Prabodh Govil

Fantasy

4  

Prabodh Govil

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भूत का ज़ुनून-9

भूत का ज़ुनून-9

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रात को खाने की मेज़ पर बेटे की मम्मी- पापा से ख़ूब बातें हुईं।लेकिन भटनागर जी पत्नी से नज़रें चुराते ही रहे। उन्होंने शाम को रबड़ी का कुल्हड़ पकड़ाते समय उसकी जो लाल आंखें देखी थीं, उससे वो भीतर से सहमे हुए से ही थे।

पर जब तक कुछ अनहोनी या ऐसी- वैसी बात हो नहीं, तब तक वो अकारण कुछ कहना भी नहीं चाहते थे। नाहक बेटा किसी शंका या भय से परेशान हो जाएगा, क्या फ़ायदा।लेकिन आज चुपके- चुपके उन्होंने एक सावधानी ज़रूर बरती।

उन्हें लगा कि कहीं रात में भूत- प्रेत का कोई प्रकोप न हो जाए, इसलिए वो सोएंगे नहीं। ऐसा न हो कि वो नींद में बेखबर सोए रहें और पत्नी भूत- प्रेत के असर से नाहक परेशान हो।

उधर बेटा भी तो छुट्टियों में कुछ ही दिनों के लिए आया था, ये सब ऊलजुलूल देख जाता तो वहां उसका पढ़ाई में भी मन नहीं लगता।लेकिन खाना खाने के बाद नींद तो आती ही है, अतः उन्होंने पत्नी और बेटे को बातों में लगाए रख कर खाने का केवल नाटक किया, खाया कुछ नहीं। रबड़ी तो उन्होंने छुई तक नहीं। जब भी मौक़ा मिलता वो पूड़ी, साग, रायता आदि नीचे साइड में फ़ेंक देते, और मुंह चला कर खाने का बहाना करके जुगाली सी करते रहते। अभी खाना खाकर सब बेडरूम में चले ही जाने वाले थे। पत्नी को क्या पता चलता?सुबह तक तो वैसे भी लाख बहाने तैयार हो जाते।

"अरे, ये यहां क्या फ़ैला हुआ है? पूड़ी किसने गिरा दी? ओह रबड़ी की चम्मच यहां कैसे? शायद रात को बिल्ली आ गई होगी।"

" लेकिन वो जागे हुए रहेंगे तो कम से कम कोई प्रेत बाधा आने पर सबको संभाल तो सकेंगे!" पत्नी की आंखें अब तक लाल थीं।

भटनागर जी को लगता था कि उस बूढ़ी औरत का कुटिल चेहरा कोई न कोई गुल ज़रूर खिलाएगा। देखा नहीं, कैसे भृकुटी ताने हाथ फ़ैला कर ढिठाई से भीख मांग रही थी। खुले पैसे देखते ही न जाने कहां से कूद पड़ी। कल भी तो कैसी बेहयाई से उनकी जूठी रबड़ी चट कर गई थी। चाहे सपने में ही सही। इन भूत - प्रेतों के लिए क्या सपना क्या सच। कहीं भी आ- जा सकते हैं। इनकी रूह तो भटकती रहती है इनके ही किसी कर्म से, और परेशान करते हैं दूसरों को...

गुस्सा तो आना ही था। आदमी भूखे पेट होगा तो ये सब अनाप- शनाप सोचेगा ही। लेकिन भटनागर जी आज कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने सुन रखा था कि भूत- प्रेत आदि ऐसी शक्तियां आग से बहुत डरती हैं। उन्होंने चुपचाप सबकी निगाहें बचा कर माचिस, लाइटर, टॉर्च तलाश करके अपने तकिए के नीचे छिपा लिए। वो पिछली दीवाली की बची एक मोमबत्ती भी खोज कर ले आए और उसे संभाल कर अपने बिस्तर के नीचे रख लिया।

यद्यपि दैवी शक्तियां सांसारिक उपकरणों, जैसे डंडे, चाकू, कटार आदि से भय नहीं खाती हैं, फ़िर भी उन्होंने सोचा- बचाव में ही बचाव है। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। कोई बात जानते हुए लापरवाही क्यों करें? वो इधर- उधर से ढूंढ कर ऐसी जो भी चीज़ें दिखीं, उन्हें संभाल - संभाल कर एक कौने में छिपाते रहे।

उधर मां- बेटा बातों में इतने मशगूल थे कि भटनागर जी किस गोरख धंधे में लगे पड़े हैं उन्हें कुछ खबर ही नहीं थी। भटनागर जी वाशरूम से सोने के कपड़े बदल कर जब कमरे में आए तो देखा- बेटा किसी छोटी सी शीशी से मम्मी की आंखों में कोई दवा डाल रहा है।

बेटा उन्हें देखते ही बोला- "पापा आपको पता है, आज शाम को लॉन में बैठे- बैठे मम्मी की आंख में एक मच्छर चला गया। बुरी तरह लाल हो गई थी। मच्छर तो मैंने उसी समय निकाल दिया था मगर अब थोड़ी आईड्रॉप डाल देने से जलन बिल्कुल ठीक हो जाएगी।"

"अच्छा!" कहते हुए भटनागर जी सकते में आ गए। अब यकायक उनके पेट में चूहे कूदने लगे।

( क्रमशः )



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