बदलते समीकरण
बदलते समीकरण
ठाकुर विजय बहादुर सिंह लगातार सामान्य पुरुष सीट से सरपंच का चुनाव जीतते आ रहे थे। जीते भी क्यों न, उनके सामने खड़े होने वाला बमुश्किल अपनी जमानत बचा पाता था। विजय बहादुर सिंह अपनी इस रिकार्ड जीत पर बहुत ही इतराते थे और लगातार जीत से उनके अंदर निरंकुशता की भावना बढ़ती जा रही थी। उनके निरंकुश होने के कारण भी थे। एक तो ठाकुर दूसरे एकमुश्त सरपंच। इस बार सरपंच के चुनाव के लिए दलित महिला सीट आरक्षित हो गयी। चारों तरफ सवर्ण टोले में चर्चा-परिचर्चाएँ शुरू हो गयीं। समीकरण बनाये जाने लगे। कुछ पुरुष सत्ता पर इसे अतिक्रमण कह रहे थे तो तो कोई धर्म डूबने के पर हाहाकार मचा रहे थे। ठाकुर साब के दिमाग में एक ही बात रह-रहकर सुई की तरह चुभ रही थी कि सरपंची गई तो चमार-चुहाड़ों में उसमें भी महिला सीट....। बेचारे सोच-सोचकर परेशान थे कि अब बिना सरपंची के काम कैसे चलेगा ?
बैठक में धूप सेकते समय ठाकुर विजय बहादुर को अचानक से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और आनन-फानन में उनके यहाँ लम्बे समय से झाड़ू-पोछा करने वाली रामसुती का सरपंच पद के लिए पर्चा भरवा दिया। हर बार की तरह रामसुती भी ठाकुर साहब कुछ आशीर्वाद या कहे दबंगई के जोर से बहुमत के साथ सरपंच का चुनाव जीत गयी थी।
ठाकुर विजय बहादुर रामसुती की विजय को अपनी ही विजय मानकर मन ही मन खुशी के लड्डू बांट रहे थे और इस बार भी अपने को ही सरपंच मान रहे थे। क्योंकि उन्हें पता था कि रामसुती की क्या मजाल कि वो उनके सामने किंतु-परंतु कर दे। रामसुती पांचवीं तक पढ़ी थी। मजबूरी में उसे ठाकुर के यहाँ झाड़ू-पोछा करना पड़ा। क्योंकि उसका पति शादी के तीन साल बाद हिंदू-मुस्लिम दंगों की भेट चढ़ गया था। बेटे को बड़ा आदमी बनाने की ख़ातिर वो सब सहन किया जो उसे पसंद नहीं था। रामसुती सरपंच बन जाने के बाद ठाकुर के यहाँ काम पर जाना बंद कर दिया और ठाकुर के यहाँ खबर भिजवा दी कि रामसुती अब झाड़ू-पोछा काम नहीं करेगी। बल्कि उसे अपनी पंचायत में जरूरी कार्य शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार परक काम-धंधे शुरू जो कराने थे। क्योंकि उसे एक सरपंच के काम और दायित्व पता थे।