भतखवाई
भतखवाई
भीड़ से हटकर सिद्धार्थ अकेला बैठा हुआ था आज किसी से भी मिलने, साहस उसमें नहीं था। आंसुओं को बाहर आने से पहले कमीज की बाजू में समा लेना, प्रयास बस इतना ही, कि उसका अपराध बोध किसी को दिख न जाए।
दालान में अभी भी बाबूजी चिर निद्रा में ऐसे सो रहे थे कि अभी उठ कर कह पड़ेंगे "आ गए सिद्धार्थ बाबू! बड़ी प्रतीक्षा करवाए।
सिद्धार्थ अव्यक्त के अनुभव से दबा हुआ था।
बाबूजी के इस प्रकार अचानक जाने पर प्रारब्ध के पश्चाताप का दुख भारी लग रहा था, कैसे पापा जी और बाबूजी की वैवाहिक लोक रीतियों में हुई अनबन और उसके झूठे अहम में उसने विदाई के समय ही कह दिया था
"अब कभी जीवन में आपके द्वार पर नहीं आऊंगा "
पिछले 17 सालों में बाबू जी ने अपनी नम्रता ,समर्पण और प्रेम से उस कलुष को धोने का अथक प्रयास किया था, लेकिन सिद्धार्थ अपने अहम के रंगों से उसे और गाढ़ा करता गया कभी नहीं लौटा, कभी नहीं ।
अभी पिछले साल ही तो बाबू जी घर आए थे चलते-चलते अपनी नातिन के हाथ पर नेग रखते हुए हाथ जोड़कर भर्राए गले से सिद्धार्थ से बोले थे&
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"बेटा ! भूल चूक क्षमा करो तुम्हारी "भतखवाई" अभी तक उधार है, क्या इसी कर्ज के साथ दुनिया से वापस भेज दोगे, एक बार आ जाओ तुम्हारी भतखवाई से उरृण हो जाने दो...
परंतु सिद्धार्थ को, विजय प्राप्ति का एहसास हुआ था, उस दिन, जैसे किसी पुरानी दुश्मनी का बदला ले लिया हो ।
अचानक दालान में हलचल बढ़ गई, बाबूजी अपनी अन्तिम यात्रा पर चल पड़े थे, विचारों के सघन में भटकते हुए कब सिद्धार्थ घाट पर खड़ा था, कब मुखाग्नि ज्वाला में बदली और बाबूजी अंतरिक्ष में विलीन हो गए पता ही नहीं चला।
सिद्धार्थ पछतावे के बोझ से दबा मुड़कर चल दिया, तभी भूपेंद्र ने कंधे पर हाथ रखा,
जीजाजी !17 साल बाद आप आज आए, हो सके तो तेरहवीं में आ जाइएगा, बाबूजी को शांति मिलेगी ।
सिद्धार्थ कुछ बोल ना सका आंखें कड़वी हो रही थीं, नजर घुमा कर आगे चल पड़ा...
हां !आऊंगा जरूर आऊंगा, तेरहवीं का भात ही सही पर बाबूजी को भतखवाई के ऋण से उरृण जरूर करूंगा... जरूर आऊंगा ....
बस खुद से इतना ही कह सका था सिद्धार्थ!!