Sudha Adesh

Drama

2.5  

Sudha Adesh

Drama

बोधिसत्त्व

बोधिसत्त्व

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अपने क्लीनिक से डाक्टर विनय लौट रहे थे कि उनके देखते ही देखतेे तेज गति से जाती कार ने एक साइकिल सवार को टक्कर मारी तथा बिना रूके , बिना यह देखे कि किसी को चोट आई है या नहीं, वह कार तेजी से चली गई।


साइकिल सवार नीचे गिर कर मछली की तरह तड़पने लगा। एक बार उन्होंने सोचा कि वह भी औरों की तरह आँख बंद कर चले जायें । वैसे भी उन्हें काफी देर हो चुकी थी, घर में सब उनका इंतजार कर रहे होंगे।आज उनके भाई का जन्मदिन है किंतु उनके संस्कारशील मन ने मस्तिष्क को हावी होने से रोक दिया।


गाड़ी किनारे खड़ी करके वह वहाँ पहुँचे किन्तु जैसे ही उनकी नजर उस आदमी पर पड़ी वह चौंक गये,चौड़ा ललाट, बड़ा सा तिलक, बड़ी-बड़ी आँखें, गेरूए वस्त्र... यह वही तो है जो उनके सामने न रहते हुए भी उनके घर पर इतना हावी हो चुका था कि शनैः शनैः उनकी सारी खुशियाँ तिरोहित होती चली गई थीं ।


एक बार मन हुआ कि वह उसे ऐसे ही तड़पता हुआ छोड़कर चले जाएं किन्तु वह एक डाक्टर थे, उनके लिये कर्तव्य भावनाओं से ऊपर था अतः मन पर काबू रखकर उन्होंने उसे पास खड़े आदमियों की सहायता से गाड़ी में डाला तथा क्लीनिक की ओर वापस चल पड़े।


नर्सिंग होम पहुँचते ही उन्होंने नर्स को आपरेशन की तैयारी करने के लिये कहा । उसी समय फोन की घंटी बज उठी,‘ कहाँ हैं आप ? मैं कब से इंतजार कर रही हूँ । याद है आज विमल का जन्मदिन है और आपने उसे ट्रीट देने का वायदा किया था ।’ सुजाता की आवाज थी ।


"याद है डियर, पर अभी कुछ समय लगेगा । एक इमरजेंसी आपरेशन करना है, इसीलिये रुकना पड़ रहा है । ऐसा करो कि तुम लोग चली जाओ तथा मेरे लिये खाना पैक करा कर ले आना।" विनय ने सहज स्वर में कहा ।


यह विनय के लिये कोई नई बात नहीं थी....। अक्सर ऐसा होता था किन्तु उन्हें सुजाता, अपनी पत्नी पर गर्व था। वह उन स्त्रियों में से नहीं थी जो उनके कामों में बाधा बने वरन् वह सदा ऐसी स्थितियों में उन्हें भला बुरा कहने के बजाय उनके पेशे की गुरूता को समझकर उन्हें सहयोग देते हुए प्रोत्साहित करती रही थी।

यह बात अलग है कि देर सबेर होने पर वह आम स्त्रियों की तरह चिंतिंत होकर जब तब फोन कर उनकी खोज खबर लेती रहती थी किन्तु उनके देर सबेर घर आने पर उसने कभी क्रोध नहीं किया था ...यह उसके उनके प्रति अतिशय प्रेम का भी परिचायक होने के साथ इस बात का भी द्योतक था कि वह उसके कार्य में बाधक नहीं वरन सहायक बनना चाहती थी । उसी के प्रयत्नों का फल है कि आज उनका अपना नर्सिग होम है....सारी अत्याधुनिक सुविधाएं है....किन्तु यह सब होते हुए भी कुछ ऐसा था उनकी जिंदगी में, जिसने उनकी सारी खुशियों को हर लिया था।


विनय को वह दिन याद आया जब वह विवाह के पश्चात पहली बार माँ के आग्रह करने पर वह औऱ सुजाता माँ के साथ हनुमानगढ़ी दर्शन के लिये गये थे । मंदिर में पूजाकर प्रसाद बांटने के पश्चात वे कार मे आकर बैठे ही थे कि एक हृष्ट-पुष्ट नौजवान आया तथा अपने भीख माँगने वाले कटोरे को आगे करते हुए बोला, "माँजी, तुम्हारे बच्चे दूधों नहायें, पूतों फलें, तुम्हारा सुहाग अमर रहे....भगवान तुम्हारा भला करे।"


माँ ने उसका आशय समझकर पैसे निकालकर देने चाहे तो विनय ने उन्हें रोकते हुए कहा,"माँ, भीख देने की आवश्यकता नहीं है,हट्टा कट्टा तो है।"फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर कहा," तुम हट्टे-कट्टे नौजवान हो । तुम्हें इस तरह भगवान के नाम पर भीख माँगना शोभा नहीं देता । मुझे अपने क्लिीनिक में काम के लिये तुम्हारे जैसे आदमी की आवश्यकता है यदि चाहो तो इस पते पर आ जाना।"


इसके साथ ही विनय ने उसे अपना विजिटिंग कार्ड देना चाहा किन्तु उसकी पेशकश को मानना तो दूर वह आगबबूला हो उठा तथा बोला,

"नहीं देना हो तो मत दो,हम ब्राहमण हैं भीख माँगकर गुजारा कर लेंगे ,किन्तु कहीं किसी की नौकरी नहीं करेंगे। दान देना महादान है शायद तुम नहीं जानते जो ब्राहमणों का अपमान करता है या दान देने में आना कानी करता है, उनके कुटुम्ब में कोई पानी देने वाला भी नहीं बचता है ।"

उसका बड़बड़ाना चालू था, उसकी व्यर्थ की बातों से बचने के लिये उसने कार स्टार्ट कर दी थी किन्तु माँ तथा पत्नी की आँखों में छाया भय उससे छिप न सका था । जब विनय ने उन्हें तसल्ली देनी चाही तो माँ बिगड़ते हुए बोली,"अरे, ब्राहमण ही तो था....दो चार रूपये दे देते तो क्या बिगड़ जाता पर तुम आजकल के लड़कों को तो दान पुण्य की बातें समझ में ही नहीं आतीं।"


"माँ यहाँ दान-पुण्य की बात नहीं है, बात है अकर्मण्यता को बढ़ावा देने की। बिना कोई काम किये धर्म के नाम पर पैसा लेने वालों से मुझे सख्त चिढ़ है....। वैसे भी मैंने पैसे नहीं दिये तो क्या हुआ, उसे एक अच्छी नौकरी का आफ़र तो दिया था लेकिन तुमने देखा नहीं उसने कितनी बेहरमी से मेरी पेशकश ठुकरा दी....। सम्मान की जिंदगी जीने की अपेक्षा इन्हें ऐसी जिंदगी गुजारने में पता नहीं क्या आनंद आता हैं ?" विनय ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ।

"वस्तुतः नौकरी में तो वह बंध जाता है जबकि भीख माँगना तो उनकी अपनी मर्जी है,न कोई मेहनत और न ही कोई तनाव।

माँ इस जैसे लोग तो हर जगह ही मिल जाते हैं,इसलिये आजकल भीख माँगना भी पेशा बनता जा रहा है । एक ऐसा पेशा जिसमें न हींग लगे और न फिटकरी पर रंग भी चोखा।"कहते हुए विनय के छोटे भाई विमल ने भी अपना ज्ञान बिखेरते हुए कहा ।


"वह जरूर कोई सिद्ध पुरूष या महात्मा था । तुमने देखा नहीं उसके चेहरे पर कितना तेज था ।" माँ जो उस गेरूए वस्त्रधारी के वचनों से डरी हुई थी, ने बेचैन होकर कहा ।


" ममा, अगर वह कोई सिद्ध पुरूष या महात्मा होता तो भीख न मिलने पर अपशब्द न कहता....भीख माँगना तो उनका पेशा है ।"एक बार फिर विमल ने कहा ।


" चुप रह....जैसा तेरा भाई वैसा ही तू, तुम लोगों से तो कुछ कहना ही व्यर्थ है ।"माँ ने झल्लाकर कहा । फिर मंदिर की ओर हाथ जोड़ते हुए क्षमायाचना के स्वर में बोली," हे ईश्वर, मेरे इन दोनों नादान बच्चों का अपराध क्षमा करना ।"


माँ का वर्षो से देखा यह रूप देखकर विनय और विमल मुस्करा दिये किन्तु आश्चर्य तो उन्हें तब हुआ जब सुजाता ने भी माँ का समर्थन करते हुए उन्हें ही दोष दिया था।


माँ तो कम पढ़ी लिखी धर्म भीरू महिला थी किन्तु सुजाता तो पढ़ी लिखी थी । सुजाता से कारण पूछा तो बोली,"तुम लोग तो पुरूष हो इसलिये स्त्री मन को नहीं समझ पाओगे। स्त्री एक माँ है, पत्नी है, बहन है, बेटी है....वह कभी अपने बच्चों, पति, पिता और भाई का बुरा नहीं चाहती । उनके ऊपर आई किसी विपत्ति की कल्पना ही उसका सुख चैन छीन लेती है। विवाह होते ही जहाँ वह अनेक बंधनों में बंधती है वहीं कभी अपने सुहाग, कभी अपनेे परिवार की रक्षा तथा सुख और शांति के लिये अनेको व्रत उपवास रखती है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों के भले की चाहना संस्कारशील मन या सदियों से पोषित संस्कारों का ही फल है । अब इसे तुम चाहे कुफल समझो या सुफ़ल, यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है ।'


अभी कुछ ही दिन हुए थे कि उसके नये बनते नर्सिग होम की दीवार गिर गई जिसके कारण काम करता हुआ एक मजदूर बुरी तरह घायल हो गया। इस घटना को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि एक दुर्घटना में विमल के हाथ में फ्रेक्चर हो गया ।यही नहीं पिताजी को भी हाई ब्लडप्रेशर के कारण एक दिन बैठे-बैठे चक्कर आ गया तथा उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा। माँ ने इन सब घटनाओं को उस ब्राहमण के श्राप से जोड़कर उसे दोष देते हुए नवग्रह शांति हेतु पूजा करवा दी ।


जैसे ही उसके नर्सिग होम का उद्घाटन हुआ सुजाता ने भी नवांकुर के आने की सूचना देकर उनकी खुशी को दुगणित कर दिया । एक बार फिर घर में खुशियों ने दस्तक दे दी । माँ ने सुजाता को यह न करो वह न करो के बंधन में बांध दिया। उसका विशेष ख्याल रखा जाने लगा। यहाँ तक कि माँ उसे कहीं अकेले आने जाने भी नहीं देती थीं । उनके व्यवहार को देखकर एक दिन विनय ने हँसते-हँसते कहा, "माँ, सुजाता बच्ची नहीं है, वह अपना ख्याल रख सकती है।"


" मैं जानती हूँ लेकिन इस समय वह अकेली नहीं है वरन् हमारे वंश की पोषिता भी है,अतः इसकी उचित देखभाल मेरी जिम्मेदारी ही नहीं, मेरा कर्तव्य भी है वैसे भी वर्षों बाद हमारेे घर में नन्हें मुन्ने की किलकारियां गूँजेंगी। जब यह हमें इतना सुख देगी तो क्या मैं इसका इतना सा भी ख्याल नहीं रख सकती ?’' माॅं ने प्यार से उसे निहारते हुए कहा था ।


किन्तु होनी को कौन टाल सकता है....माँ के अतिशय देखभाल के बावजूद एक दिन सुजाता बाथरूम मे पैर फिसल जाने के कारण गिर गई और इसके साथ ही गर्भपात हो गया । नवग्रह शांति के पश्चात भी इस घटना का होना माँ को विचलित कर गया तथा उस श्राप को याद कर वह रोने लगी ।


विनय चाहकर भी माँ को सांत्वना नहीं दे पाया वस्तुतः इस बार की घटना ने उसेे भी असंतुलित कर दिया था क्या सचमुच उसकी वंशबेल नहीं फ़लेगी ? क्या दुखी मन से दिया श्राप क्या सचमुच लग जाता है ? 


अंर्तमन ने उसे टोका....वह दुखी कहाँ था ,वह तो उन जैसे लोगों का पेशा है । वे लोगों की मानसिकता से भलीभांति परिचित होते हैं तभी पहले चिकनी चुपड़ी बातें करके लोगों को फँसाते हैं, यदि उससे बात न बने तो उल्टा सीधा बोलते हैं जिससे डर कर लोग उनकी झोली में कुछ न कुछ तो डाल ही दें....। वास्तव में बड़ा ही अच्छा नुस्खा है लोगों की भावनाओं से खेलने का....।


वह स्वयं को भले समझा ले लेकिन माँ को समझना बेहद कठिन था । शायद यही कारण था कि पिछले लगभग एक वर्ष में हुई हर बुरी घटना को उस व्यक्ति के साथ जोड़कर देखने की माँ की आदत पड़ गई थी । चाहे अस्पताल दीवार गिरी हो या विमल का स्कूटर एक्सीडेंट में हाथ में फ्रेक्चर हुआ हो । पिताजी की बीमारी हो या बहन विनीता के विवाह में आती रूकावट हो....और अब यह घटना। वह आदमी सामने न रहते हुए भी उनके परिवार पर बुरी आत्मा की तरह छाया हुआ था।


सुजाता निर्लिप्त थी । पिताजी अवश्य विमल का पक्ष लेते लेकिन पता नहीं क्यों बार-बार होती दुर्घटनाओं के कारण उसके आत्मविश्वास में भी कमी आती जा रही थी । कभी-कभी उसे माँ की बात सच लगने लगती किन्तु जब उसकी तार्किक बुद्धि उसके बेसिर पैर के विचारों पर अंकुश लगाती तब वह सामान्य हो जाता किन्तु फिर कोई नई घटना जन्म ले लेती तब यत्न से दबाये नागफ़नी एक बार फिर उग कर उसे दंशित करने लगते। अन्य अवसरों की तरह इस बार भी उसने मन के विचारों को यह सोचकर झटकने का प्रयास किया कि ऐसी सब घटनाएं आम आदमियों के जीवन का हिस्सा हैं । सुख-दुख इंसानी जीवन के दो पहलू हैं....भला इन सबका उस आदमी की उलटी सीधी बातों से क्या मतलब ?


‘' सर, आपरेशन की पूरी तैयारी हो चुकी है" नर्स ने आकर सूचना दी ।


‘'ठीक है, मैं आता हूँ ।'’ कहकर वह ऑपरेशन करने चल दिया किन्तु उसके किसी घर वाले के न आने से वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? उस आदमी के मोबाइल से घर का नंबर देखकर उसने उसके घरवालों को फोन करवा दिया था किंतु अब तक कोई नहीं आया था।


मरीज की हालत बेहद नाज़ुक थी । एक पैर के घुटने के नीचे का हिस्सा बुरी तरह क्रश हो चुका था तथा दूसरे पैर में भी फ्रेक्चर था । यदि तुरंत आपरेशन नहीं किया तो पैर को घुटने के नीचे काटना भी पड़ सकता था....। विधि का कैसा विधान है कि जिस आदमी की वजह से उसके घर की सुख-शांति भंग हो गई थी वही आज उसके रहमों करम पर पड़ा है। वह चाहता तो उसे देखकर वहीं मरने के लिये छोड़ सकता था लेकिन वह डाक्टर है, उसका काम जान बचाना है जान लेना नहीं। अपने विचारों को झटकते हुए आपरेशन थियेटर में गया तथा चार घंटे के अथक प्रयत्नों से उसने उसकी टूटी टांग को जोड़ दिया।


जब वह आपरेशन थियेटर से बाहर आया तो देखा उस आदमी की पत्नी और बेटा , जो बाहर खड़े बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे, दौड़कर आये । उससे सांत्वना पाकर वह उसे ढेरों आशीष देने लगे।


विनय थका हारा घर पहुँचा....उसने सारी घटना विस्तार से माँ को बताई ।


‘' क्या वही आदमी था ? तूने ठीक से पहचाना?" सारी घटना सुनकर माँ ने पूछा ।


'' हाँ माँ, उसको पहचानने में भूल कैसे हो सकती है ।'' विनय ने उत्तर दिया ।


‘' जब वह अपने ऊपर आई विपदा को नहीं टाल पाया तो दूसरों के जीवन में होने वाली अच्छी बुरी घटनाओं के लिये कैसे दोषी हो सकता है....सच जीवन में होने वाली कोई भी घटना मात्र संयोग होती है न कि किसी के श्राप का कुफ़ल ।’' विनय की बात सुनकर गहरी सांस लेकर माँ ने कहा ।


शायद अब माँ को समझ में आ गया था कि शब्द सिर्फ शब्द ही होते हैं। ऐसे साधू, महात्मा और फ़कीरों के शब्द उनके मन की कुंठा,आक्रोश तथा समाज के प्रति नफ़रत का प्रतिफ़ल होते हैं। अपना प्रयोजन सिद्ध न होने पर ऐसे शब्दों का प्रयोग कर, लोगों पर मनोवैज्ञानिक दवाब बनाकर,अपना मतलब साधना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता है। उस समय माँ के तनावरहित चेहरे को देखकर लगा जैसे सदियों के तनाव से उन्हें मुक्ति मिल गई है। इसके साथ ही दिलों में बेवजह ही उग आये नागफ़नियों ने सच्चाई की कड़ी घूप में झुलसकर असमय ही दम तोड़ दिया ।

 

दूसरे दिन जब विनय नियमानुसार अपने नर्सिंग होम के मरीजों को चैक करने के क्रम में उस आदमी के कमरे में गया तोे वह होश में आ चुका था । डॉक्टर के रूप में विनय को देखकर वह अचानक संकुचित हो उठा …


"अब कैसे हो ? दर्द तो ज्यादा नही है ?"उसकी मुखमुद्रा पर ध्यान दिये बिना विनय ने शांत स्वर में पूछा ।


विनय का आत्मीय स्वर सुनते ही वह फफक-फफक कर रोने लगा तथा दुखित स्वर में अपना अपराध स्वीकर करते हुए कहा, ‘"डाक्टर साहब, आप महान हो । यदि आप मुझे यहाँ नहीं लाते तो शायद मैं वहीं तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता।शायद आपने नहीं पहचाना मैं वही आदमी हूँ ,जिसने आपके भीख न देने पर आपके पूरे परिवार के लिये अपशब्द कहे थे,लेकिन तब मैं आपके मन में छिपी मानवता को नहीं पहचान पाया था । आपने न केवल मेरी मदद की वरन् मेरा अपने इस नर्सिग होम में आपरेशन भी किया....बिना यह जाने कि मैं गरीब आपका बिल भी चुका पाऊँगा या नहीं। "


‘'मैंने एक डाक्टर....उससे भी बढ़कर एक इंसान का कर्तव्य निभाया है लेेकिन तुमने मुझे पहचाना कैसे ? वहाँ तो रोज ही सैकड़ों लोग नित्य दर्शन के लिये आते हैं।" विनय ने अनजान बनते हुए पूछा ।


" आप सच कह रहे हैं डाक्टर साहब, मंदिर में नित्य ही सैकडों लोग दर्शन के लिये आते हैं लेकिन नौकरी का आफ़र तो कोई नहीं देता। तब मैं अनपढ़ , गंवार आपकी बात कहाँ समझ पाया था।जब बिना कुछ करे ही दानदक्षिणा के रूप में पाये धन से काम चल जाता है तो काम क्यों करें ? जैसे विचार उस समय मन में घर जमाये हुए थे....किन्तु आपके जाने के पश्चात सोचा तो लगा कि आप ठीक ही कह रहे हैं । भीख-भीख ही होती है , मेहनत की कमाई से खाई रोटी ही इज्जत की रोटी कहलाती है। फिर मेरा बच्चा भी है, उसे भी पढ़ाना है । आपके जाने के पश्चात मैंने आपको ढूँढने की बहुत कोशिश की किन्तु अब जब मिले हैं तो भी इस स्थिति में ।"


" अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है...यदि चाहो तो पैर ठीक होते ही काम पर आ जाना ।" विनय ने सहज भाव से कहा था लेकिन चाहकर भी नहीं कह पाया कि जैसे तुम हमें नहीं भूल पाये वैसे ही हम भी तुम्हें कहाँ भूल पाये थे। तुम्हारी अर्नगल बातों ने अनजाने ही हमारे मन मेें भी अज्ञात डर के ऐसे बीज बो दिये थे जिसके कंटीले पौधे उगकर न जीने दे रहे थे और न ही मरने।


पता नहीं कैसा मनोवैज्ञानिक दबाब था जिसके कारण सब कुछ जानते समझते हुए भी वह कुछ दिनों से अपने स्वभाव के विपरीत आम आदमियों की तरह जरा सी परेशानियों से घबराकर उल्टा सीधा सोचने लगा था । वह भटक गया था या शायद ऐेसा अपनों के लिये अतिशय प्रेम के कारण होता रहा हो।


उसे रह-रहकर सुजाता के कहे वह शब्द भी याद आये जो उसने स्त्रीमन की व्याख्या करते हुए कहे थे ,अब वे बीते कल की बातें हैं।कल भले ही भीषण झंझावातों से भरा रहा हो लेकिन आने वाले कल के सूरज की नई किरणें मन में छाये अँधेरों को अवश्य दूर करेंगी जिससे कि फिर कभी ऐसे विचार मन पर हावी न हों । मन में इस विश्वास के आते ही उसका बोधिसत्व से साक्षात्कार हुआ । एकाएक विनय को लगा कि वह गहरे अंधकूप में गिरने से बाल-बाल बच गया है। सच है कुछ हादसे जीवन से कुछ छीन लेते हैं तथा वहीं कुछ हादसे नुचे तुड़े जीवन को नया आयाम दे जाते हैं ।




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