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Ashish Anand Arya

Drama

3  

Ashish Anand Arya

Drama

बरगद की छाँव

बरगद की छाँव

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बरगद की छाँव में हम चारों उनको पड़े मिले थे, ऐसा अलका दीदी, हर किसी से कहा करती थीं! जो भी मिलता, उसे वो पूरा किस्सा खूब तसल्ली से सुनातीं। सब सुनते और उनके कहे को बड़े ध्यान से समझते भी दिखते। पर हम भला क्या जानते वो बरगद की छाँव, क्योंकि अलका दीदी को हमने सबसे ये कहते भी सुना था कि जिस दिन वो हमें बरगद के नीचे से उठाकर लायी थीं, उसी के अगले दिन सड़क बनाने के लिए उस बरगद को जड़ से काट दिया गया। खैर, जो भी हुआ हो, न हुआ हो, हमें उससे क्या मतलब, हमें तो बस इस बात से मतलब था कि अलका दीदी हमें रोज की तरह खूब प्यार करें और हमारे कूं-कूं करने पर हमें पेट भरने के लिए दूध लाकर दे दें।

रोज की ही तरह उन्हीं अलका दीदी ने आज फिर शाम होते ही हम चारों को एक बोरे के भीतर ठान्स दिया था। गुस्सा तो बहुत आयी थी अलका दीदी पर रोज की तरह, पर केवल एक वही तो थीं, जो इतने अच्छे से हमारा इतना खयाल रखती थीं।

और सबसे बड़ी बात.. देखने में वो बोरा जरा भी अच्छा न था। पर इस भयानक सर्दी में वही तो हमारा स्वेटर था। ऐसा स्वेटर, जिसमें हम चारों मिलकर दुबक भर जाते, सारी सर्दी पल भर में बाहर निकल जाती।

जितनी जोरों की ठंड, उतना ही जोरदार कोहरा। भरे दिन में भी जरा दूर की दीवार भी सही से दिखायी नहीं दे रही थी। इतनी कड़ाके की सर्दी कि हम चारों दुबक कर एक-दूसरे से लिपट कर सो गये।

ठंड तो ठंड थी, पर मन की भी अपनी कुछ मर्जी होती है। जाने कैसे पीकू की नींद खुल गयी। उसने हाथ मार-मार कर मुझे भी उठा दिया। इशारा करके बोला, चलो, थोड़ा सर्दी का मज़ा लेकर आते हैं। मन उसकी सुनने को तैयार न था, पर भाई भी कोई ऐसी-वैसी चीज़ थोड़े ही होता है। प्यार से, दुलार से बार-बार मेरे सर पर हाथ मार-मार कर आखिर मुझे मना ही लिया।

वैसे ऐसे निकलने की दो-एक बार पहले भी कोशिश की थी हमने। पर हर बार अलका दीदी हमको चौखट लाँघने से पहले ही वापस बोरे में खदेड़ देतीं। लेकिन आज तो अलका दीदी की नींद भी नहीं खुली। घर का दरवाजा लाँघते ही हम सीधे सड़क पर। और सड़क पर आते ही ये जोर की चीं-चीं, क्रीं-क्रीं ! एक दौड़ती गाड़ी के पहिये की टक्कर लगी और पीकू का तो हाथ ही टूट गया। पास में ही खूब सारे बच्चे खड़े थे। सब एक साथ चिल्ला उठे, देखो, पिल्लू भौंक रहा है। मेरा भाई दर्द से रो रहा था और सब बच्चे हँस-हँस कर उसका मज़ाक उड़ा रहे थे।

पीकू का रोना सुनकर अलका दीदी भी दरवाजे तक आ गयी। और ठीक इसी वक्त एक बड़ी गाड़ी के पहिया मेरे भाई के ऊपर से ऐसा निकला, उसका पूरा सर जमीन पर चिपक गया। अलका दीदी की आँखों से केवल आंसू लुढ़के और वो कुछ न कर सकी।

बच्चे अभी भी चिल्ला रहे थे। हाँ, बस अब वो बोलने लगे थे, देखो, पिल्ला मर गया। अलका दीदी एकदम बदहवासों सी दौड़कर पीकू के पास आ पहुँचीं। और उस वक़्त पक्की तौर पर ये पहली बार था कि उनको जरा भी समझ नहीं आ रहा था कि वो अपने पीकू को गोदी में उठायें, तो भला कैसे?

एक वो दिन था और एक ये आज का दिन है, अलका दीदी पूरे शहर भर में न जाने कितने बरगद के पेड़ खुद लगा चुकी हैं और न जाने कितने पेड़ वो औरों से बोल कर लगवा चुकी हैं। और रोज ही कुछ न कुछ करके उन्हें तंग करने वाली परेशानियों से जब वो ज्यादा ही उकता जाती हैं, हम तीनों भाइयों को लेकर उन ढेरों में से किसी एक बरगद की छाँव के नीचे बैठ जाती हैं... शायद पीकू की आत्मा के सुकून के कुछ पल की आस में... हम सभी के साथ खुशी के कुछ लम्हे तलाशते हुए !


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