बंटवारा
बंटवारा
परिवार के बीच बंटवारा हो रहा था, समान का, गहनों का बर्तनों का लेकिन कुछ नहीं बंट पाया था, वो था ज़िम्मेदारी का भार। किसी को भी इस बात की चिंता नहीं थीं कि इस बंटवारे में अपने पिता का बंटवारा कैसे करेंगे। उस पिता की ज़िम्मेदारी कैसे उठाएंगे जिसने अपने जीवनसाथी के बिना ही उनकी परवरिश में कोई कमी नहीं आने दी। कैसे बांटेंगे उन आँसुओं को, जो छलक आये थे अपनी वर्षों की तपस्या का यह फल देखकर।
वे दोनों तो बस लड़ रहे थे एक छोटी सी कटोरी को लेकर कि इसका बंटवारा कैसे होगा, बराबरी के लिए एक कटोरी कम पड़ रही थी। काफी देर तक विचार विमर्श के बाद भी जब कोई हल नहीं निकला तो इसका दोष भी पिता पर ही लगाया गया कि उन्होंने बर्तनों का सेट देखकर क्यों नहीं खरीदा। उनकी इसी लापरवाही की वजह से आज उन्हें बंटवारे करने में कितनी दिक्कत हो रही थीं। फिर यह तय किया गया कि एक कटोरी के पैसे पिता को ऋण समझ कर चुकाने होंगे।
पिता को यह समझ नहीं आया कि अब इस उम्र में एक कटोरी का उधार कैसे चुका सकते है। अपनी जीवन भर की पूंजी अपने परिवार के प्रति समर्पित करने के बाद उन्हें एक कटोरी के बंटवारे के लिए भी अपना बंटवारा करना होगा।