भूली बिसरी यादें' संस्मरण-2
भूली बिसरी यादें' संस्मरण-2
मैं अपनी एक और बहन की बात करना चाहूंगी। वह मेरे से चार वर्ष छोटी है। स्वतंत्र भारत में 13 नवंबर 1947 को पैदा हुई। पहले हम दो बहनें थीं तीसरी लड़की पैदा होने पर घर में सबको मायूसी हुई। एक तो पाकिस्तान से बिल्कुल खाली हाथ लौटा परिवार और आर्थिक रुप से शून्य और अनेक समस्याएं।
वैसे, समय जैसा भी हो, कट जाता है। यह अपनी रफ्तार से ज्यों की त्यों चलता रहता है।
पिताजी ने नानाजी की मदद से एक दुकान किराए पर ले ली और तेल, घी व साबुन का काम शुरू किया। बाद में साबुन और घी का काम बंद कर दिया। भिन्न भिन्न तरह के तेलों जैसे सरसों, नारियल, अलसी, महुए, पाम अनेक तेलों का व्यापार शुरु कर दिया। व्यापार चल निकला। अभी बहन जिस के पैदा होने पर सब को मायूसी हुई थी काम चल निकलने पर सभी उसी बेटी को भाग्यवान मानने लगे। इसके दो वर्ष पश्चात जब भाई पैदा हुआ तो सब कहने लगे भाई की उंगली पकड़ कर लाई है। परिवार के लिए और भी भाग्यवान साबित हुई है। अब घर में हर तरीके से खुशहाली थी। मैं यह नहीं कह रही कि हम कोई धन्ना सेठ बन गए थे मतलब आर्थिक तंगी खत्म हो गई थी। लड़का होने की इच्छा भी पूर्ण हो गई थी।
पढ़ने में हम सब बहनें काफी होशियार थीं। पिताजी को क्योंकि स्वयं अधिक पढ़ने की इच्छा रही होगी जो कई कारणों से पूर्ण न हो पाई थी अब उन्होंने मन में धार लिया कि सब बेटियों को पढ़ाना है खूब उँची शिक्षा दिलानी है, उनकी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। अखबारों के ज़रिए उन्हें पता लगता रहता था पुरुष प्रधान समाज में लड़कियों की क्या स्थिति है। उन्होंने अपने जीवन का एक ध्येय बना लिया था अपनी बेटियों को पूर्ण शिक्षा दिलानी है ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।
मेरी एक बहन पढ़ाई में थोड़ी कमज़ोर थी उसे हंसी हंसी में इस बात का एहसास करवा दिया जाता था शादी तभी करूंगा जब एम0 ए0 पास कर लोगी। अलग बात है कि जब वह इंग्लिश एम0 ए0 कर रही थी, विदेश से आया एक लड़का मिल गया और उसकी शादी कर दी गई।
एम0 ए0 करने के दौरान मैं भी काफी घबरा सी गई थी। एक दिन घर में मैंने एलान कर दिया, मैं आगे नहीं पढ़ूंगी। पिता जी ने मुझे पास बिठाया पूछा तू तो कहती थी मुझे करियर गर्ल बनना है। मैंने हां में सिर हिलाया तो बोले " साधू उम्र
भर साधना करता है इस आशा के साथ एक दिन ईश्वर अवश्य मिलेंगे। क्या जरूरी है, ईश्वर मिलेगा।
फिर मैंने सिर हिलाया तो वे बोलेपर तुम्हें तो यकीन है कि एम०ए० करने के बाद तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो जाएगा। चलो उठो कमर कस लो।
ऐसे थे हमारे पिता जी, हमारे प्रकाश स्तंभ।
हम बात कर रहे थे सुदर्शन बहन की। पढ़ने में एकदम तेज़। साधारण स्कूलों में पढ़कर हम सब बहनों ने चोटी की शिक्षा ली और दो बहनें कॉलेज लेक्चरर बने। उन दिनों प्राइवेट स्कूल न होने के बराबर थे। जो थे भी उनमें आज के स्कूलों की तरह का खुला वातावरण नहीं था। वैसे भी लड़कियों के स्कूल 'पुत्री पाठशाला' ही होते थे।
सुदर्शन प्रारंभ से ही बहुत भावुक किस्म की लड़की थी। छोटी छोटी बात उसे अंदर तक छू जाती थी। घन्टों मनन करती रहती थी।
एक दिन बता रही थी कि जब वे सातवीं कक्षा में थी टीचर ने सभी विद्यार्थियों को दीवाली पर एक पैराग्राफ लिखने को दिया। उसने दीवाली पर कविता ही लिख डाली। टीचर इतना खुश हुई इससे कहा कि कविता खुद ही पढ़ कर सुनाओ। तालियों की गूंज ने उसे आगे लिखने का प्रोत्साहन दिया।
उसने बहुत सी कविताएं लिखी कभी पब्लिश नहीं करवाया। वाद- विवाद प्रतियोगिता, डिक्लेमेशन कंटेस्ट कविता पाठ वगैरह में भी भाग लेती थी।
मुझे गणित विषय के कारण समय नहीं मिल पाता था। मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में हॉबी नहीं पाली क्योंकि विषय ऐसा था जिसमें बहुत परिश्रम की आवश्यकता थी। बाद में मैंने महसूस किया कि मेरे व्यक्तित्व में कुछ कमी रह गई है। मैंने प्राध्यापक बनने के बाद खूब हॉबीज़ पाली और खूब सफल रही। गार्डनिंग, संगीत, टिकट संग्रह,पुराने सिक्के इकट्ठे करना, बड़े बड़े लेखकों को पढ़ना, मनन करना इत्यादी। कुछ सीखने की प्रवृत्ति के कारण, मैं उम्र भर विद्यार्थी बनी रही। अभी भी मैं कुछ भी सीखने को तैयार रहती हूँ। इसी आदत के कारण में आंतरिक रूप से काफी विकसित हुई।
मेरी यह बहन एम0 ए0 इक्नोमिक्स में यूनिवर्सिटी में सैकिंड पोज़िशन ले कर पास हुई। अभी इसका परिणाम भी घोषित नहीं हुआ था, एम० ए० क्लासज़़ पढ़ाने के लिए उसी सरकारी कालेज में नौकरी मिल गई। परिणाम घोषित होते ही स्थानीय गुरु नानक कालेज में उसकी नियुक्ति हो गई। ज़माना ऐसा था नौकरियां अधिक थीं कैंडीडेट्स कम। आज की तरह नहीं एक अनार सौ बिमार।
विद्यार्थी जीवन में ही इसने
कई नॉवेल लिख डाले।
शादी के बाद हमारे भारतीय घरों में जैसा प्रायः होता है महिलाएं घर परिवार,गृहस्थी बच्चों में ऐसा उलझती हैं कि अपने लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है।वही हुआ इनके साथ भी। अब रिटायरमेंट के बाद इन्होंने तीन पुस्तकें 'मन की बात, ईश्वर के साथ', 'मुझे युवकों से कुछ कहना है' और तीसरी पुस्तक 'जीवन जीने की कला है' पब्लिश करवाई हैं।
वह एक सफल लेखिका के रुप में उभर कर आई हैं। मन की बात ईश्वर के साथ में तो ऐसा लगता है वह ईश्वर के साथ आमने सामने बैठ कर मन के भाव प्रकट कर रही हों और दूसरी पुस्तक में वह आज के भटके हुए युवक को सही राह दिखाने के लिए प्रयत्नरत हैं। जीवन जीने की कला है में लेखिका ने जीने की कला का एक एक बिन्दु छुआ है। सबसे अधिक महत्व साकारात्मकता को दिया गया है। वो इसी प्रकार अपने लेखन के माध्यम से हमें अपने विचारों से अवगत कराती रहें ऐसी हमारी मनोकामना है।
