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Anand Mishra

Romance

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Anand Mishra

Romance

बचपना

बचपना

8 mins
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आज जाने क्यों उसके कदमों की रफ्तार इतनी तेज थी कि अमन चाहकर भी उसके बराबर चल नहीं पा रहा था लगातार कहता जाता 2 मिनट कहीं बैठ कर बात करते हैं ना 3 साल इंतजार किया है तुमसे दो पल बात करने को पर जाने क्यों आज वंदिता के पैरों को पंख लगे हुए थे "आप समझिए! यहां मेरे कई रिश्तेदार रहते हैं कोई देख लेगा तो बड़ी प्रॉब्लम हो जाएगी, पूरे रास्ते अपनी खामोशी के बीच बस एक ही बार इतना सा उसके मुंह से सुन सका था अमन, कॉलेज कैंपस के गेट के चौराहे तक लगभग 1 फर्लांग का रास्ता जैसे कुछ सेकेंडों में ही समाप्त हो गया वंदिता ने रिक्शा को हाथ दिया और बड़ी तेजी से रिक्शे पर सवार हो गयी, जैसे किसी भूत से पीछा छुड़ा रही हो अमन अब तक उलझा हुआ सा खुद में ही खोया घटनाओं से तारतम्य मिलाने का प्रयास करते हुए स्वयं में ही उलझ कर रह गया था, वंदिता ने रिक्शे पर बैठकर हल्की सी मुस्कान के साथ धीरे से हाथ उठाया, परंतु आज अमन को इस मुस्कान में अपनापन नहीं बस एक झूठी औपचारिकता ही दिखाई दे रही थी, उसके भर आए हुए गले से बस इतना ही निकला "मैं अब दोबारा कभी नहीं आऊंगा, समझ लो! पर उसके इस कथन और छलकने को आतुर निगाहों के जवाब में फिर एक हल्की सी बनावटी मुस्कान के साथ रिक्शा चल पड़ा, रिक्शे के पीछे खड़ा डबडबाती हुई आंखों से, हृदय में कुछ टूट कर बिखर जाने के एहसास के साथ, वह रिक्शे को जाता हुआ देखता रहा। खामोश और निस्तब्ध। रिक्शे का पर्दा एक बार अचानक उठा वही दिल फरेब मुस्कान और हिलता हुआ हाथ एक क्षण को दिखा, फिर पर्दे के पीछे ओझल हो गया।

अमन वहीं पत्थर बना बस अपलक निहारता जा रहा, जब तक कि उसकी उम्मीदों का सागर, सपनों का सार अगले चौराहे से मुड़कर आंखों से ओझल ना हो गया। वापस लौटते हुए उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने पैरों में पत्थर बांध दिये हों, जैसे पांव उठने को ही राजी नहीं थे, जैसे किसी ने सीने से धड़कन निकालकर छाती पर भारी पत्थर लाद दिया हो, कुछ ऐसी ही कैफियत में कब वह कमरे पर आया सोया कुछ पता ही नहीं चला देर शाम भाभी ने आवाज लगाई "अमन आज मंदिर नहीं जाना क्या? 7:00 बज गए आज सोते ही रहोगे क्या" आवाज सुनकर अमन सो कर उठा मुंह धो कर शीशे के सामने आया तो आंखे अभी भी लाल थी, जैसे ज्वालामुखी का लावा बहकर अभी ठंडा नहीं हुआ हो। जल्दी जल्दी तैयार होकर मंदिर पहुंचा जैसा कि उसने इस शहर में आने के बाद पिछले 1 महीने में नियम बनाया था दशाश्वमेघ मंदिर के पीछे की सीढ़ीयों पर बैठकर गंगा की धारा को देखना उसे भीतर तक एक अलौकिक शांति देता था पर आज जब यहां आकर बैठा तो शाम की रोशनी में गंगा की अविरल धारा में टिमटिमाते तारे उसे चिढ़ाते हुए से लग रहे थे, एकटक निहारते जाने कब तक उसकी पलकें झपकना ही भूल गई बड़ी देर बाद लगा कि गालों पर कुछ नम सा फैल गया है गला सूख गया है प्यास ऐसी लगी थी जैसे गंगाजल पीकर नहीं बल्कि गंगा मां की गोद में समाकर ही बुझेगी इसी उलझन में मानस पटल पर बीते वर्षों की स्वर्णिम अनुभूतियां चित्रपट सी घूमती चली गयीं। 

वह छोटा सा शहर "नीमसार" ऐसा ही अलौकिक लक्ष्मी नारायण का मंदिर, जब "अमन" बारहवीं में पढ़ता था नियमित शाम को मंदिर में जाना और सीढ़ियों पर बैठकर मंदिर प्रांगण के फव्वारों को अपलक देखते रहना उसे असीमित आनंद देता था। यही तो जाड़े की एक सुहानी कुहासे वाली सुबह वंदिता उसे पहली बार देख कर मुस्कुराई थी, पर तब उस मुस्कराहट में बनावट नहीं थी उस समय तो अमन भी कुछ समझ ना सका था जब तक वंदिता की पसंद की खबर उड़ते-उड़ते उसके कानों तक नहीं पहुंची।

 वैसे तो सरकारी क्वार्टरों की जुड़ी हुई दीवारों के पार रहने वाले परिवार यूं ही घुले-मिले होते हैं, रोज का ही उठना बैठना होता है फिर वंदिता तो उससे एक कक्षा पीछे होने के कारण रोज ही पढ़ाई लिखाई का कुछ ना कुछ लेकर उसके पास बैठा करती थी, लेकिन उस एक दिन अचानक सब कुछ बदल सा गया कुछ तो वंदिता की बोल्डनेस और खुलकर अपने मनोभावों को व्यक्त करने ने और कुछ स्वयं के मन के दबे हुए भावों के उबाल ने अमन को किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था, आज भी दोनों रोज की तरह स्टडी टेबल पर साथ ही बैठे थे किताबें सामने खुली हुई थी, लेकिन दोनों की ही निगाहें किताबों को देख नहीं पा रही थी और एक दूसरे की ओर भी नहीं, ऐसे कितने ही रूमानी क्षण आज फिर से गंगा किनारे बैठे हुए उसकी आंखों से होकर चलचित्र की भांति गुजरते चले गए। 

कैसे उसने वन्दिता के निवेदन को स्वीकारा कैसे अपनी किताबों के पन्नों में छुपाकर दोनों ने अपने नाम "अमनन्दिता" लिखे, कैसे पंख लगाकर उड़ते हुए उस 1 वर्ष में दोनों ने समर्पण की कसमें खाई सब कुछ फिर से अमन की आंखों में तैरता चला गया। नेत्र खुले हुए बहते रहे कैसे दोनों उसी समर्पण की शपथ के साथ एक दूसरे से अलग हुए, अपने हृदय के समर्पण को संजोए अमन ने 3 वर्ष कानपुर विश्वविद्यालय से स्नातक किया और उसके बाद बनारस आकर एक माह तक रहने का ठिकाना पढ़ाई लिखाई का साधन जुटाता रहा, और आज कितनी आशाओं के साथ फिर से उसी समर्पण की 3 वर्षों से संचित पूंजी फिर से वन्दिता को सौंपने आया था, लेकिन..... ........... ।

अचानक मंदिर में जोर जोर से बजती घंटियों से अमन की तन्द्रा भंग हुई, "ओह! आरती शुरू हो गई" अमन मन ही मन बुदबुदाता हुआ आरती में आकर खड़ा हो गया।

आरती समाप्त होने के बाद अमन को काफी हल्का महसूस हो रहा था, शायद आध्यात्मिक आशीर्वाद या फिर ध्यान हट कर फिर से संसार की ओर आ गया था।

 सामान्य होकर अमन कमरे पर वापस आया फिर से काफी तरोताजा महसूस कर रहा था अपनी उम्मीदों को फिर से जीवंत करने लगा था ।

"मैं भी कैसा मूर्ख हूँ, वह सच ही तो कहती थी, 3 सालों बाद ऐसे अचानक उसकी सहेलियों के सामने मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो गया, और सच ही तो है, उसके कितने ही संबंधी यहां रहते हैं: आखिर वह एक लड़की है कैसे अचानक खुल कर मुझसे बात कर सकती थी, ठीक ही तो है मेरा और उसका परस्पर समर्पण इतना अशक्त थोड़े ही है, कि बस 3 वर्षों की दूरी यूं ही समाप्त कर दें। ठीक है अब मैं उसके कॉलेज में जाकर उसे दोबारा शर्मिंदा नहीं करूंगा।"

 बिस्तर पर ऐसी ही उधेड़बुन के बीच कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला सुबह उठा तो नई भोर के साथ उम्मीदों की नई सहेज उसके साथ थी। वह फिर से स्वयं को जिंदा महसूस करने लगा था 2 दिन यूं ही सामान्य रूप से सब कुछ चलता रहा अमन भी बड़ा प्रसन्नचित्त हो होकर अपने रूटीन में बिजी हो गया उसे आभास हो रहा था कि उसने कुछ क्षणों में ही अपने वर्षों के समर्पण को कितना गलत कितना कम आंका था ।आज उसे वन्दिता से मिले हुए 3 दिन बीत गए थे पिछली बार मिलते समय वह वन्दिता को भाभी जी के घर का नंबर दे आया था, शाम के रूटीन के हिसाब से वह मंदिर जा कर आया था और अपने कमरे में रोज की तरह अपना खाना खुद ही बना रहा था कि तभी भाभी जी की नीचे उतरते हुए आवाज आई "अमन ऊपर आ जाओ तुम्हारे लिए किसी वंदिता नाम की लड़की का फोन है" उनके चेहरे पर सूचना के साथ कई तरह के प्रश्न स्पष्ट अमन को दिखाई दिए ।

"वो भाभी जी बचपन की दोस्त है मेरे और उसके पापा एक साथ पोस्ट थे, यहां बनारस में उनकी फैमिली के अलावा मेरा कोई परिचित नहीं..."बात बनाने के प्रयास में, अमन एक ही सांस में सब कुछ बोल गया, और तीर की तरह कमरे से लगभग भागकर, एक साथ दो दो सीढ़ियां छलांगता हुआ ऊपर के कमरे की ओर भागा जोरों से धड़कते दिल के साथ मन-ही-मन स्वयं को कोसता जा रहा था।

" मैंने उसे कितना गलत समझा, पिछले दिनों क्या-क्या नहीं सोचा उसके बारे में और आज देखो समय निकालकर रात के 8:00 बजे पीसीओ से मेरे लिए फोन किया है "।

तेजी से धड़कते दिल के साथ अमन ने फोन उठाया 

"हेलो! कैसी हो ? सॉरी मैंने उस दिन तुम्हें कॉलेज में आकर काफी एम्बरेस, किया मुझे खुद समझना चाहिए था....और कैसी हो तुम?

ठीक हूं !आपसे कुछ बात कहनी थी!

 हां हां बोलो! बात करने के लिए ही तो फोन किया होगा..

 देखिए अब हम इस तरह मिल नहीं पाएंगे ।

हां ठीक है ना ! मैं भी समझता हूं यहां तुम्हारे सारे रिश्तेदार, परिवार वाले.... 

"नहीं वह बात नहीं है !अब हम मिल नहीं सकते..." दूसरी तरफ से वन्दिता ने अमन की बात काटते हुए कहा। 

क्या मतलब ! मैं कुछ समझा नहीं, तुम कहना क्या चाहती हो?

 देखिए आप और हम दोनों अब समझदार हैं, बचपना तो रहा नहीं, मेरे घर में भी अब मेरी शादी की चर्चा होने लगी है..

 हां तो तुम उनसे बात करो! कि तुम्हें अभी शादी नहीं करनी.. अमर ने घुटते हुए स्वर में कहा..

आप समझते क्यों नहीं ? हम अब नहीं मिल सकते !

हां! तो मैं कहां कह रहा हूं रोज मिलने के लिए, भाई मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूं, अमन अभी भी वास्तविकता से निगाहें चुराने का प्रयास करते हुए बोला।

 देखिए ! मैं अपने बचपने को पीछे छोड़ चुकी आप भी छोड़ दीजिए!

 क्या ? बचपना !!

अमन के भर्राए हुए गले से इतना ही निकला, फिर जैसे कलेजे से जोर लगाकर बोला

 क्या तुम मेरा हाथ छोड़ रही हो ? साफ-साफ कहो !!

नहीं ऐसी बात नहीं है, लेकिन अब बस... 

हल्की खटाक की आवाज से फोन कट गया, अमन निःस्तब्ध सा खड़ा रहा, रिसीवर छूटकर हाथों से गिर चुका था, भीतर बहुत कुछ टूट कर बिखर गया था, फूटते हुए आंसुओं के बोझ से अमन घुटनों के बल आ गया... बड़ी देर बाद मुश्किल से हिचकियों के साथ केवल एक शब्द मुंह से निकल सका.. 

"बचपना"

और आंखों के सामने अंधेरा छा गया।।


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