Prabodh Govil

Abstract

4.3  

Prabodh Govil

Abstract

भूत का ज़ुनून-5

भूत का ज़ुनून-5

3 mins
368


भटनागर जी ने बदहवास होकर दुकान के मालिक से पूछा- "ओह, अभी- अभी यहां मैंने अपनी गाड़ी खड़ी की थी, वो कहां चली गई?"

दुकान का मालिक बोला- "अरे साहब, क्या बताएं ये कॉर्पोरेशन के ट्रैफिक पुलिस वाले घूमते रहते हैं गाड़ी लेके, अब यहां एप्रूव्ड पार्किंग तो है नहीं, वो उठा ले गए होंगे टोचन करके।"

"अरे पर पहले बताना तो चाहिए उन्हें, आवाज़ भी नहीं आई, सीधे टो करके ले ही गए?"

दुकानदार भटनागर जी के रूखे से स्वर से कुछ खिन्न हुआ। उन्होंने अभी तक रबड़ी के पैसे भी नहीं दिए थे।

"सुनो, मेरा पर्स भी गाड़ी में था। ये रबड़ी वापस ले लो।" जब भटनागर जी ने ऐसा कहा तो दुकानदार कुछ नरम पड़ा। बोला- "अजी बाबूजी, पैसे कहां भागे जाते हैं आपके, कल दे जाना, आप रबड़ी तो खाओ। उसने सोचा सलीकेदार आदमी है, पैसे तो दे ही जाएगा। दुकानदार जानता था कि ग्राहक एक - दो चम्मच माल चख कर इसे जूठा कर चुका है। वह धीरे से बुदबुदाया - अब इसे कौन खायेगा?

लेकिन पलक झपकते ही एक भीख मांगती हुई बूढ़ी औरत वहां चली आई और उसने दुकानदार के सवाल का जवाब तुरंत दे दिया, बोली- मैं!

भटनागर जी वैसे भी हड़बड़ी में थे, उनसे कहां रबड़ी खाई जाती, बोले- "खा लो माई।"

कहते हुए वो सड़क पर जाते एक ऑटोरिक्शा को रोकने लगे। रिक्शा रुका और वो उसमें सवार हो गए। दुकानदार हक्का- बक्का देखता रह गया।

जब रिक्शा वाले ने रफ़्तार पकड़ ली तब भटनागर जी को ख्याल आया कि उनके पास पैसे तो हैं ही नहीं। लेकिन तत्काल उन्होंने अपने मन को समझा लिया कि घर पहुंच कर घर से रिक्शा वाले का भुगतान कर देंगे। घर से और पैसे लेकर गाड़ी छुड़ाने के लिए ट्रैफिक पुलिस के कंट्रोल रूम में जाने का झंझट और बढ़ गया।

कुछ ही दूर बढ़े होंगे कि सामने सड़क पर बड़ा सा गड्ढा खुदा हुआ दिखाई दिया। गड्ढे के किनारे ढेर सारी मिट्टी पड़ी थी। देख कर ये समझ में नहीं आता था कि ये मिट्टी गड्ढे में से निकली है या गड्ढे में भरने के लिए लाकर डाली गई है।

भटनागर जी पल भर को अचकचाए। रिक्शा वाला बोला- "उधर से घूम कर जाना होगा", कहते हुए वो रिक्शा को बैक करने की कोशिश करने लगा पर भटनागर जी ने हड़बड़ा कर रिक्शा से बाहर छलांग लगा दी और बोले- "तुम जाओ, मुझे ज़रा जल्दी है मैं पैदल ये गड्ढा पार कर के उस पार से दूसरा रिक्शा ले लूंगा।"

रिक्शा वाला इस अंदाज़ में वापस घूमा मानो सोच रहा हो कि जान छूटी।भटनागर जी का पैर जैसे ही उस रेत में पड़ा उन्हें बड़ा मज़ा आया। वो रेत नहीं बल्कि बजरी थी। वो बजरी में पैर धंसाते हुए ऊपर चढ़ने की कोशिश करते लेकिन फ़िर नीचे आ रहते। उन्हें इस खेल में किसी बच्चे की तरह मज़ा आने लगा।

उन्होंने बरसों पहले कभी समुद्र के किनारे ऐसी रेत देखी थी। उन्हें वैसा ही आनंद आने लगा। ओह! भूल गए, उन्हें तो जल्दी घर पहुंचना था।

उन्होंने झटपट गड्ढे के एक किनारे होकर रास्ता पार किया और फिर से किसी टैक्सी या रिक्शा की तलाश में सड़क पर खड़े हो गए। उनकी किस्मत अच्छी थी, जल्दी ही एक टैक्सी - कार उन्हें मिल गई। वो उनके हाथ देने पर रुक भी गई। उन्होंने झट पीछे का दरवाज़ा खोला और भीतर दाख़िल हो गए।

अब वो फ़िर से तेज़ी से सड़क पर अपने घर की ओर जा रहे थे।

टैक्सी का ड्राइवर कुछ शरीफ़ सा दिखने वाला एक युवक था। उन्हें पूरा यकीन था कि वो उन्हें घर पहुंचाने के बाद घर के भीतर से उनके पैसे लाकर देने की बात ख़ुशी से मान लेगा।

लेकिन फ़िर भी उन्होंने ड्राइवर से पहले ही कह देना उचित समझा ताकि घर पहुंचने के बाद वो कोई ऐतराज़ न करे। वो कुछ कहने को ही थे कि सामने उनका घर आ ही गया।

ओह, ये ड्राइवर क्या उनका घर जानता था? बिना रास्ता बताए ये सीधा घर तक ले भी आया।

"जस्ट ए मिनट..". कहते वे उतर कर चल दिए।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract