, तुझे डॉक्टर साहब बुला रहें हैं।" कम्पाउंडर ऊँची आवाज में उसे बुलाता है।"जी नमस्ते डॉक्टर साब" श्री हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करता है और खुशी से इठलाता हुआ उनके आगे हाज़िर हो जाता है।  
"स्कूल जाते हो श्री?"  
"नहीं डॉक्टर साब, स्कूल जाऊँगा तो घर पर कैसे चलेगा? माँ बीमार रहती है। अपाहिज पिता और पाँच साल की छोटी बहिन झूमा सबका ध्यान रखना होता है। साहूकार के घर और खेतों में खूब काम करता हूँ तब जाकर एक जून की रोटी मिलती है।" व्यथित होते डॉक्टर आलम सिहर उठते हैं। श्रीधर की उम्र में वह अनाथ हो चुके थे और जूठे बर्तन धोने में उन्होंने अपना बचपना स्वाहा किया था। न जाने क्यों श्रीधर को देखकर उन्हें लगा मानो एक बार फिर उनकी अपनी कहानी दोहराई जा रही हो। जीवन के उतार -चढ़ाव की लम्बी यात्रा जो वह अब तक तय कर चुके थे। सब चलचित्र की तरह उनकी आँखों के आगे आने लगा।
माँ उसके पैदा होने के सोलहवें दिन गुजर गईं थीं। किसी तरह बाबूजी ने दूसरों के खेतों में हल चला कर उसे और उसके बड़े भाई को पाला था। बड़ा भाई जब चौदह वर्ष का हुआ तो गरीबी से तंग आकर एक दिन घर छोड़कर न जाने कहाँ चला गया था। वह खुद मात्र आठ वर्ष का ही था जब दवा -इलाज़ के अभावों से बाबूजी भी चल बसे थे। फिर उसकी ज़िंदगी में रह ही कौन गया था जो स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरता?
एक दिन कुछ गाँव वालों के साथ वह दिल्ली आ गया। उसने सुना था कि दिल्ली बड़े दिल वाला शहर है। वहाँ पर अमीर-गरीब सभी को मेहनत करने पर रोटी और रात को सोने का ठिकाना मिल जाता है। उसके काका ने उसे पास के ढाबे में बर्तन धोने पर लगा दिया था। शहर का मिज़ाज़ समझते और दुनियादारी सीखते दो वर्ष बीत गए थे। वह देर रात तक ढाबे और होटलों में बर्तन सफाई करता और आधा -अधूरा पेट खाना खा कर वहीं कहीं सो जाता था। मालिकों की डांट, गालियाँ सुनकर और तिरस्कार पाकर वह ज़िंदगी के पाठ सीखने लगा।
"ये ऊपरवाला, मालिक लोगों को बिना दिल के बनाता है क्या? मेरी समझ में ये नहीं आता हर मालिक इत्तू सी गलती पर मारता काहे को है?" मित्रों से कहता हुआ वह उन्हीं के साथ इस बात पर हँस पड़ता था। उस पर लगे झूठे आरोपों से उसे सख्त चिढ थी। पिछले मालिक ने जब पगार देते समय उस पर छह प्लेट तोड़ देने का झूठा आरोप लगाया था और औने-पौने पैसे उसके हाथ में पकड़ाए थे तब उसने भी गुस्से से छह प्लेट ज़मीन पर पटक कर दे मारी थी और 'अब ठीक है, हिसाब बरोबर' कह कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था।
कुछ दो महीने से वह हाईवे पर बने दूसरे होटल में काम करने लगा था। वह उसका तीसरा मालिक था। वहाँ पर भी वही सब नाटक। वो दिन आज भी उसको बहुत अच्छी तरह से याद है जब धुली हुई स्टील की प्लेटों से पानी झटकते हुए वो उसके हाथ से झन्न करके छूट कर नीचे गिर गई थी। कौन सा ऐसा पहाड़ टूट पड़ा था कि मालिक ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसकी कनपटी पर धर दिया था और गुस्से से चिल्ला कर कहा था। "हराम खोर बाप का माल समझ रखा है......एं.…हाथों को लकवा मार गया है क्या? एक भी काम इस कामचोर से ढंग से नहीं होता।"
"कितनी भी मेहनत करो, ग्राहक खुश हो जाएगा पर ये स्याला मालिक कोई न कोई कमी जरूर निकलेगा। फिर पगार काट- छाँट कर थोड़ा सा पैसा हाथ में रख देगा…घटिया आदमी।" दर्द से बिलखता और आँसू पीता वह कंधे पर पड़े अंगोछे से टेबल साफ़ करने लगा और देर तक गुस्से और अपमान से बडबडाता रहा था। उसे लगने लगा था दुनिया में गरीबी से बड़ी कोई गाली नहीं। जितनी जल्दी हो सके उसे इस सब से बाहर आना होगा, कैसे भी करके। जब उसने ये सब अपने साथियों से कहा तो वे सब उसकी खिल्ली उड़ाते हुए उस पर हंस दिए थे। "नवाब हुआ तू, जा मालिक लोग तेरा इन्तजार कर रहे होंगे। कब तू आएगा और कब उनका होटल चल निकलेगा।"
"तुम स्याले भी...." तब गुस्से और खिसियाहट से उसने एक गंदी गाली हवा में उछाल दी थी।
"डॉक्टर साहब अब मैं जाऊँ क्या?" श्रीधर डॉक्टर साहब को चिंता में मशगूल होता देख कर बोला।
"हाँ ठीक है श्री। कल फिर आ जाना और माँ को टाईम पर दवाइयाँ खिलाते रहना, ठीक है?" उसकी आवाज़ पर चौंक कर डॉक्टर आलम वर्तमान में वापस आए और बोले। परन्तु उसे जाते देख कर कुछ ही देर में फिर पुरानी यादों के सिरे जोड़ने लगे। सोचने लगे 'जैसे एक दिन उनकी खुद की ज़िंदगी बदल गई थी, क्या कभी श्रीधर की भी बदलेगी?'उन्हें बखूबी याद है उस दिन जब वह अपनी दुखती हुई कनपटी को सहलाते हुए काम कर रहा था। एक बड़ी गाड़ी उस होटल के सामने आकर रुकी। पहले उसमें से लगभग दो उसी की उम्र के लड़के उतरे फिर उनके सभ्य से दीखते माता -पिता। उसने मुस्कुरा कर उनका स्वागत किया। कुछ था उसकी मुस्कुराहट में कि ग्राहक उसे पसंद करते थे और जाते हुए बख्शीश भी दे जाते थे।
"क्या लाऊँ साब? यहाँ बहुत लज्ज़तदार खाना मिलता है। आप बताओ मेमसाब। बाबा लोगों को भी क्या चाहिए सब मिलेगा।" उसने उन्हें कुर्सियों पर बैठाते हुए मेन्यू कार्ड उनके सामने रख दिया था। झटपट पानी लेकर चुस्ती से फिर उनके आगे हाज़िर हो गया था।
"अरे जरा इधर तो आ, ये तेरी आँखों पर क्या हुआ है?" डॉक्टर मयंक सहाय उसकी कनपटी से आँखों तक ऊग आई लाली और सूजन को देखते हुए बोले। वह गरीबों के मसीहा और शहर के जाने -माने डॉक्टर थे। गाँवों में फ्री कैम्प लगाना और गरीबों का मुफ्त ईलाज़ करना वह अपना पहला कर्तव्य और सबसे बड़ा धर्म समझते थे।
"कुछ नहीं साब ये रोज का लगा धंधा है। आप बताओ साब, आप लोग क्या लेना पसंद करेंगे? यहाँ एकदम फस्ट क्लॉस खाना मिलेगा।" वह अपनी ग्राहकी करने लगा।
"नाम क्या है तेरा?" भोजन के अभाव से उसके कुपोषित शरीर को देख कर दयालू मेमसाब ने पूछा।  

"सभी छोटू कह देते हैं मेमसाब। मगर बापू आलम कहते थे.…आलमपनाह। कहते थे तू खूब चुस्त और अक्कलवाला है। बड़ा होकर सहर जाना, खूब पढ़ना और बड़ा आदमी बनना। पर सब कुछ जैसा सोचो वैसा होता तो नहीं है न सॉब? बड़े आदमी को आलमपनाह कहते है न साब?……बस वही।" उसने ये सब मुक्त हँसी हँसते हुए कह दिया था।
"वही देख रहा हूँ जितनी तेरी उम्र नहीं है उससे ज्यादा ही अक्ल है तुझे। तो आलमपनाह बता यहाँ सब ठीक चल रहा है या फिर मेरे साथ शहर चलेगा? डॉक्टर हूँ। वहाँ पढ़ेगा और साथ में मेरे नर्सिंग होम मैं काम भी करेगा।" उस दिन आलम को समझ नहीं आया था कि वह सपना देख रहा है या फिर सब हक़ीक़त थी। खुशी से छलकता हुआ बोला।
"चलूँगा साब....क्यों नहीं चलूँगा...बिल्कुल चलूँगा। यहाँ तो बस रोज़ का यही सब है।" उसने कनपटी की तरफ इशारा करते हुए कहा था।
"बहुत सवेरे से देर रात तक खूब काम करो, फिर भी भर पेट खाने को नहीं मिलता। साथ में -बर्तन साफ़ नहीं धुले, सफाई बरोबर नहीं हुई, कप - ग्लॉस तोड़े, कहकर मालिक झूठे आरोप लगता है। नुक्सान की भरपाई और रहना -खाना काट कर थोड़ी सी पगार हाथ में रख देता है।" सहानुभूति पाकर भीतर के दर्द को बहुत दबाने की कोशिश करता हुआ वह सिसक पड़ा था।
उस समय अपनी खुद के और आज श्रीधर के हालातों को याद करते हुए उन्हें लगा कि हालात इंसान को किस कदर मजबूर कर देतें हैं। वक्त से पहले ही बचपना कुम्हला जाता है और उन्हें व्यस्क बना देता है। उन्हें बड़ों की तरह बातें बनानी भी आ जाती हैं।
"कसाई है ये होटल वाला। इसकी अपनी औलाद नहीं होगी क्या? डॉक्टर साहब हमने नहीं पीनी यहाँ चाय।" मेमसाब आँखें नम करती हुई भड़क कर बोली थीं। उसी दिन वह डॉक्टर मयंक के साथ शहर आ गया था। फिर जैसे उसका दूसरा जन्म हुआ था। आज भी याद है उसे। वह उस दिन भर पेट भोजन कर लेने की तृप्ति से प्रसन्न था। बहुत दिनों बाद भर पेट खाने की खुमारी में सर्वेंट क्वॉटर के फर्श पर लगे गद्दे पर लेट कर वह अपने आने वाले जीवन के सुन्दर सपने देखना चाहता था। परन्तु नींद जल्द ही उस पर हावी हो गई थी। 

उसकी नींद अगली शाम को खुली थी। तब थोड़ी देर तक असमंजस में वह समझ नहीं पाया था कि वह है कहाँ? कमरे से बाहर निकल कर डॉक्टर साहब के बंग्ले के मुख्य द्वार पर गया। देर तक सोने की शर्मिंदगी उसके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। सामने डॉक्टर साब और मेमसाब शाम की चाय पी रहे थे और कुछ मुद्दों पर बातें कर रहे थे।
"साब।" वह धीरे से बोला।

"अरे आलम.......आजा बेटा। हो गई तेरी नींद पूरी? कब से नहीं सोया था रे?"  मेमसाब ने बेहद स्नेह से उसकी तरफ देख कर कहा था।  

"बस साब अब नहीं होगी ऐसी गलती। अब आप बताइए क्या काम करना है? देखना साब में कितना काम करता हूँ।"
"हाँ हाँ कर लेना जितना काम करना हो। अब यही तेरा घर है छुटके।" डाक्टर मयंक हँस कर बोले थे। "देख आलम तेरी लगन और मेहनत को देख कर ही मैं तुझे यहाँ लाया हूँ। यदि तू मन लगा कर पढ़ेगा तो एक दिन जरूर बड़ा आदमी बन जाएगा। और उस दिन स्वर्ग में बैठे तेरे पिताजी की आत्मा को सुकून मिलेगा। और यदि नहीं पढ़ेगा न तो फिर से ढ़ाबों, होटलों में जाकर बर्तन धोना। समझ रहा है न मैं क्या कह रहा हूँ?" डॉक्टर मयंक ने उसे समझाया।  
"अब से आप लोग ही मेरे माई - बाप हो साब। मैं आप लोगों को कभी नाराज नहीं करूँगा।" इतना स्नेह पाकर वह पानी से भरे बादल की तरह बरसने को तैयार था।
डॉक्टर मयंक ने अपने दोनों बेटों के साथ ही उसका नाम भी स्कूल में लिखवा दिया था। डॉक्टर मयंक का मान रखते हुए वह खूब मन लगा कर पढता रहा और कुछ ही समय में कक्षा में अव्वल आने लगा। रात में वह अन्य लोगों के साथ सर्वेंट क्वॉटर में नहीं रहता था बल्कि अपने काम ख़त्म करके वहीं रसोई में ही अपना कम्बल, दरी बिछा लेता था और नींद से लड़ता हुआ लगन से पढ़ता था। घर के छोटे -बड़े कितने ही काम अपनी सामर्थ्य के अनुसार करता हुआ वह सभी को खुश भी रखता था। उसकी मेहनत और लगन देख कर डॉक्टर मयंक और उनकी पत्नी दोनों उससे बेहद खुश रहते थे। डॉक्टर साहब के नर्सिंग होम में काम करते हुए उसके मन में डॉक्टरी पेशे के प्रति खूब आदर हो गया था।
पढ़ते -करते बारहवीं की परीक्षा में अच्छे अंक लाने पर डॉक्टर मयंक ने अपने बड़े बेटे के साथ उसका भी एम बी बी एस की परीक्षा के लिए फार्म भरवा दिया था। उस दिन वह कितना खुश था। अपने बाबूजी को याद करता हुआ घर के पिछवाड़े में जाकर देर तक रोया था। किसी भी कीमत पर अब वह डॉक्टर साहब को निराश नहीं कर सकता था। अब समय आ गया था जिस दिन के लिए उसके बाबूजी उसे आलमपनाह कहते थे। डाक्टर मयंक के क़र्ज़ के बोझ से उऋण होने की चाह लिए वह रात -दिन मेहनत करने लगा था।
दिन बीतने लगे और एक दिन जब उसने डॉक्टर की डिग्री लाकर डॉक्टर मयंक के हाथों पर थमा दी और आँसुओं से उनके पैर धो डाले तब वह अपने आपको हल्का महसूस कर रहा था। डॉक्टर मयंक ने जब नम आँखों से गद -गद होकर उसे गले से लगा लिया तब उसे लगा मानो उसका जीना सार्थक हो गया है। डॉक्टर मयंक ऐसे उपकार तो ज़िंदगी भर करते आए थे परन्तु ऐसा प्रतिफल उन्हें पहली बार मिला था। खुश होते हुए वह उसे वही पाठ पढ़ाने लगे जैसे वह खुद जी रहे थे। उसके ज़हन में वो बातें आज भी बखूबी समाई हुई हैं। जब उन्होंने कहा था।
"आलम, मेरे बेटे... अब तुम देश सेवा के लिए तैयार हो गए हो। इस देश ने तुम्हें डॉक्टर बनाने के लिए पांच वर्ष तक अपना पूरा योगदान दिया है अब तुम्हारी बारी है। दूर दराज के अभावग्रस्त गाँवों में और जहाँ भी देश को तुम्हारी जरुरत हो तुम जरूर जाना और अपना काम पूरे मनोयोग से करना। यही सच्ची देश भक्ति होगी।" और डॉक्टर आलम एक समर्पित डॉक्टर के तौर पर सच्चे देश -भक्त साबित हुए हैं।
डॉक्टर साहब, आप की तबियत तो ठीक हैं? बाकी के मरीजों को दोपहर बाद बुला लूँ?" उन्हें चुप-चाप सोचों में खोया हुआ पाकर कम्पाउण्डर चिंतित स्वर में बोला। कम्पाउण्डर की आवाज पर वह चौंक उठे। और अपने ख्यालों से बाहर आते हुए बोले।
"अरे नहीं भाई.....भेजो फ़टाफ़ट.....एक -एक करके। सबको देख कर ही घर जाऊंगा। न जाने ये कितनी तकलीफों में हैं और सुबह से ही यहाँ पर कितनी दूर -दूर से आकर बैठे हुए हैं?" डॉक्टर आलम मुस्तैदी से मरीज देखने में जुट गए। 

 

 

 


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